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स्वास्थ्य परिदृश्य में सुखद बदलावः सरकार ले रही है अधिक जिम्मेदारी

केंद्रीय बजट 2025-26 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, आयुष और स्वास्थ्य अनुसंधान पर 103280 करोड़ रुपये का व्यय आवंटित किया गया है। यदि हम पिछले 11 वर्षों पर नजर डालें तो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, आयुष और स्वास्थ्य अनुसंधान पर व्यय में 8.3 गुना वृद्धि हुई है, जो 2014-15 में 12482 करोड़ रुपये से बढ़कर बजट 2025-26 में 103280 करोड़ रुपये हो गया है। इस अवधि के दौरान केंद्रीय बजट का आकार मुश्किल से 2.8 गुना ही बढ़ा है। दस साल पहले, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक प्रतिशत था। उल्लेखनीय है कि 1990-91 में स्वास्थ्य पर कुल सार्वजनिक व्यय (जिसमें चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, जल आपूर्ति और स्वच्छता, पोषण, बाल और विकलांग कल्याण शामिल होते हैं) सकल घरेलू उत्पाद का 2.36 प्रतिशत था। वैसे तो भारत में सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थान कभी भी उत्.ष्ट नहीं थे, लेकिन एलपीजी से पहले के दौर में भी इन सुविधाओं को सरकारी नीति निर्माण के केंद्र में रखा जाता रहा। एलपीजी नीतियों के तहत निजीकरण के आगमन के साथ ही लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए बाजार की ताकतों के भरोसे छोड़ दिया गया। 2014-15 से पहले जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं कम होती जा रही थीं, उनमें काफी सुधार होना प्रारंभ हुआ है, जिससे लोगों द्वारा जेब से किए जाने वाले खर्च को कम करना संभव हो पाया है। हम देखते हैं कि 2004 में सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में कुल स्वास्थ्य व्यय 4.2 प्रतिशत था, और इसमें से 2.59 प्रतिशत निजी जेब से किए जाने वाले खर्च का था। चिंता की बात यह थी कि सार्वजनिक व्यय भयानक रूप से कम था, देश के सकल घरेलू उत्पाद के 1 प्रतिशत से भी कम। अध्ययन बताते हैं कि जेब से किए जाने वाले उच्च व्यय के गंभीर नकारात्मक प्रभाव होते हैं, जिससे ग्रहस्थों की सामाजिक आर्थिक स्थिति बदतर हो जाती है; विशेष रूप से इसने समाज के आर्थिक रूप से गरीब वर्गों को ज़्यादा प्रभावित किया है। इसके अलावा मध्यम आय वर्ग के कई लोगों को जबरन गरीब बना दिया गया। व्यापक आर्थिक स्तर पर, इसने गरीबी उन्मूलन में सरकारी प्रयासों को विफल किया और सामान्य आर्थिक कल्याण को निम्न स्तर पर ला दिया। पिछले एक दशक में सरकार द्वारा सकारात्मक और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के कारण, गैर-संचारी रोगों के बढ़ते मामलों के बावजूद, जेब से होने वाले खर्च में लगातार कमी आ रही है, जिससे आम जनता और खास तौर पर गरीबों को राहत मिली है। 2013-14 तक जेब से होने वाला खर्च करीब 2.5 प्रतिशत के उच्च स्तर पर बना रहा। 2004-05 में जीडीपी के प्रतिशत के रूप में जेब से होने वाला खर्च 2.58 था, जो 2013-14 में भी 2.43 पर बना रहा, जबकि तत्कालीन सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बारे में बड़े-बड़े दावे किए थे। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि के साथ, हमने निजी जेब से होने वाले स्वास्थ्य व्यय में धीरे-धीरे गिरावट देखी है। हालाँकि, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में जेब से किये जाने वाले व्यय में अधिक तेजी से गिरावट 2015-16 के बाद देखी गई, क्योंकि यह 2015-16 में 2.32, 2019-20 में 1.54, 20-21 में 1.66 और 21-22 में 1.55 थी।

हालांकि, अच्छी बात यह है कि भारत में सरकारें स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने की बढ़ती जरूरत को पूरा करने की ओर संवेदनशील हैं। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय बढ़ रहा है क्योंकि 1950-51 में यह भारत के जीडीपी का 0.22 प्रतिशत था, 1975-76 में 0.81, 1990-91 में 0.96, 1995-96 में 0.88, 2005-06 में 0.96। 2007-08 से 2013-14 के बीच यह आंकड़ा कुछ हद तक 1 के करीब पहुंच रहा था। हालांकि, 2015-16 के बाद इसमें लगातार बढ़ोतरी देखी गई है क्योंकि 2015-16 में यह जीडीपी का 1.02 था, 2016-17 में 1.17 और 17-18 में 1.35, 18-19 में 1.28, 19-20 में 1.35, 20-21 में 1.6 और 21-22 में 1.84 था। भारत के मामले में, आयुष्मान भारत की शुरूआत ने निजी जेब से स्वास्थ्य खर्च कम करने में काफ़ी मदद की है। आयुष्मान भारत योजना में दो खंड शामिल हैं- एक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के उन्नयन और निर्माण से संबंधित है जिसे प्रधान मंत्री-आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन (पीएम-एबीएचआईएम) के रूप में जाना जाता है और दूसरा स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने की दिशा में है जिसे आयुष्मान भारत-प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना (एबी पीएम-जेएवाई) के रूप में जाना जाता है। दिसंबर 2024 तक, कुल 1.75 लाख आयुष्मान आरोग्य मंदिर (एएएम) या तो स्थापित किए गए थे या मौजूदा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और उप-स्वास्थ्य केंद्रों (एसएचसी) से उन्नत किए गए।

आयुष्मान भारत-प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना (एबी पीएम-जेएवाई)। इसका उद्देश्य माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य खर्चों के लिए 5 लाख तक के स्वास्थ्य खर्चों को वहन करना है। शुरुआत में यह समाज के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों के लिए ही था। भारत सरकार ने 2018 में इसके लिए 1998 करोड़ रुपये आवंटित किए थे, जो आगे बढ़कर 2022 में 6185 करोड़ रुपये हो गए, जिससे लाखों लोगों को लाभ हुआ है। इसके अलावा, भारत सरकार ने आयुष्मान कार्ड धारकों के लिए अस्पतालों में मूल्य सीमा भी तय की है, लेकिन गैर-कार्ड धारकों के लिए वास्तव में कीमत बहुत अधिक है। इसके अलावा, पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में स्वास्थ्य देखभाल की लागत वैसे भी बहुत सस्ती है, यही कारण है कि भारत उनके लिए एक आकर्षक गंतव्य है। यह सच है कि इन वर्षों के दौरान हमने सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को मजबूत करके, सार्वजनिक बीमा आधारित, सस्ती कीमतों पर जेनेरिक दवाएं और नैदानिक सेवाएं प्रदान करके, कल्याण की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली को बढ़ावा देकर समान स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने की दिशा में प्रयास किया है। इसके साथ-साथ हमें अपने चिकित्सा उद्योग को मजबूत करने की आवश्यकता है ताकि इस क्षेत्र में नए अत्याधुनिक नवाचार और तकनीक विकसित की जा सकें जो दुनिया भर में बीमारियों की बदलती प्रकृति की जरूरतों को पूरा कर सकें। यह कई तरह से हमारी अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकता है। यह एक स्वस्थ कार्यबल प्रदान करेगा, गरीबी को कम करने में मदद करेगा, साथ ही विदेशी मुद्रा जुटाने में भी मदद करेगा। इस प्रकार, इस प्रयास में, सरकारों के दोनों स्तरों को तालमेल में काम करने की आवश्यकता है।

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