कुदरत से खिलवाड़ के फलितार्थ
क्या यह सही समय नहीं है कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए वैश्विक दबाव बढ़ाने के साथ-साथ हम परिवेश और प्रकृति के प्रति अपने व्यवहार की समीक्षा करें और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के स्थान पर उन विकल्पों पर भी विचार करें जो समूची मानवता को लोभ, स्वार्थ और हम बड़े के दम्भ से दूर एक खुशहाल जीवन का आश्वासन दे। - शिवनंदन लाल
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी) की ओर से ताजा-ताजा आई एमिशन गैप रिपोर्ट दुनिया के सभी देशों के लिए चेतावनी है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि सभी देश पेरिस समझौते के वादों को पूरा नहीं करते हैं तो इस सदी के अंत तक दुनिया 2.5 डिग्री से बढ़कर 2.9 डिग्री तक गर्म हो जाएगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया का तापमान नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस साल अक्टूबर तक 86 दिन ऐसे रहे, जब दुनिया का तापमान सामान्य से 1.5 डिग्री अधिक था। इसी साल का सितंबर महीना अब तक का सबसे गर्म महीना घोषित किया गया। सितंबर में तापमान सामान्य से 1.8 डिग्री अधिक रहा था। वर्ष 2021 से जुलाई 2023 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 1.3 प्रतिशत का इजाफा हुआ जो 59.4 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर है।
जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया भर में हलचल है। मानों प्रकृति अपने साथ किए गए दुर्व्यवहार से अब अकुलाने लगी है। जिन इलाकों में सुखे का लंबा इतिहास रहा है, उन इलाकों में अब बाढ़ के मंजर दिखाई देने लगे हैं। जिन इलाकों में कभी भारी बारिश हुआ करती थी, वे इलाके बारिश के लिए तरसते नजर आ रहे हैं। स्थिति का अनुमान जैसलमेर शहर से लगाया जा सकता है। जैसलमेर राजस्थान का वह इलाका है जहां पानी की उपलब्धता सबसे कम हुआ करती थी। इस इलाके में बारिश का इतिहास भी काफी सीमित और नपा तुला ही रहा है। लेकिन दो साल पहले जैसलमेर में भारी बारिश के बाद आई अचानक बाढ़ का मंजर देखकर लोगों के कान खड़े हो गए थे। बाढ़ के उफान में बड़ी-बड़ी गाड़ियां बहती नजर आई थी। जैसलमेर में यह सब तब हो रहा था जब बरसात के लिए भारत में मशहूर चेरापूंजी का इलाका बारिश के लिए बादलों की ओर टकटकी लगाए था। जब भारत की जमीन पर इस तरह की प्राकृतिक अनहोनी हो रही थी, ठीक उसी समय सदैव 20 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाले रूस के याकुतश्क शहर का तापमान अचानक बढ़कर 36 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। कैलिफोर्निया की डेथ वैली में 54.4 डिग्री तापमान दर्ज किया गया था, जबकि उससे बहुत ठंडा समझे जाने वाले शहर लॉस वेगास का पारा 48 डिग्री के पार चला गया था। इसी समयावधि में जर्मनी में हुई लगातार बारिश ने पिछली सदी का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। इस तरह की उलट-पुलट की घटनाएं स्पष्ट संकेत दे रही है कि कुदरत के मिजाज ठीक नहीं है।
सारी दुनिया में सामान्य तापमान बढ़ रहा है। वैज्ञानिक भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान का बढ़ना कहा जाता है। इसके खतरों से वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् लगातार आगाह कर रहे हैं, लेकिन कथित विकास की व्यग्रता में दुनिया उन तथ्यों को भी नजरअंदाज कर रही है जो समूची मानव सभ्यता के लिए किसी बड़े खतरे की प्रस्तावना की तरह है। बार-बार आने वाले समुद्री तूफान, चक्रवात, हिमनदों का फटना, सतत भूस्खलन, कहीं भीषण गर्मी तो कहीं भीषण सर्दी, लगातार बारिश, लगातार भूकंप और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जंगलों का धधकना इस बात की ओर इशारा करता है कि जलवायु के आंगन में गहरी उथल-पुथल है, और इसे मनुष्य यह सोचकर अनदेखा नहीं कर सकता कि किसी और के आंगन में आग से हमें क्या लेना देना? जब दुनिया के किसी भी हिस्से में बड़ी पर्यावरणीय हलचल होती है तो वह समूचे मानव समुदाय के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए, क्योंकि यदि जंगल में किसी एक पेड़ में लगी आग को बाकी पेड़ यह सोचकर अनदेखा करेंगे कि उन्हें इससे क्या, तो सारा जंगल आग के आतप और आतंक से बहुत देर तक नहीं बच सकेगा।
विकास के नाम पर हमने जिस जीवन शैली को अपनाया है उसके चलते वातावरण में लगातार विषैली गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। पराबैंगनी किरणों को हम तक पहुंचने से रोकने वाली ओजोन परत कमजोर पड़ने की चिंता जानकारों को लगातार परेशान कर रही है। दूसरी तरफ पर्यावरण में एअरोसाल की बढ़ती हुई मात्रा पृथ्वी के जल चक्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। एअरोसाल, गैस के साथ ठोस कणों या बूंदों के मिश्रित होने की स्थिति को कहते हैं और इसकी अत्यधिक मात्रा के कारण मानसून का व्यवहार भी अनियमित हो गया है।
मानसून का चाल-ढाल भी बदल गया है। इस साल अक्टूबर महीने में अचानक मानसून की सक्रियता बढ़ गई। 10 से 15 अक्टूबर के बीच देश के कई हिस्सों में भारी बारिश हुई। विक्रमी संवत के अनुसार यह आश्विन माह का शुक्ल पक्ष होता है। मानसून की असमय सक्रियता से अचानक सर्दी के आने की आशंका पैदा हुई। लोकमान्यताएं भी कहती हैं कि जब भी मानसून अनियमित व्यवहार करता है तो जीवन को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना ही होता है। इस साल तो मौसम में इतने उलट फेर हुए की तमाम मौसम वैज्ञानिकों ने इस साल के मौसम को रिकॉर्ड तोड़ने वाला मौसम तक कह दिया। इससे पहले नासा की एक रिपोर्ट में वर्ष 2020 को सबसे गर्म साल बताया गया था। इससे भी पहले अप्रैल 2017 में क्लाइमेट सेंटर नाम के अंतरराष्ट्रीय संगठन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पिछले 628 महीना में से कोई भी महीना उतना ठंडा नहीं रहा जितना पूर्ववर्ती वर्ष में वह महीना रहा करता था। यानी पृथ्वी के आसपास का तापमान लगातार बढ़ता रहा। अब यूएनईपी ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया के देश पेरिस समझौते पर काम नहीं करते है तो सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 2.9 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो सकता है।
इसी साल जी-20 की बैठक के दौरान बढ़ते वैश्विक तापमान को लेकर जारी किए गए परिपत्र में कहा गया कि तापमान में वृद्धि के कारण पहले से ही मानव और प्राकृतिक प्रणाली में बड़ा बदलाव हो रहा है। इस बदलाव को हिमनदों की मौजूदा स्थिति से भी आंका जा सकता है। पिछले दिनों एक अध्ययन में यह बात सामने आई की सन 2000 के बाद हर साल 280 अरब टन हिमनद गायब हुए हैं। हिमनदों का गायब होना वस्तुतः उनका पिघलने ही है। दुनिया भर में समुद्रों में पानी की जो बढ़ती मात्रा पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बनी हुई है, उसमें 21 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पिघलते हुए हिमनदों का ही है। हिमनदों का पिघलना पहाड़ी आबादी के लिए परेशानी का भी सबब है। हिमनदों के पिघलने से पहाड़ी क्षेत्रों में झील बन जाती है और जब वह झील फटती है तो इलाके में तबाही मचा देती है। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला माउंट एवरेस्ट लगातार गर्म हो रही है और गर्मी के कारण उसके आसपास के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं।
इसे हम ग्रीन हाउस प्रभाव कहें या वैश्विक तापमान का बढ़ना कहें या कोई और नाम दे, लेकिन सच तो यही है कि प्रकृति का आधिकारिक दोहन करने की हमारी नीतियों और मानसिकता ने समूची मानव जाति को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां हम सबको प्रकृति और मनुष्य की आत्मीयता के समीकरण को फिर से साधना ही होगा। भारतीय संस्कृति में शायद इसीलिए कभी देवताओं के रूप में तो कभी परंपराओं के तौर पर प्राकृतिक शक्तियों की सामर्थ्य को नमन किया जाता रहा है।
दुनिया के देशों ने पेरिस समझौते के तहत क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए वैश्विक गैस का कम से कम उत्सर्जन करने का वादा किया है। छोटे देशों पर इसके लिए दबाव भी बढ़ाया जा रहा है और कई एक विकासशील देश इस दिशा में ठोस कार्य नीति के साथ आगे भी आ रहे हैं, लेकिन बड़े और विकसित देश लगातार अंगूठा दिखा रहे हैं।
ऐसे में, क्या यह सही समय नहीं है कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए वैश्विक दबाव बढ़ाने के साथ-साथ हम परिवेश और प्रकृति के प्रति अपने व्यवहार की समीक्षा करें और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के स्थान पर उन विकल्पों पर भी विचार करें जो समूची मानवता को लोभ, स्वार्थ और हम बड़े के दम्भ से दूर एक खुशहाल जीवन का आश्वासन दे।
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