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प्रजातंत्र और जन भागीदारी

भारत के कदम मजबूती से बढ़ रहे हैं। सबसे बड़ी कामयाबी भारत में लोकतांत्रिक ढांचे का बना रहना है। यह इसलिए भी है अहम है क्योंकि पड़ोसी देशों में लगातार फौजी हुकूमत का बोल बाला रहा है। चाहे वह पाकिस्तान हो या फिर बांग्लादेश। - शिवनंदन लाल

 

26 जनवरी 1950 में गणतंत्र बना भारत तमाम उपलब्धियां हासिल कर चुका है। कई एक मोर्चे पर अनुकरणीय और अनूठी नजीर पेश करते हुए हमारा देश आश्वस्त करता है कि यहां लोकतंत्र की मशाल प्रशस्त रहेगी। हमारे लिए गर्व और हर्ष का विषय है कि विश्व का पहला गणतंत्र भारत में ही वैशाली में उदित हुआ था। हमारी विरासत में है आम जन की भलाई का सरोकार। गणतंत्र ने हमें मजबूती दी है और हम गणतंत्र से निरंतर मजबूत से मजबूत हुए हैं।

बीते साल 2024 के मार्च महीने में देश के प्रधानमंत्री ने प्रजातंत्र में जन भागीदारी की वकालत करते हुए देश के आम नागरिकों को एक खुला पत्र लिखा था।अपने पत्र में उन्होंने लिखा था कि भारत व्यापक विविधताओं वाला देश है जिसमें विभिन्न लोगों के विचारों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उच्च विकेंद्रीकृत संघीय ढांचा बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान में सत्ता दिल्ली और राज्य की राजधानियों में केंद्रित हैं। उनका मानना है कि सत्ता का स्वाभाविक विकेंद्रीकरण होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार और पार्टी वृहद विकेंद्रीकरण के पक्ष में खड़ी है। जनसत्ता के व्यापक संग्रह को अब तक वास्तविक अर्थ में परखा ही नहीं गया है। हम शासन में लोगों को कार्यकारी और सहायक के रूप में शामिल करने में सक्षम नहीं हुए हैं। उनका मानना है कि केंद्र से राज्य तक देश में एक सामंजस्यपूर्ण ढांचा बने तथा उसमें जनता की आवाज प्रमुख हो इसके लिए बहुफलकीय परिवर्तन जरूरी है।

भारतीय गणतंत्र के 76 साल पूरे हो गए। इन साढ़े सात दशकों में बतौर राष्ट्र भारत ने लंबा सफर तय किया है। इस सफर में उतार-चढ़ाव हैं, कामयाबियां हैं, लगातार परेशान करने वाली समस्याएं हैं और भविष्य की चुनौतियां हैं। इन सबके बीच भारत के कदम मजबूती से बढ़ रहे हैं। सबसे बड़ी कामयाबी भारत में लोकतांत्रिक ढांचे का बना रहना है। यह इसलिए भी है अहम है क्योंकि पड़ोसी देशों में लगातार फौजी हुकूमत का बोल बाला रहा है। चाहे वह पाकिस्तान हो या फिर बांग्लादेश। शांति और स्थायित्व का भरोसा यहां है। लोकतंत्र के इस सफर में भारतीय राजनीति में एक और अहम बदलाव देखने को मिला हैं। दो दशक पहले तक देश में एक ही राजनीतिक दल का बोलबाला हुआ करता था, लेकिन अब देश ही नहीं, राज्य स्तर पर, भी गठबंधन की राजनीति का चलन है। सही मायनों में यह चलन कम, जरूरत ज्यादा है। अब आम मतदाताओं पर किसी एक राजनीतिक दल का प्रभाव उतना ज्यादा नहीं रह गया है। बहुत लोग है जो गठबंधन की राजनीति को लोकतंत्र के लिए उपयोगी नहीं मानते लेकिन मेरे ख्याल से मजबूत लोकतंत्र की आधारभूत बुनियाद यही है कि कोई सरकार या फिर कोई राजनीतिक दल बहुत ज्यादा मजबूत नहीं हो। नहीं तो ऐसी सरकारें और राजनीतिक दल मनमानी पर उतर आते हैं। इस लिहाज से लोकतंत्र में पार्टियां जितनी कमजोर होंगी, लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोकतांत्रिक पार्टियों के बिना लोकतंत्र रह सकता है, होना यह चाहिए कि बराबरी वाली ताकत के दल और गठबंधन मौजूद हों।

लोकतंत्र के अलावा देश की दूसरी सबसे बड़ी कामयाबी इसका आर्थिक मोर्चों पर कामयाब होना रहा है। जब भारत आजाद हुआ था तब दुनिया में इसकी गिनती गरीब देश के रूप में थी। इस लंबे सफर में आम भारतीय की आमदनी बढ़ी है। गरीबी कम हुई है, हालांकि यह उतनी कम नहीं हुई है, जितनी होनी चाहिए लेकिन जिस सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर को विकास का पैमाना माना जाता है, उसमें मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां विकास के आंकड़े ऊपर की ओर है।  भारत की आर्थिक बुनियाद का ढांचा अंदरूनी ग्रोथ है। इसमें स्थिरता का भाव ज्यादा है। यही वजह है कि जब दुनिया की तमाम आर्थिक ताकतें चरमराती दिखीं, तमाम आशंकाओं के बावजूद भारतीय जीडीपी की विकास दर बहुत कम नहीं हुई। 

भारत का आर्थिक बाजार बाहरी ताकतों पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं है। चीन की तरह यहां कोई एक्सपोर्ट इकॉनामी नहीं है। यही वजह है कि दुनिया भर के लोगों का ध्यान भारतीय बाजार की ओर गया है। भारी संख्या में लोग यहां निवेश करने को उतावले हैं। 

मालूम हो कि तीन दशक पहले अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में भारत को अपना रिजर्व सोना गिरवी रखना पड़ा था। तब तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में भारत ने उदारीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। यह कदम भी भारतीय गणतंत्र के सबसे अहम पड़ावों में एक रहा। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में रोजगार के विकल्प बढ़े। लोगों की आमदनी बढ़ी। पैसा बढ़ने से लोगों के जीवन में खुशहाली का प्रवेश हुआ। बेहतर जीवन शैली और पैसों की आमद ने भारत में एक नए ’ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’ को तैयार किया। इस मिडिल क्लास में कुछ भी कर दिखाने का, कुछ हासिल करने का भरोसा है, यही वजह है कि दुनिया भर में भारतीय लोगों ने बड़ी तेजी से अपनी प्रतिभा और कौशल के बूते जगह बनाई है। दुनिया भर के लोगों का भारत और भारतीय लोगों के प्रति नजरिया बदला है। दुनिया के लोग अब भारत के लोगों को कहीं ज्यादा गंभीरता से लेने लगे हैं।

इन चमकदार कामयाबियों के साथ-साथ कुछ समस्याएं अब भी मौजूद हैं। मसलन देश भर में नागरिक सुविधाओं को अब भी काफी अभाव है। स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, न्याय, कानून व्यवस्था के मोर्चे पर अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सका है। हालांकि हैजा, टीबी, मलेरिया जैसी बीमारियां कम हो गई है, बावजूद इसके देश के हर नागरिक तक स्वाथ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं हो पाई है। देश के एक बहुत बड़े तबके तक  सड़क, बिजली और पानी नहीं पहुंचा है। इसके अलावा देश के अंदर नक्सलवाद, अलगाववाद, सांप्रदायिकता जैसे मसले भी हैं। 

भारत को अपने पड़ोसी देशों से समस्याओं का सामना भी करना पड़ा है। हालांकि दुनिया के स्तर पर भारत इन दिनों मजबूत हुआ है। अमेरिका-चीन जैसे मजबूत देश भी इस बात को भली भांति स्वीकार कर रहे हैं।

आज देश की अर्थव्यवस्था नेहरूवादी-समाजवाद का खोल उतारकर निजी देशी- विदेशी पूंजी के नेतृत्व में सरपट दौड़ रही है। सबसे तेज गति, खूब समृद्धि भी। फोर्ब्स’ पत्रिका के मुताबिक डालर अरबपतियों की सूची में भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया भर में तीसरे स्थान पर है। यही नहीं, भारतीय ’डॉलर अरबपतियों’ की कुल संपदा चीनी अरबपतियों की संपदा से काफी अधिक है। इस मायने में भारत अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। देश में संपदा बरस रही है।  लेकिन चिंता की बात यह है कि जिस ’गण’ की सेवा के लिए भारत गणतंत्र बना, उस ’गण’ को तेजी से दौड़ रही अर्थव्यवस्था से बहुत कम मिला। खुद सरकारी आंकड़े इस तथ्य की गवाही देते हैं। 

सवाल है कि अर्थव्यवस्था से निकल रही जबर्दस्त समृद्धि कहां जा रही है? निश्चय ही इस सवाल का एक सिरा देश में डालर अरबपतियों की संख्या में तेजी से हो रही वृद्धि से से जुड़ता है। जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि डॉलर अरबपति देश की कुल जनसंख्या के मात्र 0.00001 प्रतिशत हैं लेकिन देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक चौथाई हिस्से पर उनका कब्जा है। दूसरी ओर, खुद सरकार पिछले कई वर्षों से 80 करोड लोगों को मुफ्त अनाज देकर जिंदा रखे हुए हैं। आबादी का 78 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन कम आय पर गुजर कर रहा है। साफ है कि देश में गैर बराबरी बढ़ रही है। सच पूछिए तो आज गरीबी से कहीं अधिक आर्थिक विषमता और गैर बराबरी भारतीय गणतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। यह गैर बराबरी कई रूपों में उभरकर हमारे सामने आ रही है। इसका एक रूप तो मौजूदा महा महंगाई में भी देखा जा सकता है। क्या यह चिंता की बात नहीं है कि गणतंत्र बनने के बाद देश ने अन्न उत्पादन में बहुत तरक्की की है लेकिन प्रति व्यक्ति/प्रति दिन खाद्यान्न की उपलब्धता लगातार कम हुई है? 

हालांकि कई लोगों का मानना है कि आर्थिक समृद्धि के साथ लोगों ने अनाजों के बजाय अंडे-मांस-दूध और सब्जियां अधिक खाना शुरू कर दिया है। इस दावे में थोड़ी सच्चाई है लेकिन कम आय पर गुजर-बसर करने वाले कोई 80 करोड़ लोगों के लिए सच यही है उन्हें हर दिन दोनों जून दाल-रोटी के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है। गांवों में लगभग 65 करोड़ लोग घोर गरीबी में जी रहे हैं। इस आबादी का लगभग 50 प्रतिशत तो खेतिहर मजदूर हैं जिनके पास जमीन भी नहीं है। जिन सामान्य लोगों को दो वक्त की रोटी, रहने को घर, पढ़ने को विद्यालय, इलाज के लिए अस्पताल न हो उनके लिए जनतंत्र कैसा?जनतंत्र एक शासन व्यवस्था है जिसमें 5 साल की अवधि में एक बार देश के निवासियों को मतदान द्वारा अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। लेकिन दुर्भाग्य है कि निर्वाचन समाप्त होते ही चुने गए प्रतिनिधि शासक बन जाते हैं और सामान्य जन के अधिकारों को अपने हाथ में ले लेते हैं। 

प्रजातंत्र की सबसे प्रासंगिक परिभाषा अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की मानी जाती है। उनके अनुसार लोकतंत्र जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की शासन व्यवस्था है। अर्थात लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। क्या व्यवहार में ऐसा है, तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा, नहीं।

आज समाज में प्रजातंत्र की परिकल्पना उसी तरह की जा रही है जैसे एक पुरानी कथा में कई नेत्रहीनों ने हाथी की कल्पना की थी। इससे भी आगे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार द्वारा देश की रक्षा और राजनीतिक महत्व के स्पेक्ट्रम को स्वार्थ बस निजी कंपनी को बेचने का उदाहरण भी मौजूद है, जिसे कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी मानते हुए निरस्त किया। अगर आपको याद हो तो जिओ नेटवर्क की शुरुआत मुफ्त कनेक्शन और सर्विस उपलब्ध कराने से हुई तब सभी मोबाइल ऑपरेटरों ने सवाल उठाए और सबने सरकार से आग्रह किया कि इस सेवा प्रदाता को अनैतिक प्रतिस्पर्धा से रोका जाना चाहिए लेकिन चुनी हुई सरकार ने नहीं रोका और उसका परिणाम तमाम मोबाइल कंपनियों के बंद होने के रूप में निकला। बाद में बची-खुची कंपनियों को बचाने के लिए खुद सरकार को आगे आना पड़ा। भारतीय संविधान के अंगीकरण के मौके पर बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था संविधान अच्छा है या बुरा यह संविधान को लागू करने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है। यानी व्यक्ति की मानसिकता यदि लोकतांत्रिक नहीं होगी तो उसकी परिणिति 1975 के आपातकाल की तरह हो सकती है। दोष पूर्ण लोकतंत्र के अनेक उदाहरण के बीच भारत ने तरक्की की है। जीवन प्रत्याशा बढ़कर 70 साल हो गई है। साक्षरता दर 77 प्रतिशत पहुंच गई है। देश मंगल ग्रह तक पहुंचा है। अनेक वैज्ञानिक खोजें लगातार आगे बढ़ रही हैं,लेकिन जब हम जन भागीदारी की बात करते हैं तो उसमें बहुत सारे पैरामीटर है जहां हम बहुत पीछे हैं। देश में मीडिया की स्वतंत्रता 142वें  स्थान पर है। डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत का स्थान 41वां है। जिन 55 देशों को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक देश में शामिल किया गया है उनमें भारत भी शामिल है। लोक प्रजातंत्र का सही मायने में अर्थ लोगों की भागीदारी है, यानी जनता की जितनी ज्यादा भागीदारी होगी उस देश का प्रजातंत्र उतना ही फलेगा फूलेगा। हमारे देश में जनता की भागीदारी महज चुनाव तक सीमित है। राजनीतिक दलों ने भारत को सांप्रदायिक जाति और क्षेत्रवाद के दलदल में डाल दिया है। निर्वाचन प्रक्रिया दोषपूर्ण होने के कारण हमारे देश में विधायकों और सांसदों का दल-बदल करना, सरकारों का गिरना, निर्धारित समय से पहले चुनाव होना, उपचुनाव होना, लोकतंत्र के विश्वास को कमजोर करता है। संसद और विधानसभा में बैठकों की संख्या लगातार घट रही है। सदन अखाड़ा बनते जा रहे हैं।  कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ जाती है। मौका मिलते ही सत्ताधारी दल विरोधी दलों को सदन से बाहर कर जनता के नाम पर विधेयक पास कर लेते हैं। 

यही कारण है कि तरक्की की तेज रफ्तार के बावजूद हमारे गणतंत्र का ’गण’ कहीं पीछे छूटता जा रहा है। वह अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा है। यही नहीं, कहीं न कहीं उसे यह भी लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं को उसकी परवाह नहीं रह गई है।  आखिर ’गण’ को नजरअंदाज करके गणतंत्र कैसे आगे बढ़ सकता है?

हमारा मानना है कि कोई भी व्यवस्था पूरी तरह दोषरहित नहीं हो सकती। देश काल परिस्थितियों के अनुसार उसमें संशोधन आवश्यक होता है। हमारा संविधान हो या प्रशासन या चुनाव सभी को वक्त की चुनौतियों से पार पाने के लिए सुधार की जरूरत होती है। महत्वपूर्ण है राष्ट्र के संचालन और आवश्यक संशोधन में पारदर्शिता जवाबदेही और कर्तव्य का निर्वहन हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारा कर्त्तव्यों से विमुख हो जाना गण का तंत्र से और तंत्र का गण से दूर हो जाने की वजह बना है। इसीलिए गणतंत्र बन जाने के लंबे अरसे के बाद भी  तंत्र की ओर आशा भरी निगाह से गण निहार रहा है कि खुशहाली आए।

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