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वर्तमान वैश्विक, आर्थिक परिदृश्य एवं भारतीय चिंतन

हमारे विकास का लक्ष्य उपभोक्तावादी संस्कृति नकारते हुए एक ऐसा वैकल्पिक आर्थिक दर्शन दुनिया के सामने रखना है, जिससे प्रकृति का शोषण न हो, पर्यावरण संतुलित रहे। - डॉ. धनपत राम अग्रवाल

 

वर्तमान युग विज्ञान और तकनीक पर आधारित अर्थव्यवस्था को एक अनिश्चितता की ओर ले जा रहा है, जहाँ बाज़ारवादी प्रतिस्पर्धा और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्यावरण दूषित एवं विषाक्त होता जा रहा है। पूंजीवाद और मार्क्सवाद के शिकंजों ने एक तरफ़ आर्थिक विषमता और दूसरी ओर समाज में घोर असंतोष तथा असहिष्णुता का वातावरण पैदा किया है। साधारण जनता ग़रीबी, मंहगाई, बेरोजगारी तथा कर्ज के बोझ से परेशान है। समाज में नैतिक मूल्यों, शिक्षा तथा सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट देखी जा रही है। कृषि उत्पादों में जिस प्रकार रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं का प्रयोग बढ़ रहा है, उससे भूमि की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है और इसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा और मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है, जिससे नई किस्म की प्राणघातक बीमारियों का जन्म हो रहा है। राष्ट्रों के बीच सामाजिक-राजनैतिक तनाव बढ़ते रहने से तीसरे विश्व युद्ध के ख़तरों के बादल मंडरा रहे हैं और एक दूसरे के बीच अस्त्र-शस्त्रों की होड़ लगी हुई है कि कौन कितना सामरिक दृष्टि से ज़्यादा शक्तिशाली बन सकता है?

उपरोक्त सभी विपरीत समस्याओं के समाधान के लिए विवेकपूर्ण चिंतन के साथ एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण करना होगा, जहाँ गरीबी और बेरोजगारी मुक्त स्वावलम्बी समाज हो। जहाँ आर्थिक विषमता नगण्य हो और प्राकृतिक संसाधनों का संयमित उपयोग हो, यानि दोहन और पोषण दोनों होगा पर शोषण नहीं होगा। हमें नैतिक मूल्यों, धर्म तथा संस्कृति के आधार पर आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था बनानी होगी और आर्थिक भ्रष्टाचार की जड़ मूल समाप्त करना होगा।

आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व विश्व भर में प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर कृषि तथा पशु पालन जीविका का आधार था और ग्राम्य जीवन एक स्वावलंबी आधार पर सुखी जीवन था। उन्नीसवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति के बाद उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, मार्क्सवाद आदि भौतिकवादी दृष्टिकोण की मान्यता बढ़ने लगी और समाज धनी और ग़रीब की आर्थिक विषमता में बंटने लगा। मानवगत और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण बढ़ने लगा। बीसवीं शताब्दी ने दो-दो विश्वयुद्ध देखें और दुनिया दो खेमों में बंट गई। एक पर पूंजीवाद और बाजारवाद हावी था और दूसरे पर साम्यवाद या समाजवाद का दबाव बढ़ा। नये-नये प्रतिष्ठान बनं,े जिनमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और विश्व बैंक प्रमुख हैं। इन संस्थानों पर भी बाज़ारवादी ताकतों का प्रभुत्व बना रहा और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जगह अमेरिकी बाज़ारवादी कूटनीतियों ने जगह बना ली।

19वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति के दरम्यान नये-नये आविष्कार होते रहे और इसका पूरा लाभ पाश्चात्य देशों को मिला। इसका सबसे बड़ा कारण था कि भारत तथा अन्य उपनिवेश द्वारा नियंत्रित भू-भागों के प्राकृतिक तथा पूंजीगत संसाधनों की लूट से इकट्ठा किया गया धन उनके पास था। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका और यूरोप धनी राष्ट्र बन गये, जिन्हें बाद में जी-7 और ओईसीडी ग्रुप से जाना जाने लगा। एशिया के कुछ छोटे-छोटे देश जापान की औद्योगिक नीति का पालन करते हुए अपनी मेहनत और राष्ट्रवादी नीतियों के आधार पर अपने घरेलू उद्योग तथा निर्यात के आधार पर अच्छी तरक्की कर पाये। इनमें से मुख्यरूप से मलेशिया, सिंगापुर, फ़िलीपीन, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि हैं, किंतु इन्हें भी 1997 के आसपास आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा तथा जापान भी लंबे समय तक आर्थिक मंदी को झेलता रहा और आज तक पूरी तरह उबर नहीं पाया है। इन दक्षिण पूर्वी एशियायी देशों की आर्थिक नीतियों पर कहीं न कहीं पाश्चात्य वित्तीय संस्थाओं की एकतरफा और खुली आज़ादी की अधिकता कारण बनी थी। आज भारत में भी इस तरह की वित्तीय संस्थाएं काफी तेजी से काम कर रही हैं, जिससे हमारे पूंजी बाज़ार में तथा विदेशी मुद्रा के लेन देन से कुछ अनिश्चितता बढ़ने लगती है।

राजनैतिक उपनिवेशवाद के द्वितीय महायुद्ध के खत्म हो जाने के बाद आर्थिक उपनिवेशवाद का जन्म हुआ जिसके द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी डालर की कूटनीतिक चाल द्वारा दुनिया के अर्थ तंत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। आईएमएफ को हथकंडा बनाकर गोल्ड स्टैण्डर्ड की जगह एक झूठे आश्वासन के आधार पर कि वह डालर के बदले एक निर्धारित सोने की मात्रा देगा और उसने लिखित रूप में 35 डालर प्रति औंस सोने की क़ीमत निर्धारित की, अर्थात् जो भी देश जब कभी चाहे, अमरीकी फेड रिज़र्व से इस क़ीमत पर डालर के बदले सोना ले सकता है। वर्ष 1973-74 में कच्चे तेल के दाम एकाएक चार गुना बढ़े। इजिप्ट और इजरायल युद्ध के बाद जैसे ही अमेरिका ने इजरायली मदद की घोषणा की, अरब देशों ने कच्चे तेल की आपूर्ति पर रोक लगा दी और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल का दाम जनवरी 1974 में 2.90 अमरीकी डालर से बढ़कर 11.65 अमरीकी डालर प्रति बैरल हो गया। इसी बीच राष्ट्रपति निक्सन ने यह घोषणा कर दी कि अमेरिका 35 डालर के बदले एक औंस सोना देने के अपने वायदे को एकतरफ़ा ख़त्म करता है। इससे दुनिया के सभी देश नाराज तो हुए, किंतु किसी के पास अमेरिकन डालर को चुनौती देने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने सऊदी अरब से पेट्रो डालर की एक सन्धि पर 8 जून 1974 पर हस्ताक्षर किये। यह एक बहुत गहरी कूटनीतिक चाल थी, जिसके आधार पर अमेरिका ने अपने 1944 में डालर के बदले सोना देने के वचन से इनकार कर देने के बावजूद डालर दुनिया की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का खिताब अपने हाथ में आज भी रखा हुआ है, जबकि 9 जून 2024 को पेट्रो डालर समझौता रद्द हो गया है। ऐसी परिस्थिति में चीन, भारत तथा अन्य विकासशील देश 1944 के ब्रिटन वुडसिस्टम से बाहर निकल कर एक नई अर्थव्यवस्था और एक वैकल्पिक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के बारे में विचार कर रहे हैं। ब्रिक्स देशों के बीच हाल ही में अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में जो बैठक हुई है, उसमें यह तय किया गया है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार तथा विनियोग के मापदंडों को नई दिशा देनी होगी तथा डालर के वर्चस्व को तथा अमेरिका की मनमानी को नियंत्रण में करने के लिये विश्व बैंक तथा आईएमएफ के संचालन को ज़्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाना होगा। 

वर्तमान बाज़ारवादी पूंजीवाद के दोषों की वजह से सारी दुनिया में किसी न किसी रूप से आर्थिक संकट के बादल मंडराते रहते हैं। 1973-74 के पेट्रो डालर समझौते से वित्तीय संस्थाओं के पास डालर की इतनी आपूर्ति हो गई कि उन्होंने लैटिन अमेरिकन देशों को प्रलोभन देकर बड़ी मात्रा में ऋण दिया जिसको वे वापस नहीं कर पाये और 1980 के दशक में भयंकर आर्थिक संकट में फँस गये। अमेरिकी सरकार ने आईएमएफ से मिलकर उनकी आर्थिक संप्रभुता की अस्मिता की अवहेलना करते हुए नई-नई आर्थिक शर्तों पर अलग-अलग योजनाओं को लागू करवाया। इनमें से बेकर प्लान, ब्रैडी प्लान और फिर वाशिंगटन कंसेंसस आदि के द्वारा 1982 से ऋण देय संकट को दूर करने का उपाय बताया। इस प्रकार आर्थिक सुधार के नाम से भारत में भी 1990-91 में भूमण्डलीकरण और वैश्विकरण के नाम पर विदेशों से लिये गये ऋण और उससे उपजे व्यापार घाटे के संकट से उबरने का एकमात्र उपाय बताया गया। ज़ल्दबाजी में लिये गये बहुत से निर्णय आज भी हमारे कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों के लिये नासूर बने हुए हैं और पिछले लगभग 35 वर्षों के आर्थिक सुधारों के नाम पर किये गये नीति निर्णय हमारी अर्थव्यवस्था में विदेशी वस्तुओं के आयात और विदेशी तकनीक तथा विदेशी पूंजी के दबाव से हमारी आर्थिक संप्रभुता पर दुष्प्रभाव बनाये हुए हैं।

भारत को स्वाधीन हुए 78 वर्ष पूरे हो गये हैं। आज हम विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश हैं। हमारा लक्ष्य है कि आगामी 2047 तक एक समृद्धशाली और वैभवशाली राष्ट्र बने जो पूर्ण रूप से स्वावलम्बी हो और जो ग़रीबी तथा बेरोजगारी से मुक्त हो। जब हम स्वाधीनता के 100 वर्ष पूरे कर लें, उस समय हम दुनिया के एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जाने जायें तथा हमारे पुराने खोये हुए गौरव को प्राप्त कर विश्व गुरु कहलायें। ज्ञान और विज्ञान, साहित्य, शिक्षा और कला के क्षेत्र में हमारी ख्याति दुनिया भर में अग्रणी स्थान पर हो।

विकसित भारत और आत्मनिर्भर भारत बनने का जो लक्ष्य है, उसके लिये दो बातें ध्यान में लानी होगी। प्रथम, हमारे पास उपलब्ध साधनों का आंकलन और दूसरा विकास की अवधारणा और स्व आधारित वैचारिक अधिष्ठान। हमारे आर्थिक संसाधन तीन प्रकार के हैं- प्राकृतिक, पूंजीगत और मानवगत। आज के वैज्ञानिक और ज्ञान आधारित नवाचार तथा तकनीकी युग में मानव संसाधन सबसे ज़्यादा मूल्यवान और महत्वपूर्ण है। जितने भी नये आविष्कार हैं वे सूचना प्रौद्योगिकी तथा संचार क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। इसके साथ ही हरित तकनीक और हरित अर्थव्यवस्था में ऊर्जा सृजन के सौर तथा अन्य स्रोतों से हरित ऊर्जा संबंधी नवाचारों को बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि हम पूर्ण ऊर्जा सुरक्षा की स्थिति को प्राप्त कर सकें तथा पेरिस समझौते में किये गये वायदे के अनुरूप 2030 तक 50 प्रतिशत बिजली का उत्पादन हरित ऊर्जा से कर सकें। इससे हमारा व्यापार घाटा को कम होगा, विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और हम ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो सकेंगे।

हमें अपने अनुसंधान केंद्रों में हमारी युवा पीढ़ी को उचित अवसर तथा आधुनिक बुनियादी ढांचे को मज़बूत करते हुए अपनी बौद्धिक क्षमता का पूर्ण रूप से उपयोग करते हुए अपनी मेधा और प्रज्ञा के आधार पर नई टेक्नोलॉजी द्वारा स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता और प्रतियोगात्मकता को विश्व स्तर पर अपने कला कौशल द्वारा भारत को बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) द्वारा हमारे वैज्ञानिक अन्वेषणों की रक्षा करते हुए आगे बढना है। शिक्षा संस्थानों में राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार नीति के अनुसार नई सोच और नये अन्वेषणों के लिये अटल नवाचार मिशन के तहत इनक्यूबेशन सेंटर की स्थापना करके नये उत्पादों का निर्माण बढ़ा सकते हैं ताकि स्वदेशी तकनीक का विकास हो और आयात पर हमारी निर्भरता घटे। इससे हमारे रुपये की क्रय क्षमता बढ़ेगी जिससे रुपया डालर की तुलना में और मज़बूत हो। ज्ञात हो कि लगातार बड़े पैमाने पर व्यापार घाटे की वजह से रुपया डालर की तुलना में कमजोर होता जा रहा है। अभी हाल ही में विदेशी निवेशकों के पूंजी बाज़ार से शेयरों की बिक्री करके डालर विदेशों में ले जाने से रुपये में बड़ी भारी गिरावट जारी है और अभी 87 रुपये के नज़दीक तक प्रति डालर का भाव चल रहा है। ट्रम्प 2.0 में जिस तरह की नीतियाँ अमेरिका अपना रहा है उससे लगता है भारत से आयातित वस्तुओं पर ड्यूटी बढ़ेगी जो भारत के निर्यात को आघात पहुँचाएगी। रुपये के कमजोर होने से भारत में आयातित तेल और महंगा होगा तथा इसका नकारात्मक असर हमारी महँगाई पर पड सकता है। भारत के लिये आवश्यक है कि स्वदेशी अर्थ नीति को दृढ़ता से अपनाये। स्थानीय वस्तुओं का उपयोग बढ़ाना तथा लघु उद्योगों को हर प्रकार से प्रोत्साहित करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये और इसके लिये अनुसंधान का खर्च बढ़ना चाहिये ताकि हमारा ‘ब्रेन ड्रेन’ रुके और हम स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ायें। हमारे प्रवासी भारतीयों को देश में विनियोग करने के लिये किसी विशेष नीति द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जो अपने आधुनिक विज्ञान, तकनीक तथा पूंजी लेकर भारत आयें। अभी तक वे ऋण के रूप में ही भारत में विदेशी मुद्रा भेजते हैं किंतु अगर वे भारत में उद्यमी के रूप में विनियोग करेंगे तो हमारे देश में स्वदेशी पूंजी और स्वदेशी तकनीक का विकास संभव होगा और विदेशी पूंजी के दबाव और प्रभाव से हम बच पाएंगे।

आज अमेरिका, चीन, जापान, यूरोप, इजरायल ये सभी देश अपनी जीडीपी का 3-4 प्रतिशत अनुसंधान तथा वैज्ञानिक तकनीक के विकास पर खर्च करते हैं। भारत में भी तेजी से विकास तो हो रहा है किंतु पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बावजूद प्रति व्यक्ति आय में अभी हम 132वें स्थान पर हैं। साथ ही 3.8 ट्रिलियन अमरीकी डालर की अर्थव्यवस्था वाले होकर भी हम दुनिया की कुल जीडीपी जो लगभग 105 ट्रिलियन अमरीकी डालर है उसका सिर्फ़ 3.5 प्रतिशत हिस्सा ही हैं, जहाँ अमेरिका 28.5 ट्रिलियन अमरीकी डालर और चीन 19.5 ट्रिलियन अमरीकी डालर की जीडीपी के साथ 25 प्रतिशत और 18 प्रतिशत दुनिया की जीडीपी का हिस्सा हैं। अमेरिका की अर्थव्यवस्था में लगभग एक तिहाई से ज़्यादा की कमाई सर्फ़ पेटेंट और ट्रेड मार्क, कापी राइट से आती है, जो भारत की कुल जीडीपी से दोगुनी है।

हमारे विकास का लक्ष्य उपभोक्तावादी संस्कृति नकारते हुए एक ऐसा वैकल्पिक आर्थिक दर्शन दुनिया के सामने रखना है जिससे प्रकृति का शोषण न हो, पर्यावरण संतुलित रहे। उत्पादन बढ़े और वितरण प्रणाली संतुलित हो ताकि समाज में समरसता बढ़े, वैषम्य घटे और व्यक्ति उद्यमी बने, स्वावलंबी बने। हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन का आदर्श सामने रख कर चलें। अभ्युदय हमारा लक्ष्य होना चाहिये। राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी के दिखाये मार्ग पर स्वदेशी को अपनायें तथा मज़दूरों और किसानों को उनकी उपज और श्रम का उचित पारिश्रमिक की व्यवस्था करते हुए अर्थनीति के तीसरे विकल्प के द्वारा एक सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर हो।      

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