दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर, यमुना नदी के किनारे स्थित बागपत जिले के सनौली गांव में 2018 में उत्खनन हुआ था। इस दौरान ऐसी खोजें हुईं, जिसने भारतीय इतिहास की समझ को पूरी तरह बदल दिया। - अनिल तिवारी
वक्त करवट बदलकर इतिहास बनता है और फिर एक ऐसा वक्त भी आता है जब इतिहास भी अपने सबूत के साथ काल के गाल में विलीन हो जाता है। यह सच है कि ‘इतिहास वक्त की कब्र है’, पर शायद चंद दिनों के लिए ही। फिर धीरे-धीरे इतिहास भी नष्ट हो जाता है।
कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है, लेकिन वह खुद भी तो ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाता? अगर ऐसा नहीं होता तो आज हमें कोई राजमहल खंडहर के रूप में नहीं मिलता। अपने मात्र 5000 साल पुरानी सभ्यता की नींव तलाशने के लिए हमारे इतिहासकारों को टूटे-फूटे बर्तनों, ईटों, कुओं, टूटी छतों, ढही दीवारों और जमीन पर लेटे खंभों में अटकलें नहीं लगानी पड़ती।
इतिहास के साथ हमारा लगाव तो होता है, लेकिन तब, जब वह अंतिम सांस लेने को होता है। वरना हम अपने वर्तमान संदर्भों में इतना उलझे रहते हैं और कभी-कभी अपनी ही लापरवाही से अपने ही दामन में आग लगा देते हैं। और जब इतिहास को वक्त की चिंगारी अपने आगोश में ले लेती है और वह सुलग कर धुआं बनने लगता है, तब हम अपने पूरे प्रयास के साथ उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं और बचे हुए अवशेषों को डबडबाई आंखों से देख रोते रहते हैं, तब तक जब तक कि फिर कोई वर्तमान इतिहास का हिस्सा न बन जाए।
भारत का गौरवशाली अतीत कई तरह के वैभव से परिपूर्ण रहा है। ऋषि और कृषि परंपरा वाले इस देश का इतिहास पृथ्वी ग्रह की मानव सभ्यता को रोशनी प्रदान करता रहा है। इन बातों का संपूर्ण उल्लेख हमारे प्राचीन वेद वेदांगों में आज भी अक्षुण्ण है। लेकिन कहते हैं कि भूगोल की तरह ही देश,काल, परिस्थिति के हिसाब से इतिहास के साथ भी सदैव छेड़छाड़ होता रहा है। यही कारण है कि दुनिया के पैमाने पर इतिहास की समझ कई बार अलग-अलग दिखाई देती है। किसी ने तो यहां तक कहा है कि इतिहास बनता ही है बिगाड़ने के लिए। लेकिन आज भी समूचा सच यही स्थापित है की इतिहास हमें न सिर्फ भविष्य की दृष्टि देता है, बल्कि बिगड़ी हुई समझ को दुरुस्त करने का भी सबसे कारगर जरिया साबित होता है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के सनौली से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष ब्रिटिश कालीन इतिहासकारों द्वारा स्थापित की गई समझ को न सिर्फ कटघरे में खड़ा करता है बल्कि तथ्यों के साथ हमारे देश के अद्भुत इतिहास, परम वैभव की पुष्टि करता है और नए सिरे से इतिहास को नए परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने की दृष्टि प्रदान करता है।
दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर, यमुना नदी के किनारे स्थित बागपत जिले के सनौली गांव में 2018 में उत्खनन हुआ था। इस दौरान ऐसी खोजें हुईं, जिसने भारतीय इतिहास की समझ को पूरी तरह बदल दिया।
सनौली में लगभग 4000 साल पुरानी 116 मानव समाधियां मिली हैं। यह तिथि कार्बन डेटिंग के आधार पर तय की गई है। इन समाधियों के साथ मिली चीजें बहुत खास हैं। सबसे महत्वपूर्ण खोज घोड़ों द्वारा खींचा जाने वाला लकड़ी और तांबे से बना रथ है। पहली बार भारत में किसी खुदाई में रथ के अवशेष मिले हैं। भारत के पुराने ग्रंथों में रथों का खास महत्व बताया गया है। खुदाई में समाधि के साथ कुल तीन रथों के अवशेष मिले हैं, जो बहुत उन्नत तकनीक से बने हुए हैं। ये रथ प्राचीन भारतीय विज्ञान और कला का प्रमाण हैं। माना जाता है कि जिनकी समाधियां थी, वही इन रथों के मालिक थे। इन समाधियों से तांबे की बनी तलवारें भी मिली हैं।
यहां मिले कंकालों में पुरुष और महिलाओं, दोनों के अवशेष हैं। इनके साथ कई तरह की चीजें रखी गई थीं। कुछ समाधियों से युद्ध में इस्तेमाल होने वाली ढालें मिली हैं, जो लकड़ी और तांबे से बनी थीं। इसी तरह, सिनौली से ही पहली बार योद्धाओं द्वारा पहना जाने वाला शिरस्त्राण (हेलमेट) भी मिला है। ये चीजें साफ तौर पर बताती हैं कि सिनौली में रहने वाले योद्धा वर्ग के थे। महिलाओं के कंकालों के साथ तलवारें और अन्य चीजें मिलने से यह भी साबित होता है कि प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति पुरुषों के बराबर थी।
समाधियों से तांबे के औजारों के अलावा अन्य चीजें भी मिलीं, जैसे मिट्टी के बर्तनों में रखा खाना, मोती (मनके) और हड्डी से बने तीरों के सिरे। समाधि स्थल के पास ही पकी हुई ईटों से बना एक कक्ष भी मिला, जिसकी छत शायद लकड़ी की थी। ऐसा लगता है कि शवों को दफनाने से पहले इस कक्ष में रखा जाता था और यहां अंतिम धार्मिक रस्में की जाती थीं। 2018 में हुई खुदाई में मिट्टी के बर्तन पकाने और तांबे को गलाने वाली भट्टियों के अवशेष भी मिले। इसके अलावा, बड़ी संख्या में पकी हुई ईंटें मिलीं, जो 50 सेंटीमीटर लंबी और 30 सेंटीमीटर चौड़ी थीं। इन सब चीजों से साफ है कि सनौली के लोग वहीं बसकर रहते थे और उनका जीवन संगठित व विकसित था।
भारतीय इतिहास में सरस्वती-सिंधु सभ्यता का खास स्थान है, लेकिन सनौली से मिली चीजें इस सभ्यता से बिल्कुल अलग हैं। हाल के वर्षों में पुरातत्वविदों ने पाया कि 4000 साल पहले गंगा और यमुना के दोआब में सरस्वती-सिंधु सभ्यता से अलग एक नई संस्कृति थी। इस पर अभी और शोध की जरूरत है। सनौली के पुरावशेषों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि सनौली के कंकाल का डीएनए और राखीगढ़ी से मिले 4500 साल पुराने कंकाल का डीएनए एक जैसा है। यह संकेत देता है कि सनौली की खोज और डीएनए रिपोर्ट भारतीय इतिहास में फैलाए गए कई भ्रम को जल्द ही खत्म कर सकती है।
प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ, ख्यातिलब्ध इतिहासकार प्रोफेसर ईश्वर शरण विश्वकर्मा ने सनौली के उत्खनन तथा वहां से प्राप्त पूरावशेषों के बारे में पूछे जाने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि “सनौली के पुरातात्त्विक उत्खनन के प्रमाणों के विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट है कि उस स्थल के अब तक दफनाए गए साक्ष्य ताम्र निधि/गैरिक मृदभांड संस्कृति से संबंध का संकेत देते हैं। पूरा संग्रह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सनौली के लोग अत्यधिक परिष्कृत जीवन शैली में जीवन जी रहे थे, जिसमें विकसित लकड़ी और तांबे के शिल्प शामिल थे। सांस्कृतिक संग्रह यह भी दर्शाता है कि वे युद्ध में शामिल थे।
हुलास, आलमगीरपुर, मंडी, मदारपुर, भोरगढ़ और हाल ही में हरिपुर और गंगा-यमुना दोआब में कुछ अन्य पुरातात्त्विक स्थल परिपक्व हड़प्पावासियों के साथ उनके सह-अस्तित्व के साक्ष्य प्रदान कर रहे हैं। सनौलीवासियों की अंत्येष्टि प्रथाएँ और मृत्यु संबंधी मान्यताएँ अधिकांशतः हड़प्पावासियों से मिलती-जुलती हैं, लेकिन समाधि (दफनाने) के सामान, रथ और ताबूत तकनीकी रूप से उनसे अलग हैं। ऐसे कई सवाल हैं जिनका इस क्षेत्र में व्यापक सर्वेक्षण और परीक्षण खुदाई और नेक्रोपोलिस के आवास स्थल की खुदाई के बाद बेहतर उत्तर दिया जा सकता है।“