स्वदेशी की यह भावना और कृति, न ही आक्रमकता की है, न ही स्पर्धात्मक। यह अपने राष्ट्र को आत्मनिर्भर और समृद्धि से संतुष्टि तक ले जाने की बात है। - अनिल जवलेकर
आजकल ‘राष्ट्र प्रथम’ और ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ की चर्चा है। ‘राष्ट्र प्रथम’ में राष्ट्रहित छुपा है। निश्चित ही राष्ट्रहित की दृष्टि कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीकी को मानवहित की दिशा दे सकती है और स्वदेश, स्वाभिमान, राष्ट्रहित में काम करने की प्रेरणा। यह कहने की जरूरत नहीं कि स्वदेशी तकनीकी विकास ही राष्ट्र को स्वावलंबी बना सकता है तथा इसके दुरुपयोग से होने वाले नुकसान से देश को बचा सकता है।
‘राष्ट्र प्रथम’ भावना में ही राष्ट्रहित
‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना जब सारे समाज की इच्छा बन जाती है, तब वह राष्ट्रहित में काम करती है। लेकिन जब कुछ लोग किसी भी स्तर पर स्वार्थ भरी ‘राजनीतिक इच्छा’ को सबसे ऊपर मानते है, वे राष्ट्रहित नहीं समझते और देश विरोधी ताकतों को बल देते है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देश और उनके राजनीतिज्ञ अपने-अपने देश के बारे में अपनी-अपनी सोच रखते है और अपने देश के हित में काम करते है। लेकिन भारत में ऐसा देखा गया है कि यहाँ के विशिष्ट नेता और विशिष्ट विद्वान विदेश में जाकर भारत विरोधी बयान देते है या भारत विरोधी लोगों से सलाह-मशवरा करते है। वैसे इस बात की शुरुआत प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ज्यादा दिखाई देती है। इस युद्ध के बाद ही साम्यवादी विचारधारा ने ज़ोर पकड़ा और हर देश में कुछ लोग साम्यवाद के नाम पर दूसरे देश से आर्थिक-वैचारिक समर्थन लेकर अपने ही देश में स्वार्थ की राष्ट्र विरोधी राजनीति करने लगे। उनका मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रवादी’ सोच खत्म करना रहा। भारत में इस साम्यवादी विचारधारा के प्रचारकों में से कुछ नक्सल बनें तो कुछ व्यक्ति स्वातंत्र्य, बंधुत्व, आर्थिक-सामाजिक न्याय वगैरे नाम से देशांतर्गत अराजकता फैलाने में लगे, ताकि राजनीतिक सत्ता उनके हाथ आए। बात तब बढ़ी जब इनकी दृष्टि और कृति आतंकियों का भी साथ देने लगी। इनका मानना था कि ‘राष्ट्र प्रथम’ वाली भावना मानवता विरोधी है और उनका प्रयास रहा कि देशवासी ‘राष्ट्रवाद’ में ही राष्ट्रहित है, यह बात भूल जाए। लेकिन दूसरी तरफ एक और विचारधारा अस्तित्व में थी, जो पूंजीवादी के नाम से जानी जाती है। इस पूंजीवादी विचारधारा ने लोकतंत्र तथा आर्थिक विकास के नाम पर साम्यवादी विचारधारा को पराभूत किया। यह विचारधारा भी ‘राष्ट्र प्रथम’ भावना की विरोधी रही।
इस विचारधारा को भी पूंजीवादी स्वतंत्रता चाहिए थी, इसलिए ‘उदारीकरण और जागृतिकरण’ के नाम से उसे प्रचारित किया गया। इतिहास गवाह है कि यह दोनों विचारधाराएं और इनकी शासन व्यवस्था लोकतंत्र, स्वतंत्रता, सामाजिक-आर्थिक न्याय स्थापित नहीं कर पायी। इतना ही नहीं इन विचारधाराओं ने जीवन को ही विनाश के तट पर लाकर खड़ा कर दिया। आज हालात यह है कि सभी देश इन दोनों विचारधाराओं से ऊब चुके है और फिर एक बार ‘राष्ट्र प्रथम’ की विचारधारा पर चल पड़े है। वैसे ‘राष्ट्रवाद’ ही वह विचारधारा है जो किसी न किसी रूप में शुरू से ही दुनिया भर के हर समाज में रही है। भारत में भी भारतीय सभ्यता का प्राचीनतम रूप भारत भूमि को प्रणाम करता रहा और एक श्रेष्ठ संस्कृति विकसित करता गया। इसके पीछे निश्चित तौर पर ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना ही रही, चाहे इसके रूप अनेकों स्तर पर अनेक रहे।
भारत एक सुसंस्कृत राष्ट्र है
भारत हमेशा से ही एक सुसंस्कृत राष्ट्र रहा है। ‘राष्ट्र’ की व्याख्या केवल भूभाग से नहीं होती, न ही वहां रह रहे लोगों के धर्म या पंथ से होती है। ‘राष्ट्र’ की पहचान एक विशिष्ट भूभाग में बसे लोगों का एकात्म भाव एवं उससे उभरी उनकी सर्वसमावेशी की संस्कृति से होती है। भारतीय एकात्म विचार दर्शन और सर्व जीवों के प्रति सम भाव रखने वाली संस्कृति उन सभी विचार और भावों का आदर करती है और उसे अपने में समाहित करती है। जो आज के मानवतावादी विचार तथा लोकतंत्र व्यवस्था के अंश है। इसलिए यहाँ के समाज को धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र की परिभाषा समझाने की जरूरत नहीं है। वो उनके स्वभाव में है। भारतीयों का ज्ञान-विज्ञान, सांस्कृतिक अस्तित्व और उनकी सामाजिक व्यवस्था सबसे प्राचीन है। इसके मूल्य भी प्राचीन है और इस संस्कृति ने समस्त जीवन के सह-अस्तित्व तथा सह-जीवन के प्रति एक प्रगतिशील समझ निर्मित की है तथा एकात्म मानव दर्शन द्वारा एक समाज व्यवस्था दी है। इसी से विश्व कल्याण जैसे मूल्यों का निर्माण हुआ है और यही बात आज भी उपयुक्त है।
छद्मी नेता और खोखले विद्वानों ने देश की दिशा बदली
यह बात छुपी नहीं कि यहां के साम्यवादी विचारधारा के आधे-अधूरे विद्वानों के प्रभाव में आकर हमारे यहां के नेताओं ने छद्मी धर्म-निरपेक्षता की आड़ में भारतीय संस्कृति का इतिहास ही पलट डाला और उसके सारे दृष्टिकोणों को गलत ढंग से प्रसारित किया, जिसका परिणाम आज हमारे युवाओं की भ्रमित अवस्था में देखा जा सकता है। आज का भारतीय युवक अपने हर विचार को पाश्चात्य विचारों की कसौटी पर परखने की कोशिश करता दिखता है, वो विचारधाराएँ - जिसमें साम्यवादी और पूंजीवादी दोनों शामिल है - आज पराभूत सी है। इन्हीं दो विचारधाराओं ने मानव जाति तथा समस्त पृथ्वी जीवन को विनाश तक पहुंचा दिया है। आज भी कुछ नेता जिनकी अपनी कोई सोच नहीं है, वे और छद्मी धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले तथाकथित साम्यवाद से प्रभावित विद्वान इस देश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति तथा उसके मूल्यों को नीचा दिखाने का मौका नहीं छोड़ते। हालांकि जानते हुए या नासमझी से वे दूसरे देश की राजनीतिक इच्छा को पूरा कर रहे होते है। हो सकता है उसमें उनका कोई व्यक्तिगत लाभ भी छुपा हो। लेकिन यह राष्ट्रहित में नहीं है। यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रहित अपने और अपने समाज के दीर्घकालीन हित से जुड़ा हुआ होता है। इसलिए यह जरूरी है कि ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना को स्वीकार और उसके अनुसार कृति किसी भी सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति या संस्था की पहचान होनी चाहिए।
स्वदेशी और स्वावलंबन नीति राष्ट्र हित में
‘राष्ट्र प्रथम’ एक भावना है और यह जब समाज की सामयिक इच्छा बन जाती है तो बदलाव का माहौल बनाती है। लेकिन इस बदलाव को स्वदेशी मंत्र और स्वावलंबन की नीति आवश्यक है, तभी यह इच्छा राष्ट्रहित साध सकेगी। ‘स्वदेशी’ मंत्र स्वदेशी आचार-विचार, संस्कार, तकनीकी संशोधन तथा स्वदेशी वस्तु एवं सेवा उत्पादन का, जब आधार बनेगा तो देश को व्यापार, आर्थिक विकास तथा तकनीकी को स्वावलंब की ओर ले जा सकेगा। यह समझना जरूरी है कि स्वदेशी की यह भावना और कृति न ही आक्रमकता की है, न ही स्पर्धात्मक। यह अपने राष्ट्र को आत्मनिर्भर और समृद्धि से संतुष्टि तक ले जाने की बात है। यह नहीं है कि यह मंत्र और इससे उभरी नीति अंतरराष्ट्रीय समाज से अलग होकर जीना चाहती है। यह सभी देशों की संस्कृति का सम्मान करती है और सह-अस्तित्व की भावना से सभी के समृद्धि तथा विकास के लिए सभी के एक दूसरे को सहयोग की कामना करती है। एक दूसरे के प्रगति में सहायक होने की भूमिका इसमें है। ‘राष्ट्र प्रथम’ से ही ‘मानव जाति प्रथम’ की भावना आएगी तथा विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। उसी से कृत्रिम बुद्धिमत्ता का भी सही उपयोग होने में मदद मिलेगी।ु