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उत्तराखंड हादसा: प्रकृति बचेगी, तभी हम भी बचेंगे

एक वाक्य में कहा जाए तो प्रकृति ने हमें काफी समय तक पाला और अब समय आ गया है कि हम भी अपना दायित्व समझते हुए प्रकृति को संभाले। ऐसे में जरूरी है कि हिमालयी क्षेत्रों में खुदाई, तोड़ फोड़ और निर्माण संबंधी गतिविधियों पर भी ज्ञान और विवेक का अंकुश मजबूत किया जाए। — वैदेही

 

वर्ष 2013 का केदारनाथ हादसा हमारी सामूहिक यादाश्त में धूमिल भी नहीं पड़ा है कि चमोली (उत्तराखंड) में एक और घटना हो गई। हालांकि केदारनाथ हादसा अपने आकार प्रकार और भीषणता के मामले में इससे कहीं बड़ा था, लेकिन हाल की दुर्घटना में एक बार फिर यह याद दिला दिया कि हिमालय के संवेदनशील इलाकों के घटनाक्रम को लेकर हम किस कदर न सिर्फ अनजान, बल्कि उदासीन भी बने हुए हैं और इसके कितने खतरनाक नतीजे हमें भुगतने पड़ सकते हैं। 7 फरवरी दिन रविवार की सुबह हुए हादसे के बारे में कहा जा रहा है कि यह ऊपरी क्षेत्र में आए एक हिमस्खलन का परिणाम है। वहीं दूसरी संभावना ग्लेशियर टूटने की बताई जा रही है। मगर दोनों ही स्थितियां अपने आप में इतनी तेजी से पानी के नीचे आने का कारण नहीं बन सकती। जमी हुई बर्फ दरक कर अच्छी-खासी ठंड में आखिर इतनी जल्दी पिघल कैसे जाएगी? जानकारों का कहना है कि हिमालय से जिस तरह की छेड़छाड़ की जाती रही है, उसके नतीजों से बच पाना भविष्य में अब नामुमकिन है। उत्तराखंड का यह हादसा कुदरत की ओर से बड़ा इशारा है कि प्रकृति बचेगी, तभी हम भी बचेंगे।

खबरों के मुताबिक इस हादसे में कई एक बाँध बह गए। पलक झपकते बांधों का इस तरह से बह जाना सवाल खड़ा करता है कि क्या हिमालय से जुड़े गाद, गदेरों और नदियों को बांधों की कतारों से बांध देना उचित है? हालांकि सवाल का जवाब देना आसान नहीं है, लेकिन इस घटना ने यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि बांधों का यह भी एक भयावह पहलू है। गौर करने की बात यह है कि एक छोटा सा बांध, जिसकी क्षमता 34 से 50 मेगावाट थी, उसके टूटने के कारण इतनी भयावह तबाही आ सकती है तो फिर अगर कोई बड़ा बांध टूटेगा तब का नजारा क्या होगा? जहां यह बांध टूटा है वहां से 50 से 100 किलोमीटर दूर तक नदी ने भयानक तेवर दिखाया है। कल्पना कीजिए कि ऋषि गंगा का यह बांध, जो कि मात्र 34 मेगावाट क्षमता वाला न होकर 500 मेगावाट का होता, तब क्या होता है? उसी स्थिति में बहुत संभव था कि हादसे का कहर देखते-देखते दिल्ली तक पहुंच जाता।

हिमालय ऐसे हादसों की मार बीते कई दशकों से लगातार झेल रहा है। समझना होगा कि हिमालय क्षेत्र की बर्बादी मात्र हिमालय क्षेत्र तक ही सिमटी नहीं रहेगी, इसके चौतरफा दुष्प्रभावों से गैर हिमालयी राज्य भी ज्यादा समय तक बचे नहीं रह सकेंगे। बढ़ते जल असंतुलन के चलते जहां एक तरफ पानी की कमी बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ बाढ़ के प्रकोप भी लोगों को झेलने होंगे।

यहां पर एक के बाद एक कई एक त्रासदियां सरकारों ने देखी, पर किसी ने भी इन त्रासदियों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई। देश दुनिया में ऊर्जा की बढ़ती मांग और इसके जवाब में खड़ी की जा रही बांधों की कतार देखकर तो यही लगता है कि ऐसे दुष्परिणाम आने वाले समय में हमें लगातार झेलते ही रहने होंगे। बहरहाल वर्तमान की घटना को अन्य कारकों से जोड़कर की भी देखें जाने की जरूरत है। 

पहला, धरती का बढ़ता तापमान हिमखंडों को स्थिर नहीं रख पाता। अंटार्कटिका और अन्य बर्फीले इलाकों से हिमखंडों के टूटने, पिघलने की खबरें अक्सर आती रहती है। 

दूसरी, महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इस तरह के बांध बनाते समय हिमखंडों से सुरक्षित दूरी भी बरकरार नहीं रखते और तीसरी जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि हमने हिमालय में जल की उपलब्धता को बांध खड़े करने का आधार तो बना लिया है, पर पहाड़ी राज्यों की परिस्थितिकी और उनकी संवेदनशीलता का आंकलन करते हुए बांधों की सीमाएं तय नहीं की है।

नदी का जलस्तर बढ़ने के कारण पानी तपोवन की सुरंग में भी घुस गया है। 3 किलोमीटर लंबी सुरंग में सैकड़ों लोगों के फंसे होने की आशंका है। इस आपदा से धौलीगंगा, ऋषि गंगा और अलकनंदा में पाई जाने वाली कोल्ड-वाटर मछलियां भी बड़ी संख्या में मर गई हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार आपदा के प्रभाव से ऋषि गंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा आदि नदियों में भारी हलचल मची हुई है। इससे मछलियों की लेटरल लाइन टूट गई है। मछलियों की लेटरल लाइन बेहद संवेदनशील होती है और मछली इसी लाइन के जरिए पानी के भीतर अपना संतुलन कायम रखती हैं। वही प्राकृतिक आपदाओं के बाद नदियों में बड़े पैमाने पर मलबा भी आ जाता है। हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली मछलियां बेहद साफ-सुथरे पानी में ही रहने की आदी होती हैं। आपदा के बाद नदियों में तेज हलचल के साथ ही पानी बेहद गंदा हो जाता है, ऐसे में उनकी मौत स्वभाविक है।

इस बीच उत्तराखंड को लेकर एक नई रिपोर्ट सामने आई है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि उत्तराखंड के 85 प्रतिशत जिले प्रचंड बाढ़ और इससे जुड़ी आपदाओं के हॉटस्पॉट हैं। काउंसिल आफ एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वाटर द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि 1970 से लेकर अब तक बाढ़ आने की तीव्रता और उसका अंतराल 4 गुना बढ़ गया है। बाढ़ से जुड़ी घटनाओं जैसे चट्टानों का खिसकना, बादल का फटना, ग्लेशियर झील का फटना, आदि भी इस दौरान 4 गुना तक बढ़ा है। इस मामले में चमोली, हरिद्वार, नैनीताल, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी जिले सबसे अधिक संवेदनशील है। पिछले 20 साल में उत्तराखंड में लगभग 50 हजार हेक्टेयर जंगलों का नुकसान हुआ है। मिनिस्ट्री आफ अर्थ एंड साइंस की एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदू कुश हिमालय में 1951 से 2014 तक तापमान में 1.3 डिग्री का इजाफा हुआ है। इस बड़े तापमान की वजह से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सामने आने लगे हैं। रिपोर्ट के अनुसार आने वाले समय में यह राज्य के 32 बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर असर डाल सकता है। यह सभी प्रोजेक्ट डेढ़ सौ करोड़ के ऊपर के हैं।

कई एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें बताती हैं कि अगर हमने अपना यही रुख रखा तो 21वीं सदी के समाप्त होने तक हम ऐसे ऊंचे तापक्रम में पहुंच जाएंगे कि समुद्र काफी सारी जमीनों को निगल लेगा और प्रदूषण उस सीमा तक पहुंच चुका होगा कि हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो जाएगा। एक वाक्य में कहा जाए तो प्रकृति ने हमें काफी समय तक पाला और अब समय आ गया है कि हम भी अपना दायित्व समझते हुए प्रकृति को संभाले। ऐसे में जरूरी है कि हिमालयी क्षेत्रों में खुदाई, तोड़ फोड़ और निर्माण संबंधी गतिविधियों पर भी ज्ञान और विवेक का अंकुश मजबूत किया जाए। साथ ही वहां की कुदरती हलचलों पर नजर रखने की बेहतर से बेहतर व्यवस्था की जाए। हमारी प्रकृति को बचाने कोई ऊपर से नहीं आएगा, हमें खुद ही आगे बढ़ना होगा। अगर हम अपनी प्रकृति को बचाएंगे, तभी हम भी बचेंगे।  

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