swadeshi jagran manch logo

तपती धरती के लिए जिम्मेवार है इंसानी हरकतें

पर्वत शिखरों में जमी बर्फ के पिघलने की रफ्तार अप्रत्याशित ढंग से बढ़ गई है। यह और न बढ़ने पाए इसके लिए अब तुरंत कदम उठाने का समय आ गया है।  - अनिल तिवारी

 

बेंगलुरु में पानी की किल्लत, ब्राजील की बाढ़, दुबई में बेतहाषा बारिष, उत्तराखंड में लगातार लहकते-जलते जंगल और भारत में विभिन्न इलाकों में हीट वेव की बढ़ती आक्रामकता से तपती धरती, चिंता का सबब बने हुए हैं। जलवायु बदलाव के ऐसे बहुपक्षीय दुष्परिणामों से दुनिया चिंतित है। इसे लेकर जहां-तहां बौद्धिक विमर्ष तो आयोजित होते रहे हैं लेकिन समाधान के लिए जो ठोस पहल होनी चाहिए, उसका सर्वथा अभाव है। मामले की गंभीरता को देखते हुए उम्मीद की जा रही थी कि राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में जलवायु संकट को प्रमुखता से रेखांकित करेंगे लेकिन भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों के दस्तावेजों में यह मसला महज खाना पूर्ति की तरह एक कोने में दुबका हुआ है।

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का मौलिक अधिकार है, और यह अधिकार स्वाभाविक रूप से जीवन के अधिकार और समानता के अधिकार से प्राप्त है। संविधान में इसकी गारंटी दी गई है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि लोगों के स्वच्छ हवा या स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को भारतीय न्याय शास्त्र में पहले से ही बहुतअच्छी तरह से मान्यता दी गई है और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती तबाही को देखते हुए इसके खिलाफ सुरक्षा का अधिकार बनाना आवष्यक था। क्योंकि प्रतिकूल प्रभाव अपने आप में विषिष्ट अधिकार है। शीर्ष अदालत के इस फैसले से न केवल जलवायु परिवर्तन को लेकर आम जनता में जागरूकता बढ़ने की बात की गई बल्कि यह भी उम्मीद की गई कि लोग सरकार और संस्थाओं से इस मामले में जवाबदेह कार्यवाही की भी मांग करेंगे। आषा जगी कि सरकार और संस्थाएं ठोस पहल कर आम जन को राहत पहुंचाने की दिषा में सकारात्मक कदम उठाएंगी।

देष का आम जन-जीवन जलवायु बदलाव से उत्पन्न होने वाले खतरों की हद में है। समय-समय पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया हर पल, हर दिन, हर महीने, हर साल बदल रही है। पिघलते ग्लेषियर, चटखते हिमखंड और सर्दी गर्मी जैसे हर मौसम में पारा का थोड़ा और ऊपर उछल जाना, यह सब हमें उसी भविष्य की ओर ले जा रहे हैं जहां से लौटना शायद मुमकिन न रह जाए।

मालूम हो कि दुनिया के लगातार गर्म होते जाने की जानकारी कोई नई नहीं है। वर्ष 1824 में ही जोसेफ कोरियर ने बताया था की धरती पर यदि कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी तो धरती का तापमान बढ़ेगा। फलस्वरुप ध्रुवीय हिमखंड पिघल सकते हैं।लेकिन पिछले 200 वर्षों में हमने कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए कुछ नहीं किया। विकसित देषों ने तो घटाने की बजाय अपने बेतहाषा उपभोग के कारण इसे बढ़ाकर चरम पर पहुंचा दिया। एक अनुमान के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग जिस रफ्तार से बढ़ रही है उसमें 60 प्रतिशत से अधिक का योगदान केवल कुछ गिने चुने विकसित देषों का ही है। इसके असली और सर्वाधिक गुनहगार वही है। ऐसे में गरीब और विकासषील देषों का मानना है कि इसको रोकने की शुरुआत विकसित देषों को ही करनी चाहिए। लेकिन लगे हाथ कुछ पर्यावरणविदों का यह भी कहना है कि विकसित देषों ने जिस जीवनषैली को अपना लिया है उसे रातों-रात छोड़ना उनके लिए आसान नहीं है। ऐसे में उन देषों की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए जो तेजी से ग्रीन हाउस गैस को बढ़ाने वाली शैली को अपना रहे हैं। लेकिन यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या विकासषील अथवा अविकसित देष यह जोखिम ले सकते हैं कि वे ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए अपनी विकास यात्रा को ही रोक दें।

आईपीसीसी जो विश्व के जलवायु परिवर्तन पर दुनिया भर में हो रहे शोधों का विष्लेषण कर बड़े निष्कर्ष प्रकाषित करती है के अनुसार 2023 का वर्ष पिछले लगभग एक लाख साल में सबसे गर्म बरस रहा। यहां तक की जून 2023 से पिछले मार्च 2024 तक लगातार 8 महीने में तापमान रिकार्ड स्तर पर बढ़ता रहा। विश्व का औसत तापमान इस दौरान सामान्य से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक था जो बहुत ही असामान्य है। इस साल का मार्च वैश्विक स्तर पर सबसे गर्म महीना था,औसत तापमान 14.4 डिग्री सेल्सियस था जो मार्च 2016 में पिछले उच्च तापमान से 0.16 डिग्री अधिक था। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर फसलों, पीने के पानी की उपलब्धता, बाढ़ और सुखा, भूस्खलन जैसी उग्र घटनाओं पर पड़ता है, वही निर्धन परिवारों की स्थिति और विकट हो जाती है। गर्मी के अधिक प्रकोप के समय भी खेत मजदूर, निर्माण मजदूर, सफाईकर्मी खुले में घंटे मेहनत करने को मजबूर होते हैं, क्योंकि इसके बिना वे अपने परिवार का पेट नहीं भर सकते। किसान तो फिर भी अपने कार्य के समय को मौसम के अनुसार निर्धारित कर लेते हैं लेकिन दूसरों के यहां मजदूरी करने वालों को प्रायः उनकी बात माननी ही होती है। उनका अधिकांष कार्य विषेष कर मार्च से जून तक घोर गर्मी में ही होता है।

प्रष्न उठता है कि निरंतर गहराते पर्यावरण संकट के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह कौन है? इसका सीधा उत्तर है मनुष्य की अति भोग-बिलास वाली जीवन शैली।

इंसानी हरकतें कुदरत को रौद्र रूप दिखाने पर मजबूर कर रही है। वैसे तो चरम मौसमी घटनाओं का समूचा पैटर्न ही भयावह परिणाम दिखाने वाला है लेकिन जिस प्रकार से जैव विविधता पर असर पड़ रहा है और हमारे खान-पान की चीजों का स्वाद और उसके पोषक तत्वों में बदलाव आ रहा है, वह मानवीय अस्तित्व के लिए बड़े खतरे की तरह है।

इसमें कोई दो राय नहीं की मौसम के खेल से बेखबर हुकूमते पर्यावरण संरक्षण का काम सिर्फ कागजों में ही करती रही हैं। अब तो कागजों में भी महज खानापूर्ति  है। भाजपा का घोषणापत्र मुख्य रूप से मौजूद पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन कार्यक्रमों के बिस्तार पर केंद्रित है।कांग्रेस का घोषणा पत्र पर्यावरण मानको और जलवायु नीतियों को निर्धारित और लागू करने के लिए एक स्वतंत्र संरक्षण और जलवायु परिवर्तन प्राधिकरण बनाने की बात करता है। बीजेपी की नकल पर कांग्रेस ने भी 2070 तक नेट जीरो हासिल करने का लक्ष्य रखा है। त्वरित कदम उठाने या कोई ठोस कार्रवाई किए जाने का वादा कहीं भी नहीं है। विडंबना पूर्ण है कि बेंगलुरु शहर पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा है, महीनों से उत्तराखंड के जंगलों में आग धधक रही है, बेमौसम बारिष, बाढ़, ओले जैसी कुदरती आपदाओं से जनजीवन बेहाल होता देखकर भी जवाबदेह संस्थाएं सुनने समझने को राजी नहीं है।

लेकिन अब हाथ पैर हाथ धर कर बैठने और एक दूसरे पर दोषारोपण करने का समय निकल चुका है। पर्वत षिखरों में जमी बर्फ के पिघलने की रफ्तार अप्रत्याषित ढंग से बढ़ गई है। यह और न बढ़ने पाए इसके लिए अब तुरंत कदम उठाने का समय आ गया है। हमारा पिछला रिकॉर्ड चाहे जितना भी खराब क्यों ना हो लेकिन हम इसका कोई और समाधान अब भी निकाल सकते हैं बषर्ते सीमा, विश्व व्यापार, क्षेत्रीयता, पराए धन पर नजर गड़ाने एवं सभ्यताओं की जंग जैसे बेवजह के झगड़ों को ही सब कुछ मानकर हम इस चुनौती को ही ना भूल जाए। मानव सभ्यता और इस सुंदर सृष्टि को बचाना इस दषक का और इस सदी का सबसे बड़ा संकल्प होना चाहिए, क्योंकि अब इसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में जिस तरह भारतीय ’योग’ को अपनाकर दुनिया के लोग लाभान्वित हो रहे हैं उसी तरह भारतीय जीवन शैली के 6 सूत्रों जिसमें त्याग के साथ उपभोग, अपने को सभी जीवो में देखना, एक सत्य का विविध रूपों में प्रकटीकरण, सभी सुखी रहें, वसुधैव कुटुंबकम् तथा पृथ्वी मेरी मां है एवं मैं पृथ्वी का पुत्र हूं, शामिल है, को आत्मसात कर मानवता के समक्ष खड़े जलवायु बदलाव के बहुकोणीय संकटों से बचा जा सकता है।   

Share This

Click to Subscribe