महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई आयाम हैं। इसे आर्थिक, सामाजिक और कानूनी समस्या के रूप में निपटाया जाना चाहिए। - डॉ. जया कक्कर
दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए ’निर्भया’ के सामूहिक बलात्कार कांड ने हमारे देश की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। महिलाओं के खिलाफ आए दिन होने वाले अपराधों को कैसे रोका जाए, इस बारे में फिर से चर्चा शुरू हुई तथा यौन हमले की परिभाषा का विस्तार किया गया और बलात्कार के लिए सजा की मात्रा बढ़ा दी गई। ’टू फिंगर’ परीक्षण (व्यवहार में भयावह होने के बावजूद इसे कभी बंद नहीं किया गया!) को बंद करने की मांग हुई। पुलिस द्वारा जल्द शिकायत दायर करने तथा त्वरित कानूनी कदम उठाने की भी मांग की गई।
लेकिन दस साल बाद भी हकीकत जमीन पर ज्यादा नहीं बदली है। 2021 में भी महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4 लाख (4,28,278) से ज्यादा मामले दर्ज किए गए। 2012 में यह आंकड़ा 2.5 लाख (2,44,270) से कम था। वास्तव में, ऐसे अनेक अपराध कई कारणों से रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं, जैसे रिपोर्टिंग से जुड़े कलंक, पुलिस की उदासीनता या अनिच्छा, परीक्षण के लंबे और अनुत्पादक होने का डर, मामले को आगे बढ़ाने में शामिल खर्च, और सबसे बढ़कर अपराध करने वालों से मिलने वाली धमकियां।
वर्ष 2019 2020 2021 2022
मामला दर्ज 13,614 9924 14,022 12,854
परिकलीत मामले 9179 6820 9384 7943
निर्णीत मामले 2481 759 643 लागू नहीं
बरी/डिस्चार्ज 1762 438 411 लागू नहीं
सजा 719 331 232 लागू नहीं
(आंकड़े 15 नवंबर 2022 तक के हैं।)
कानून शायद ही कोई निवारक है। दिल्ली, जो कि एक छोटा राज्य और देश की राजधानी होने के नाते बेहतर शासित है। लेकिन यहां भी बलात्कार, दहेज हत्या, छेड़छाड़, और अपहरण के कुल 13,614 मामलों में सजा की दर वर्ष 2012 में केवल 5.46 प्रतिशत थी, 2021 आते-आते घटकर मात्र 1.65 प्रतिशत रह गई।
निपटाए गए मामलों और बरी हुए लोगों की तुलना करे तो ये दयनीय आंकड़े लापरवाह जांच और चार्जशीट दाखिल करने में खामियों की ओर इशारा करते हैं। वास्तव में मौजूदा न्याय प्रणाली (पुलिस, अदालतें, कानून, सभी एक साथ) अभियुक्तों के लिए इतनी अनुकूल है कि अधिकांश पीड़ित लोग मामला दर्ज कराने के लिए भी आगे नहीं आते हैं। और अगर कोई आगे आने की हिम्मत जुटाता है,पुलिस के पास जाता है तो पुलिस पहले इसे दर्ज नहीं करती है और अगर किसी दबाव में दर्ज करना भी पड़ा तो गलत तरीके से दर्ज करती है। इसलिए बाद में गवाहों के पक्षद्रोही होने की संभावना बढ़ जाती है।
2012 के बाद बलात्कार पीड़ितों को आसानी से न्याय दिलाने के लिए निर्भया फंड बनाया गया। परंतु वस्तु स्थिति है कि इस कोष का 30 प्रतिशत मद अप्रयुक्त रहता है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि महाराष्ट्र में विधायकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए इसी फंड के पैसे का इस्तेमाल किया गया था।
लेकिन सजा में कमी का कारण केवल संस्थागत नहीं है। इसमें परिचरो के सामाजिक प्रतिगमन की भी भूमिका है। अब तो कभी-कभी अधिकारी भी सुझाव देते हैं कि बलात्कारी पीड़िता से शादी कर ले। बिलकिस बानो के मामले में देखा गया कि जब दोषी जेल से बाहर आए थे तो उन्हें अपराध के लिए मौन और (वर्गीय) सामाजिक समर्थन भी मिला था। अपराधियों के प्रति बढ़ती लोकप्रियता भी कानूनी विफलताओं का परिणाम है।
महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की स्थिति पहले से ही चिंताजनक रही है, अब हाल के दिनों में हमलों में क्रूरता भी बढ़ गई है। केवल हाल के महीनों में, केवल कुछ के बारे में बात करे तो एक महिला को उसके पीछा करने वाले ने पेचकस से 51 बार वार किया। एक 17 वर्षीय लड़की पर तेजाब से हमला किया गया, और एक 27 वर्षीय महिला को उसके साथी ने 37 टुकड़े कर दिए। महिलाओं के खिलाफ बढ़ती क्रूरता अपराधों के लिए एक नया आयाम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2021 में लगभग हर मिनट एक महिला के खिलाफ अपराध दर्ज किया गया था।
इसके अलावा, हिंसा केवल शारीरिक नहीं है। कई महिलाओं को काम और घर दोनों जगह भावनात्मक शोषण का सामना करना पड़ता है। भारतीय समाज में घरेलू हिंसा व्यापक रूप से प्रचलित है। इस प्रकार, हिंसा शारीरिक, भावनात्मक, आर्थिक हो सकती है - यह सब भारतीय घर और समाज में पुरुषों और महिलाओं, पति और पत्नी के बीच सत्ता के अन्यायपूर्ण बँटवारे के कारण हो सकती है। शारीरिक हिंसा के अलावा, महिलाओं के अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार को पहचानना और स्वीकार करना मुश्किल हो सकता है। लेकिन अगर ऐसा है भी, तो हो सकता है कि महिलाओं के लिए प्रभावी कानूनी उपाय उपलब्ध न हों। इस संबंध में, हाल ही में अदालत के एक फैसले (हालांकि केवल सत्र न्यायालय स्तर पर) से कुछ राहत मिल सकती है, जिसमें सुझाव दिया गया है कि जहां शारीरिक हिंसा निश्चित रूप से एक अपराध है, वहीं घरेलू हिंसा में यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक दुर्व्यवहार भी शामिल होना चाहिए।
कानूनी व्यवस्था को अपना कर्तव्य निभाना होगा। लेकिन हमने देखा है कि कानून की स्पष्ट सीमाएँ हैं। केवल शिक्षा, जोखिम, परिपक्वता और आत्मविश्वास के साथ ही भारतीय महिलाएं इस दर्द से बाहर निकल सकती हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस मोर्चे पर भी महिलाओं के लिए स्थिति अनुकूल नहीं है।
महिलाओं के अधिकारों के लिए परिदृश्य, जिसमें हिंसा के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा और निवारण की उपलब्धता शामिल है, इतने वर्षों के बाद बहुत अधिक उज्ज्वल नहीं है। निर्भया मामले ने समाज को महिला अधिकारों, हिंसा, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के प्रति जागरूक किया। इसने यह स्वीकार किया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए ’स्वतंत्रता’ को अधिक समान आधार पर रखने की आवश्यकता है। इन दुर्व्यवहारों को स्वीकार करने के लिए कानूनी प्रणाली अधिक खुली हो गई। महिलाओं से संबंधित अपराधों से संबंधित कानून और अभियोजन में प्रगति हुई थी। लेकिन अब तक का हासिल क्या है?
वास्तव में निवारक के रूप में कानूनों पर बहुत अधिक निर्भरता की सीमाएँ हैं। कानून महत्वपूर्ण है लेकिन वह एक सीमा तक ही मदद कर सकता है। हमें मानसिकता पर ध्यान देने की जरूरत है। जब कभी महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति माना जाता है, तो स्वाभाविक रूप से महिलाओं के खिलाफ हिंसा से लड़ने के प्रयासों को पलीता लगता है। पुरुष प्रधान और स्त्री विरोधी मानसिकता की सामाजिक वास्तविकताओं के साथ बेहतर परिणाम हासिल नहीं किया जा सकता है। हाल के वर्षों में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश हुई है। अंतर्धार्मिक संबंध को लेकर भी खूब बहस हो रही है। महिलाओं को कमतर करके रखने का लगातार प्रयास किया जा रहा है।ऐसे में पीड़ित होने के बावजूद महिलाओं को रक्षात्मक होने की जरूरत नहीं है बल्कि पुरुष अधिकारों को धीरे-धीरे कम करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि महिलाओं को आर्थिक मुक्ति के लिए अपना रास्ता तैयार करना होगा। घरेलू हिंसा के मामले तो है ही महिलाएं बाहर ही असुरक्षित हैं। महिलाओं को भी हिंसा से मुक्त होने का अधिकार है गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार है और आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार भी प्राप्त है।