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समृद्धि स्वदेश में, फिर क्यों जा रहे परदेस में?

रोजगार सृजन और शिक्षा एक दूसरे का साथ पकड़ कर चलते हैं। विदेशों में पढ़ रहे युवाओं को अपने देश की समृद्धि पर विश्वास बढ़ेगा तो ब्रेन ड्रेन भी ब्रेन गेन में अपने आप बदलेगा। - विनोद जौहरी

 

जब हम भारत की समृद्धि, विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और वर्ष 2047 तक विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की चुनौती पर विचार करते हैं तो सबसे पहले यही चिंता होती है कि हमारे लाखों उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र, कुशल कारीगर, युवा अपने देश को छोड़कर विदेश चले जाते हैं और जो जनसांख्यिकीय लाभ अपने देश को होना चाहिए था वह विदेशों विशेषकर अमेरिका, कनाडा, यूरोपीय देशों, आस्ट्रेलिया, मिडिल ईस्ट के देशों को हो रहा है। यह आंकड़ों का विषय नहीं है फिर भी विदेश मंत्रालय के अनुसार 3.21 करोड़ भारतीय विदेशों में बसे हैं जिनमें  1.34 करोड़ भारतीय अनिवासी भारतीय (एन आर आई) हैं और 1.87 करोड़ भारतीय विदेशी नागरिक (ओ सी आई) है। विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार ही 13.24 लाख भारतीय छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए गये हैं। यह सभी भारतीय सुंदर सपने सजाकर विदेश गये थे।

पिछले दिनों समाचार पत्रों और मीडिया में चिंता जनक समाचार प्रकाशित हुए। वैसे तो भारतीय छात्रों पर यदा-कदा नस्ली हमले होने, भारतीय छात्रों की हत्या किये जाने के समाचार आते हैं। परंतु हाल ही में विभिन्न समाचार पत्रों में भारतीय छात्रों के उच्च डिग्रियों के बावजूद नौकरी और इंटर्नशिप का अभाव हो गया है। विश्व के विकसित देशों में भी आंतरिक असमानताएं व्याप्त हो रही हैं और उन देशों में नियोक्ताओं, विश्वविद्यालयों, सरकारों और कंपनियों में विदेशी छात्रों के मुकाबले अपने ही देश के युवाओं को नौकरी देने का दवाब है। अमेरिका में आठ विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित आई वी लीग समूह (हारवर्ड, येल, पेंसिलवानिया, यूसी बर्कले, ब्राउन, टेक्सास आदि) में भी उच्च डिग्री धारक छात्रों को इंटर्नशिप पाने के लिए भी निराश होना पड़ रहा है। यहां तक कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी नवीनतम टैक्नोलॉजी के छात्रों को भी निराशा हाथ लगी  है। देश के राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में अमेरिका को विदेशी छात्रों के लिए सबसे अधिक प्रतिष्ठा माना जाता है और 77 प्रतिशत छात्रों की यही मान्यता है। उसके बाद पश्चिमी यूरोप के विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठता के लिए 66 प्रतिशत भारतीय छात्रों की मान्यता है। सिंगापुर और चीन भी भारतीय छात्रों का आकर्षण रहे हैं। परंतु वास्तविकता अब बदल रही है। फिर भी त्रासदी यह है कि अमेरिका और अन्य देश जहां विदेशी छात्र पढ़ने आते हैं, भारत और अन्य देशों के छात्रों को अमेरिकी विश्विद्यालयों में पढ़ने के लिये लुभावने प्रयास निरंतर करते हैं। हमारे देश में बड़े महानगरों, कोचिंग मंडियों और छोटे शहरों में भी लोकल एजेंट भारतीय छात्रों को विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने के विज्ञापन, काउंसलिंग लगातार करते रहते हैं। भारत में सभी बड़े महानगरों में विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए कोचिंग और प्रवेश परीक्षाएं आयोजित होती हैं। 

मेरा स्वयं का अनुभव है कि मेरे एक परिचित परिवार की बेटी आर्कीटेक्चर में आस्ट्रेलिया से ही डबल ग्रेजुएशन, डबल पोस्टग्रेजुएशन और पीएचडी करने के बाद रिसर्च एसिस्टेंट का काम कर रही हैं जिनको योग्यता के अनुसार भारत में प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज में लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो सकती थी। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। भविष्य की संभावनाएं भी बहुत आशाजनक नहीं हैं। 

यह कहना कि भारत में उच्च शिक्षा महंगी है, उससे कहीं अधिक विदेशों में शिक्षा महंगी है। विदेशों में रहकर पढ़ाई करना बहुत महंगा होता जा रहा है। कमरे, होस्टल का किराया बहुत बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त भोजन, लोकल आवागमन भी बहुत महंगे हो गये हैं। 

अभी हाल ही में अमेरिका में विभिन्न विश्वविद्यालयों के परिसरों में इज़राइल के पक्ष और विपक्ष में छात्रों में झड़पें और आंदोलन हुए हैं और अराजकता फैली है। अमेरिका में विदेशी छात्रों का पच्चीस प्रतिशत भारतीय छात्रों का है और कमोबेश यही स्थिति अन्य देशों के विश्विद्यालयों में है। यह बात तो समझ आती है कि श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, नेपाल, पाकिस्तान, ट्यूनिशिया, अफ्रीकी देशों, अफगानिस्तान, ईरान और इराक, तुर्किये के छात्रों का अपने देशों में भविष्य नहीं है और चीन के छात्र पढ़ाई के चीन वापस जाना नहीं चाहते लेकिन भारत में तो अपार संभावनाएं हैं और संभ्रांत, व्यापारी वर्ग और धनाढ्य परिवारों के छात्र विदेशों में पढ़ने जायें, यह बात बिल्कुल समझ नहीं आती। भारत में नौकरी के स्थान पर व्यापार से ही समृद्धि है और सरकार एवं उद्योग जगत इसके सदा तत्पर रहता है। 

विदेशों में अधिक आवश्यकता छोटे और मझोले कामगारों जैसे ड्राइवर, मैकेनिक, प्लंबर, श्रमिकों आदि की है और उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं के लिए बहुत संघर्ष है। परंतु  इन कामगारों की स्थिति भी दयनीय है। अपने देश को कुशल कामगारों की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी उच्च शिक्षा प्राप्त इंजीनियरों, डाक्टरों और प्रबंधन विशेषज्ञों की।

यदि 13.24 लाख भारतीय छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं तो यह प्रश्न तो सामान्यतः उठता है कि क्या उन 13.24 लाख छात्रों को भारत में विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने की कालेजों में पठन-पाठन क्षमता है? यह प्रश्न भी विदेशी चकाचौंध से आकर्षित युवा पूछते हैं। निश्चित रूप से भारत के विश्वविद्यालयों में 4.14 करोड़ छात्र पढ़ रहे हैं और यह पिछले वर्ष से 29 लाख बढ़ी है। भारत में 23 आई.आई.टी., 31 एन.आई.टी., 25 आई.आई.आई.टी., 93 निजी इंजीनियरिंग कालेज, 387 मेडिकल कॉलेज और 7395 प्रबंधन कालेज हैं। यह तो केवल बानगी है। भारत में विश्व भर में प्रतिष्ठित बहुत से निजी विश्वविद्यालय हैं। इसलिए भारत की उच्च शिक्षा की क्षमता इतनी है कि विदेशी आकर्षण से अभिभूत छात्रों के लिए योग्यता के अनुसार पर्याप्त प्रवेश अवसर उपलब्ध हैं और उज्जवल भविष्य भी।

भारत में मुक्त व्यापार और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था ने भारत के विदेशी विश्वविद्यालयों और काम कर रहे युवाओं को भारत के प्रति आकर्षण का शुभारंभ किया है और यह प्रक्रिया शीघ्र ही तेजी पकड़ेगी। ब्रेन ड्रेन को ब्रेन गेन में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।

अपने देश में नयी शिक्षा नीति 2020 का कार्यान्वयन की शीघ्रता से आवश्यकता है। उच्च शिक्षा को सरकारी सहायता की आवश्यकता है जिससे मेधावी छात्र अपनी पढ़ाई जारी रख सकें। रोजगार सृजन और शिक्षा एक दूसरे का साथ पकड़ कर चलते हैं। विदेशों में पढ़ रहे युवाओं को अपने देश की समृद्धि पर विश्वास बढ़ेगा तो ब्रेन ड्रेन भी ब्रेन गेन में अपने आप बदलेगा।                

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