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सेहत के लिहाज से भी जरूरी है स्वदेशी पद्धति

भारत प्राचीन काल से ऋषि और कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है। इसलिए भी हमें खेती के प्राचीन पारंपरिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर देश के जन-धन को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। - शिवनंदन लाल

 

तेजी से बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती में रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल का आम लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इस मुद्दे पर विषेषज्ञों की तमाम चेतावनियां भी अब तक बेअसर ही रही हैं। खाद्य विषेषज्ञ रासायनिक की जगह जैविक तथा अपने देष में प्राचीन काल से पारंपरिक रूप से तैयार की जाती रही खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक उर्वरकों के अधिक मात्रा में उपयोग से न सिर्फ फसल प्रभावित होती है बल्कि इससे जमीन की सेहत, इससे पैदा होने वाली फसल को खाने वाले इंसानों और जानवरों की सेहत के साथ ही पर्यावरण पर भी बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनाज और सब्जियों के माध्यम से इस जहर के लोगों के शरीर में पहुंचने के कारण लोग तरह-तरह की नई-नई बीमारियों के षिकार बन रहे हैं। ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ की रिपोर्ट के मुताबिक रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल के कारण देष की 30 फ़ीसदी जमीन बंजर होने के कगार पर है। यूरिया के इस्तेमाल के दुष्प्रभाव के अध्ययन के लिए सरकार ने ‘सोसायटी फॉर कंजर्वेषन ऑफ नेचर’ की स्थापना की थी। उसने भी यूरिया को धरती की सेहत के लिए घातक बताया है। यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को भी प्रभावित किया है। नाइट्रोजन चक्र बिगड़ने का दुष्परिणाम केवल मिट्टी पानी तक सीमित नहीं रहा है। नाइट्रष ऑक्साइड के रूप में यह एक ग्रीन हाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका यह बड़ा योगदान है। कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1950-51 में भारतीय किसान मात्र 7 लाख टन रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करते थे, अब यह बढ़कर 346 लाख टन से भी अधिक हो गया है।

दुनिया भर में चली वैश्वीकरण की बयार के बाद से खेती में रासायनिक खादों पर निर्भरता बढ़ती गई है। रासायनिक खादों के लगातार इस्तेमाल से एक ओर खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता खराब  होने लगी है, तो दूसरी ओर कृषि लागत लगातार बढ़ती जा रही है। यूरिया, डीएपी (डाई-अमोनियम फॉस्फेट) और एमओपी (म्यूरिएट ऑफ पोटाष) के लिए हम. दूसरे देषों पर निर्भर हैं। एमओपी के लिए हम कनाडा, रूस, जॉर्डन, इस्त्राइल, तुर्कमेनिस्तान और बेलारूस जैसे देषों पर निर्भर हैं।

बेषक हमारे यहां यूरिया की आवष्यकता का अस्सी प्रतिषत उत्पादन होता है, मगर यूरिया बनाने के लिए तरल गैस का आयात कतर, अमेरिका, यूएई और अंगोला से किया जाता है। इन देषों की निर्यात नीतियां हमें प्रभावित करती हैं और यूरिया उत्पादन की लागत बढ़ती जाती है। बीस प्रतिषत यूरिया की कमी पूरी करने के लिए भी हम आयात पर निर्भर हैं। डीएपी की अत्यधिक कीमत और कमी से विगत कई वर्षों से किसान परेषान हैं। यूक्रेन युद्ध के कारण भी इस समस्या में वृद्धि हुई है।

कृषि वैज्ञानिकों ने आयातित रासायनिक खादों के विकल्प के तौर पर अमोनियम फॉस्फेट सल्फेट (एपीएस) जैसे उर्वरकों को बढ़ावा देने की रणनीति तैयार की है, जिसकी कीमत बेषक डीएपी से कम है, मगर इतनी भी कम नहीं है कि उस नीति से बहुत ज्यादा लाभ मिल सके। एपीएस खाद में 20 प्रतिषत नाइट्रोजन, 20 प्रतिषत फॉस्फोरस, शून्य प्रतिषत पोटाष’ और 13 प्रतिषत सल्फर होता है। एपीएस खाद, रॉक फॉस्फेट और सल्फ्यूरिक एसिड से तैयार -की जाती है, जिससे फॉस्फोरिक एसिड की बचत होती है। यह खाद तिलहन, दलहन, मक्का, कपास, प्याज, मिर्च जैसी फसलों के लिए उपयुक्त है, मगर गेहूं, धान और गन्ने के लिए अब भी डीएपी का विकल्प, एपीएस नहीं है। वैज्ञानिक कुछ फसलों के लिए ही एपीएस को डीएपी के विकल्प के रूप में तैयार कर रहे हैं।

ऐसे समय में, गोबर खाद और जैविक खादों को गांव-गांव में व्यापक स्तर पर तैयार करने के लिए एक नीति और अभियान की जरूरत महसूस की जा रही है। हमारी अवैज्ञानिक कृषि नीतियों के कारण गांवों से पषुओं की संख्या घटती गई है। क्रय-विक्रय की अड़चनों ने भी पषुपालन को हतोत्साहित किया है। पषुओं के कम होने से गोबर का उत्पादन कम हुआ है। खेती-किसानी से युवा वर्ग के पलायन के कारण भी गोबर खाद के उत्पादन के प्रति लोग लापरवाह हुए हैं। उसकी कमी को पूरा करने के लिए ही किसान रासायनिक खादों पर निर्भर होते गए हैं, लेकिन लगातार रासायनिक खादों के इस्तेमाल से मिट्टी के बंजर हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। गोबर खाद और जैविक खाद तैयार होने में समय जरूर लेती है, मगर वह पूरी तरह से खेती और खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता के लिए बेहतर है। इसलिए गोबर और जैविक खादों को तैयार करने के लिए सरकारी ग्राम सभा स्तर पर कृषि यंत्रों को उपलब्ध कराने की जरूरत है, जिससे हर खेत में फसलों के डंठलों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गड्ढों में थोड़ी-सी गोबर घोल और जानवरों के मूत्र छिड़ककर मिट्टी में दबा दिया जाए। इन गड्ढों में - गोबर के साथ पषुओं के बिछावन, भूसा और घास-फूस को भी डाला जा सकता है। हर फसल के समय अगर हम ऐसा करने लगेंगे, तो एक साल बाद, गड्ढों से सड़ी हुई गोबर और जैविक खाद मिलने लगेगी, जो उसी खेत को न केवल उर्वरक बनाएगी, बल्कि रासायनिक खादों पर हमारी निर्भरता कम करती जाएगी। इस प्रक्रिया से खेतों में फसलों के डंठलों को जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हम बिना अतिरिक्त लांगत के देसी खाद तैयार करेंगे और पर्यावरण को भी दूषित होने से बचाएंगे। साथ ही साथ एमओपी और यूरिया जैसे उच्च पोषक तत्व वाले उर्वरकों की खपत को सीमित करने में मदद मिलेगी।

यह कोई नई विधि नहीं है। पहले किसान मात्र गोबर खाद से ही खेती करते थे। हरित क्रांति के बाद, रासायनिक खादों का इस्तेमाल बढ़ा और कृषि मषीनों के इस्तेमाल के ’बाद हमने जानवरों को पालना कम कर दिया। हमें खेती-किसानी के लिए आधुनिक औजारों के साथ-साथ खाद बनाने के परंपरागत तरीकों को अपनाने की जरूरत हैं। पेड़ों के पत्ते, फसलों और सब्जियों के अवषेषों से जैविक खाद बनाने के लिए आगे आना चाहिए।

इसके साथ ही साथ गाय और भैंस पालन, उनके आवागमन और बिक्री में अड़चनें खत्म कर, गोबर का उत्पादन बढ़ाने और उसे खाद के रूप में इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आना चाहिए। उर्वरकों की आयात निर्भरता कम करने और किसानों को संतुलित उर्वरकों के उपयोग के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए। भारत प्राचीन काल से ऋषि और कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है। इसलिए भी हमें खेती के प्राचीन पारंपरिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर देश के जन-धन को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए।          

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