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प्रकृति केन्द्रित विकास की अवधारणा

हम मिल-जुलकर अपने भूगोल, अपने वनों, अपने खेतों, अपनी मिट्टी, अपनी नदियां, अपना पानी, अपने जंगल, अपने पहाड़, गोवंष, अपने खनिजों आदि को पुनः संजोने का प्रयास करें। परिश्रम पूर्वक इन समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं को अपने सहज-स्वस्थ रूप में ले आयें तो हमारे देखते-देखते ही यह भूमि अपनी सहज उदारता से हमें पुनः समृद्ध करने लगेगी। - प्रो. विजय वशिष्ठ

 

‘‘नई जमीन नया आसमाँ बनाते हैं, हम अपने वास्ते अपना जहाँ बनाते हैं। अर्थ (पृथ्वी) का कुछ करो नहीं तो अनर्थ हो जायेगा।’’ आज जब भी विकास की चर्चा प्रारम्भ होती है तब हमारा ध्यान बड़ेभवन, बड़े कारखाने, चमकदार सड़कें, उस पर दौड़ती बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े माल्स, होटल, विष्वविद्यालय आदि की ओर जाता है और हम बड़े खुष होकर कहते हैं कि हम विकास कर रहे हैं, हमारा देष विकास कर रहा है। हमारी जीडीपी बढ़ रही है, विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़ रहा है, हमारा शेयर मार्केट उछाल पर है, हमारा उपभोग का स्तर बढ़ रहा है। यह सब देखकर हम खुष तो होते हैं लेकिन इसके दूसरे पक्ष पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। यह विकास किस लागत पर हो रहा है। इसको पाने के लिए हमें क्या खोना पड़ रहा है। विकास के नाम पर हम कितना विनाष करते जा रहे हैं। प्रकृति का हम कितना शोषण कर रहे हैं। हम यह भूल गये कि मनुष्य प्रकृति का अंष है, प्रकृति का विजेता नहीं। जैसे इस सृष्टि में मनुष्य का स्थान और अधिकार है वैसे ही प्रकृति के अन्य घटक नदी, पेड़-पौधे, पर्वत, पषु-पक्षी, कीट-पतंग सभी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए भगवान ने मनुष्य को बुद्धि और विवेक दिया है ना कि उन सबके शोषण और विनाष के लिए।

भारत में विकास का मतलब है - शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का संतुलित सुख। हम कैसा समाज चाहते हैं - क्या हम चाहते हैं कि हमारी पीढ़ी प्रकृति का विनाष कर अपना विकास करे तथा आगे आने वाली पीढ़ी की चिंता नहीं करें। हम दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर परिस्थितिकी केन्द्रित होना चाहिए। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर एवं जन का परस्पर शोषण नहीं, पोषण होता रहे। व्यक्ति, समाज, देष, विष्व तथा प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।

आधुनिक विकास के कारण जलवायु परिवर्तन के संकट ने मानवता के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेषियर पिघल रहे हैं, समुद्र का जल स्तर बढ़ता जा रहा है, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऋतुऐं भी अपना अस्तित्व खोती जा रही है। बसंत का मौसम मानो गायब हो गया है। सर्दियों से सीधे अचानक गर्मी का मौसम आ गया। बे-मौसम होने वाली वर्षा से फसलें नष्ट हो रही हैं। चेरापूंजी सूख रहा है। लद्धाख के ग्लेषियर पिघलने से वहां की झील एवं तालाबों में क्षमता से अधिक पानी भर रहा है। हिमालय के कच्चे पहाड़ों में भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। उत्तराखण्ड एवं रामबन (जम्मू कष्मीर) इसके उदाहरण हैं। 

हम हमारे वनों को नष्ट करते जा रहे हैं। इससे हवा, पानी, मिट्टी सब दूषित हो रहा है। देषभर में अनावष्यक भूमि जल का दोहन हो रहा है। हमारे प्राकृतिक जल स्रोत जैसे नदियां, तालाब, बांध आदि के जल भराव एवं जल प्रवाह क्षेत्र अतिक्रमण की भेंट चढ़ रहे हैं। 

विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार विष्व के सबसे ज्यादा 20 प्रदूषित शहरों में भारत के 15 शहर शामिल हैं। भारत में लगभग 6.5 लाख लोग प्रतिवर्ष वायु प्रदूषण के कारण मर रहे हैं। हमारे नदी-नाले सब प्रदूषित हो चुके हैं। प्रकृति के पांचों तत्व, पृथ्वी, आकाष, जल, नभ एवं अग्नि सभी प्रदूषित हो चके हैं। आधुनिक विकास की गति यही रही तो प्रकृति का विनाष निष्चित है। कुछ लोगों की सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए हम आम-जन जीवन को खतरे में नहीं डाल सकते। आज हमें भारतीय संस्कृति के आधार पर विकास का विचार करना होगा। हमारा देष समृद्धि तो चाहता है लेकिन प्रकृति का विनाष करना नहीं। हम प्रकृति के उपासक हैं प्रकृति की पूजा करते हैं। हम पृथ्वी को मां कहते हैं। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति को माता माना है। इसलिए कहा ‘‘माता भूमि अहं पुत्रो पृथ्वीयां’’।

ईषावास्य उपनिषद के अनुसार वन, पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण तथा सृष्टि के हर छोटे से छोटे जीव का आविर्भाव ईष्वर द्वारा किया गया है। इस अंतसम्बंध को विज्ञान बहुत समय बाद (1960 के दषक में) समझ पाया। लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों को इस बात का ज्ञान हजार वर्ष पहले ही हो गया था। उन्होंने मनुष्य द्वारा पवित्र वनों, पर्वतों, नदियों, धरती, जल की देवता के रूप में पूजा करवाई। क्योंकि एक दूसरे के सहारे के कारण ही सब अस्तित्व में है। 

प्रकृति आत्म संतुलित और आत्म निर्भर है, लेकिन इंसान के उस लालच से परेषान है, जिसे आधुनिक षिक्षा द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा  है। इसका कारण है - आधुनिक धर्म निरपेक्ष षिक्षा का पवित्रता की भावना से परे होना। इसलिए प्रकृति को कष्ट झोलना पड़ रहा है।

आधुनिक विकास की होड़ में हमने पर्यावरण को जहरीला बना दिया। हवा, पानी, मिट्टी सबको प्रदूषित कर दिया। प्रदूषण बढ़ाते जा रहे हैं एवं पर्यावरण संरक्षण की चर्चा भी कर रहे हैं। सृष्टि का पोषण हमारा कर्तव्य है। प्रकृति केन्द्रित विकास में हमें यह देखना होगा कि क्या विकास के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ रही है या घट रही है। आज तो ऐसा लग रहा है कि विकास के नाम पर हम भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट करते जा रहे हैं। आधुनिक कृषि पद्धति के कारण लाखों हेक्टर भूमि बंजर होती जा रही है। पहले एक क्विंटल रासायनिक खाद डालकर जो उत्पादन किया जाता था, उसके लिए अब 5 क्विंटल रासायनिक खाद डालनी पड़ रही है। इससे यह स्पष्ट है कि भूमि की उर्वरा शक्ति घट रही है जो हमें विनाष की ओर ले जा रही है। भूमि का जल स्तर घट रहा है।

हमारे देष में वर्षा केवल 2 महीने होती है, उसमें भी भारी वर्ष केवल 15 दिन होती है। हमारे पूर्वजों ने वर्षा जल को संचित करके अदेव मातृका कृषि को जन्म दिया था। आज हम इस विद्या को भूल चुके हैं और अंधानुकरण में भू-जल का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप देष में पेयजल का संकट उत्पन्न हो रहा है। आधुनिक विकास के नाम पर हम न केवल जल का दुरूपयोग कर रहे हैं बल्कि उपलब्ध जल को दूषित भी करते जा रहे हैं। हम जिन नदियों को मां मानकर पूजा करते हैं उन्हें ही प्रदूषित करते जा रहे हैं। गंगा, यमुना, गोदावरी, कृश्णा कावेरी, आदि पवित्र नदियां प्रदूषित होती जा रही हैं। औद्योगिक वेस्टेज हम नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं। गटर लाईन की गंदगी हम पवित्र नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं। 

विकास के नाम पर हम वनों का विनाष कर रहे हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए कम से कम एक तिहाई भू-भाग पर वन होने चाहिए। भारत में इस समय केवल 17 प्रतिषत भूमि पर वन हैं। भूमि पर यदि वन कम होते हैं तो प्राकृतिक असंतुलन उत्पन्न होता है। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है परिणाम स्वरूप जीव मात्र का जीवन प्रभावित होता है। पृथ्वी पर यदि जंगल का हिस्सा घटता है तो उसे विकास नहीं कह सकते। उत्पादन के दौर में प्रदूषण का फैलाव हो रहा है। धरती में उष्णता बढ़ रही है। वातावरण गर्म हो रहा है। ओजोन की परतों में छिद्र हो रहा है। भूमि का क्षरण हो रहा है - इससे मानव जीवन दूभर बन रहा है। विकास की लालसा में हम अपने संसाधनों का आपराधिक उपयोग कर रहे हैं। हम विकास को गतिरोध में बदल रहे हैं। विकास की इस पागल दौड़ में हमने प्रकृति की मर्यादा को समाप्त कर दिया। आधुनिक विकास का परिणाम असहनीय बनता जा रहा है। पर्यावरण में हम जहर घोल रहे हैं। मानवीय जीवन विनाष की ओर बढ़ रहा है। 

आज पषु-पक्षियों की अनेक प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। बंदरों, आवारा कुत्तों, नील गाय आदि की बढ़ती संख्या मनुष्य, कृषि और बागवानी के लिए समस्या बन गयी है। गायों की संख्या घट रही है। अच्छी नस्ल की गायें लुप्त होती जा रही हैं।

आधुनिक विकास जिससे हम देष की जीडीपी बढ़ा रहे हैं, प्रति व्यक्ति आय बढ़ा रहे हैं, इससे कुछ लोगों का रहन-सहन का स्तर तो बढ़ सकता है लेकिन जीवन स्तर नहीं बढ़ा सकते हैं। कुछ लोगों के धनवान होने से देष धनवान नहीं हो सकता। आधुनिक विकास की विचारधारा से आर्थिक विषमता, बेरोजगारी, गरीबी, मिलावटखोरी, भ्रष्टाचार आदि अनेक समस्यायें बढ़ रही हैं। आज औद्योगिकरण प्रगति का मापदण्ड बन जाने के कारण विष्व संघर्ष तथा युद्ध की ओर बढ़ता जा रहा है। अतिरिक्त उत्पादन की खपत अन्य देषों में करने की दौड़ से एक सीमा के बाद बाजार के लिए संघर्ष जन्म लेने लगता है जिसकी परिणिति युद्ध में होती है। हमें विकास के सिद्धान्त पर पुनर्विचार करना होगा। विकास भारतीय जीवन मूल्यों एवं संस्कृति के आधार पर करना होगा। जिसमें न्यूनतमता तो सभी को मिले लेकिन अधिकतम की भी कोई सीमा हो। हमें भोग की लालसा पर लगाम लगनी होगी। इसके लिए मन-मस्तिष्क को नियंत्रित करना होगा। इससे आंतरिक विकास होगा, उपभोग की गति कम होगी, संसाधनों के पुनर्जनन की गति तेज होगी। संसाधनों का संरक्षण होने से प्रकृति संतुलन का चक्र बिना रोक-टोक के घूमेगा। जैव विविधता बनी रहेगी, प्रदूषण नहीं होगा। अधिक उत्पादन - अधिक लोगों के द्वारा के सिद्धान्त से लोगों को रोजगार मिलेगा। उपयोग मर्यादित होने से सबकी न्यूनतम आवष्यकतायें पूरी होगी। लोगों के जीवन स्तर में सुधार होगा। 

संतोषपूर्ण जीवन का विचार आज जापान में व्यवहार में दिखायी दे रहा है। इससे खुषी का स्तर बढ़ रहा है। हमारे देष में हैप्पीनेस इन्डेक्स घट रहा है। लोग ज्यादा उपभोग करके भी संतुष्ट नहीं हैं। लोगों के चेहरों पर हैप्पीनेस नहीं है। लोग जीवन को बोझ मानने लग गये हैं। 

आज जापान में मिनिमलिज्म (न्यूनतमवाद) का सिद्धान्त लागू किया जा रहा है। यह विचार चल रहा है, थोड़ा है ज्यादा की जरूरत नहीं। जापान में लोग बड़ी गाड़ियां, बड़े घर, ज्यादा सामान को तिलांजलि दे रहे हैं। सीमित कपड़े, न्यूनतम सामान को पसंद कर रहे हैं दिखावटी साजो सामान को लोग नापसंद करने लगे हैं।

धीरे ही सही, लेकिन पनपते रहेंगे और जीयेंगे या सर्वनाष देखते देखते मरेंगे। इन दो विकल्पों में से यदि एक को चुनना पड़े तो मानव जात पहला ही विकल्प चुनेगी। लेकिन इसके पहले यह दृष्टि पैदा होनी चाहिए जो जापान में हुई है। 

अधिक ए.सी., अधिक फ्रिज, अधिक कारें, अधिक टीवी, अधिक माईक्रावेव, अधिक मकान, अधिक वेतन, अधिक व्यवसाय, अधिक जीडीपी, अधिक व्यापार, अधिक आयात-निर्यात, अधिक विदेषी मुद्रा भण्डार सब कुछ अधिक..। फिर क्यों न होगा अधिक असंतोष, अधिक दुराचार, अधिक विषाद, अधिक कार्बन उत्सर्जन, अधिक मिलावट, अधिक भ्रष्टाचार... कैसे बच पायेगी यह पृथ्वी। 

यदि हम गंभीरता से इस पृथ्वी को बचाना चाहते हैं तो हमें भारतीय जीवन मूल्यों को अपनाना होगा। जिनको आज जापान अपना रहा है। जापान अधिक का आनंद ले चुका है - इसके दुष्परिणाम उसने भुगते हैं। आज वह भारतीय सिद्धान्त - संतोष (संतोषी सदा सुखी) पर आ रहा है। और हम पष्चिम का अंधा-धुंध अनुसरण कर रहे हैं। 

हमें इसकी शुरूआत व्यक्तिगत जीवन से करनी होगी। छोटी-छोटी चीजों को लेकर हमें जागरूक होना होगा। हमारे घरों, कार्यालयों में बेमतलब लाइट, पंखे, ए.सी. चलते रहते हैं। रसोई में लगे वाटर प्यूरीफायर से लेकर टायलेट्स में जिस तरह से पानी बहाया जाता है। हम घर में उसे नहीं रोकेंगे लेकिन सार्वजनिक मंचों पर पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण की बड़ी-बड़ी बातें करेंगे।

हमारे देष ने विष्व को जीवन जीने का दृष्टिकोण दिया है। संतोष को परम सुख का कारक बताया है (संतोषी सदा सुखी)। धरती को माता कहा है, जल और वन की पूजा की है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति को अष्टकोणी बताया है। पांच तत्वों (भूमि, जल, वायु, आकाष एवं अग्नि) के अलावा मन, बुद्धि एवं अहंकार की भी गणना की गयी है। ये पांचों तत्व मिलकर मन और बुद्धि को निर्मल रखें तथा अहंकार को संयमित रखें। स्कंध पुराण के अनुसार जिस घर में तुलसी की पूजा होती है उसमें यमदूत प्रवेष नहीं करते। स्कंध पुराण के अनुसार किसी भी प्रकार के पेड़ को काटना निन्दनीय है। हमारी संस्कृति का मूल मंत्र है - अहिंसा परमो धर्मः। हमारी संस्कृति ही हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य पूर्ण जीवन जीना सिखाती है।

आओ हम पुनः अपने विकास मार्ग पर लौट चलें जहां सुख का मार्ग ज्यादा उपभोग नहीं बल्कि ज्यादा खुषी हो। देष में लोगों का उपभोग का स्तर तो बढ़े, लेकिन जीवन स्तर भी बढ़े। लोग प्रेम भाव से रहें। हैप्पीनेस बढ़े, लोग खुष हों। 

हम मिल-जुलकर अपने भूगोल, अपने वनों, अपने खेतों, अपनी मिट्टी, अपनी नदियां, अपना पानी, अपने जंगल, अपने पहाड़, गोवंष, अपने खनिजों आदि को पुनः संजोने का प्रयास करें। परिश्रम पूर्वक इन समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं को अपने सहज-स्वस्थ रूप में ले आयें तो हमारे देखते-देखते ही यह भूमि अपनी सहज उदारता से हमें पुनः समृद्ध करने लगेगी। हमारा देष सुखी होगा।

हम सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चिद् दुःख भाग भवेत्।। की कल्पना को साकार रूप दे सकेंगे। 
हमारी भगवान से प्रार्थना है - आप अपनी सुधामयी सर्व समर्थ, पतित पावनी, अर्हतु की कृपा से मानव मात्र को विवेक का आदर तथा बल का सदुपयोग करने की सामर्थ्य प्रदान करें। हे करूणा सागर! अपनी अपार करूणा से शीघ्र ही राग-द्वेष का नाष करें। सभी का जीवन सेवा, त्याग, प्रेम से परिपूर्ण हो।


लेखक सेवानिवृत्त प्राचार्य, कॉलेज षिक्षा, राजस्थान

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