जलवायु परिवर्तन और बढ़ता तापमानः गेहूं के गायब होने का अंदेशा
यूं तो जलवायु परिवर्तन का खतरा पूरी मानव सभ्यता के लिए है लेकिन तापमान में थोड़ी और भी वृद्धि होती है तो भारत के गरीब की थाली से गेहूं की रोटी गायब हो सकती है। — वैदेही
पिछले सवा सौ वर्षों के इतिहास में वर्तमान साल (2022) के मार्च और अप्रैल का महीना सबसे अधिक गर्म रहा है। इसका सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है। देश के कई क्षेत्रों में पारंपरिक फसलों के उत्पादन में प्रति हेक्टेयर भारी कमी दर्ज की गई है। यह बात देश की खाद्य सुरक्षा चक्र के लिए अति गंभीर हैं। औसत वैश्विक तापमान के रिकॉर्ड में 2015 से 2021 तक के 7 साल सर्वाधिक गर्म वर्षों में शुमार किए गए हैं। अनुमान है कि भारत में सन 2040 तक औसत तापमान 1 से 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ सकता है। वैश्विक तापमान की बढ़ती रफ्तार पर नजर रखने वाले अध्ययन समूह की रिपोर्टों के मुताबिक मौजूदा सदी के अंत तक धरती का तापमान 4 से 5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा, जिसका सीधा असर गेहूं, जौ, सरसों और आलू जैसी फसलों की खेती पर पड़ेगा।
वर्तमान में पृथ्वी का बढ़ता तापमान निर्विवाद रूप से मानव इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती का संकेत दे रहा है। मानव जनित जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षय, मरुस्थलीकरण, जलवायु और रासायनिक प्रदूषण, मिट्टी का क्षरण, जंगल का विनाश जैसे मुद्दों को लेकर 50 साल पहले स्टॉकहोम सम्मेलन 1972 में चिंता प्रकट करते हुए तार्किक हल की बात की गई थी। यह वह समय था जब एक तरफ औद्योगिक और विकसित देश प्रदूषण, अम्ल, वर्षा, जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित थे, जबकि दूसरी तरफ गरीब और विकासशील देश परिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाए बिना गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सहायता की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन इस मुहिम का अधिकांश समय हम इस बात को मानने के पीछे ही गंवा दिए कि दरअसल समस्या मानव जनित है। आईपीसीसी एसेसमेंट रिपोर्ट 2012 के मुताबिक बेतहाशा हो रहे प्रकृति के दोहन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो पर्यावरण असंतुलन बढ़ता रहेगा और तापमान में भी बेतहाशा वृद्धि होती रहेगी।
ज्ञात हो कि जहां हमें प्रकृति के घटकों के आपसी संबंधों के विशाल जाल को समझकर प्रकृति सम्मत सतत विकास की अवधारणा को अपनाना था, वहां पर हमने केवल तकनीक आधारित आर्थिक विकास के मॉडल को चुना, जिससे ना सिर्फ प्राकृतिक घटक गुणात्मक रूप से प्रभावित हुए बल्कि मूलभूत सारी प्राकृतिक प्रक्रिया और घटकों के संबंध भी उसके लपेटे में आए। इसलिए नतीजे अनुमान के विपरीत निकले। तापमान में वृद्धि, जंगलों की आग, जैव विविधता का क्षय, मरुस्थलीकरण, प्लास्टिक प्रदूषण, क्लाइमेट एक्सट्रीम्स आदि की बढ़ोतरी हुई और इसका सीधा असर अब कृषि पर पड़ रहा है।
कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में उपजाऊ मृदा, जल, अनुकूल वातावरण तथा फसलों के दुश्मन कीट पतंगों से बचाव आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। फसल को ठीक से विकसित होने के लिए आवश्यक तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता भी जरूरी होती है। लेकिन बढ़ते तापमान के साथ यह चक्र भी गड़बड़ होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण भारत जैसे देश की पारंपरिक खेती धीरे-धीरे नष्ट हो चुकी है। हमारे देश के अधिकांश हिस्सों में खेती में बारहअनजा (बारह तरह के अनाज) की संस्कृति थी, अब वह इतिहास की बात हो गई है। टांगून, गोहार, सांवा, कोदो जैसी फसलों की बात अब केवल घाघ की कहावतों में है।
सवाल केवल गर्मी का ही नहीं है देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण दखल रखने वाले मानसून की चाल भी जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार टेढ़ी-मेढ़ी गति से चल रही है। पिछले साल जून में जब पश्चिमी हिमालय अत्यधिक वर्षा से हलकान था तब मध्य और दक्षिण भारत के हिस्से में सूखे की स्थिति थी। राजस्थान में असमय बाढ़ तथा पहाड़ी राज्यों में बादल फटने की घटना सामान्य नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों का कहना है कि अबकी बार ज्यादा तापमान की वजह से गेहूं की फसल पूरी तरह नष्ट हो गई है। आवश्यक नमी के अभाव में दाने पुष्ट नहीं हुए और पहले ही सूख गए।
आने वाले वर्षों में भारत की आबादी बेतहाशा बढ़ेगी। बढ़ी हुई आबादी का पेट भरना अपने आप में एक चुनौती होगी। बढ़ती हुई आबादी के मद्देनजर अलग-अलग फसलों की मांग बढ़ेगी लेकिन जलवायु परिवर्तन और लगातार हो रहे तापमान में वृद्धि के कारण प्रचलित खेती-किसानी के राह में संकट खड़े होंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य सुरक्षा के सभी 4 आयामों (खाद्य उपलब्धता, खाद्य पहुंच, खाद्य उपयोग और खाद्य प्रणाली स्थिरता) के बुरी तरह से प्रभावित होने की आशंका है। यदि धरातल का तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो हमारे सामने खाने के संकट भी उत्पन्न हो सकते हैं। तापमान में वृद्धि के चलते भारत जैसे देश की बड़ी आबादी का पेट भरने वाला गेहूं सिरे से गायब हो सकता है। हालांकि गेहूं भारत का प्राचीन खाद्य फसल नहीं रहा है। आजादी के बाद बढ़ती आबादी को थामने के लिए हमारे देश में गेहूं की संस्कृति अधिक विकसित हुई। ऋषि और कृषि का देश कहे जाने वाले भारत में शताब्दियों से मोटे अनाज की प्रथा थी, लेकिन आबादी बढ़ने और उपज कम होने के कारण ‘अधिक अन्न उपजाओ’ के नारे के बाद देश ने गेहूं की तरफ रुख किया। यह सही है कि गेहूं की बेशुमार उपज के कारण हम खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गए हैं।
मानव विकास की मुख्य चार क्रांतियों (चेतना क्रांति, कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और ज्ञान क्रांति) के क्रम में कृषि क्रांति से औद्योगिक क्रांति के बीच का दौर मानव और प्रकृति के अंतर संबंधों के लिहाज से स्वर्ण युग माना जाता है। जिसमें मानव जाति न सिर्फ पृथ्वी पर व सुदूर कोनों तक फैली बल्कि कठिनतम जलवायु परिस्थिति में अपने आपको ढ़ाला और ज्ञान और तकनीक के सम्यक उपयोग से छोटी छोटी इकाई के रूप में प्रकृति सम्मत सभ्यता के विकास का प्रतिमान गढ़ा। मानव जाति ने प्राकृतिक विविधता को बिना प्रभावित किए अपने कार्यकलाप को प्रकृति के घटकों के अंतर संबंधों के गूढ़ अंतरजाल में अपने आपको समाहित किया, जिसकी झलक हम अलग-अलग बसावटों में देख सकते हैं। फिर अचानक से केवल तकनीक आधारित उत्पादन और उपभोग का दौर आया। जिसके मूल में बाजारवाद और मुनाफा आधारित आर्थिक विकास था। इस दौर के लोगों को यह भ्रम था कि प्राकृतिक संसाधनों के अनंत भंडार हैं, लेकिन पिछली सदी आते-आते यह भ्रम भी टूटने लगा। लेकिन जब तक हम चेत पाते मुनाफा आधारित आर्थिक विकास इस कदर बढ़ गया था कि उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के घोड़े पर सवार होकर जलवायु परिस्थितिकी की तबाही हर दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई है। सच्चाई यह है कि हमारी जीवन शैली की जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारी एक पृथ्वी अब बहुत छोटी लगती है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया की आबादी को चैन से जीने के लिए फिलवक्त 1.8 पृथ्वी की दरकार है, पर दुर्भाग्य कि हमारे पास सिर्फ एक पृथ्वी है।
आज पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है, जिसे कहीं ज्यादा तो कहीं कम महसूस किया जा रहा है। भारत जलवायु परिवर्तन जोखिम सूचकांक में शीर्ष 20 देशों में शामिल है। पिछले 40 सालों में भारत की धरती का तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जिसके कारण बाढ़, सूखे और तूफान जैसी कुदरती आपदाएं भी बढ़ी है। चूंकि अपने देश में ज्यादातर किसानों के पास छोटा रकबा है, इसलिए इन आपदाओं के कारण उनकी आमदनी भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बढ़ते तापमान का संकट भारत पर गहरा रहा है इसलिए गंभीर समीक्षा की जानी चाहिए, ताकि हमारे किसान जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न कठिनाइयों का सामना करते हुए फसलों का समुचित उत्पादन कर सकें। यूं तो जलवायु परिवर्तन का खतरा पूरी मानव सभ्यता के लिए है लेकिन तापमान में थोड़ी और भी वृद्धि होती है तो भारत के गरीब की थाली से गेहूं की रोटी गायब हो सकती है।
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