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जनता मांगे त्वरित न्याय

त्वरित न्याय के मौजूदा दृष्टांत भले आदर्श न ठहराए जाएं, पर लोकतंत्र में यह अपराध के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के लोकप्रिय मॉडल की शक्ल तो अख्तियार कर ही चुके हैं। - शिवनंदन लाल

 

हालिया वर्षों में बुलडोजर न्याय की हर तरफ चर्चा हुई है। यूपी में अपराधियों और माफिया की घर-दुकान-संपत्तियों को जिस तरह बुलडोज करके ध्वस्त किया गया है, उससे बुलडोजर न्याय जैसी चर्चा होने लगी हैं। कुछ लोगों को यह कार्रवाई प्रतिशोधवश लगी तो बहुतों को इसमें न्याय होता भी महसूस हुआ। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पहले पहल अपराधियों और माफिया के घर बुलडोजर से ध्वस्त कराए। यूपी सरकार का कहना है कि उन्हीं निर्माणों को गिराया गया जो अवैध तरीके से अतिक्रमण करके बना लिए गए थे। चूंकि ऐसे लोग तत्कालीन सरकार में अपना कथित असर रखते थे, इसलिए उनका कुछ न बिगड़ा, लेकिन योगी इस प्रकार के किसी भी दबाव में नहीं आने वाले। इसलिए उन्होंने यह उपाय अपनाया और सबसे बड़ी बात तो यह कि अन्य कई राज्यों ने भी उनका अनुसरण किया। इससे ताकीद होती है कि अपराधियों और माफिया का हौसला तोड़ने और आम जन का कानून में विश्वास कायम रखने के लिए ’बुलडोजर न्याय कारगर है। पहली दफा नहीं है, जब किसी राजनेता ने बुलडोजर का इस प्रकार से इस्तेमाल कराया हो। आपातकाल में भी दिल्ली की मलिन बस्तियों को बुलडोजर से ध्वस्त करके वहां के बाशिंदों को अन्यत्र स्थानों पर प्लॉट आवंटित करके उनका पुनर्वास किया गया था। 

मालूम हो कि करीब सौ साल पहले कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने की परिकल्पना के साथ अमेरिका के किसानों जेम्स कुर्मिस और मैकलेयोड ने 18 दिसम्बर, 1923 में पहला बुलडोजर बनाया था। तब से इसके आकार और शक्ति में खासा बदलाव आ चुका है। शुरू में ऊबड़-खाबड़ जमीनों को समतल बनाने के यह काम आया। बाद में समय के साथ इसकी भूमिकाएं बदलती गई। बहरहाल, निर्माण स्थलों पर प्रायः दिख जाने वाला बुलडोजर निर्माण कार्यों में तो इस्तेमाल होता ही है, लेकिन कभी-कभार विध्वंस की कार्रवाई में भी दिखलाई पड़ जाता है। अब यह त्वरित न्याय का प्रतीक बन गया है। जैसा कि यूपी में देखा जा रहा है। ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि किसी भी वैध निर्माण को न तोड़ दिया जाए। अच्छी बात है कि यूपी सरकार ने अदालत में हलफनाम दिया है कि अतिक्रमण या अवैध निर्माण को ही ध्वस्त किया गया है।

विचार और सवाल की तमाम दलीलों के बीच इस बात से किसी का इनकार नहीं कि लोकतंत्र में जनता की पसंद के ऊपर कुछ नहीं। ऐसे में त्वरित या बुलडोजर न्याय को लेकर विचार करें तो इसको लेकर प्रतिरोध का बड़ा जनपक्ष आज भी नदारद है। बात सीधे-सीधे इस दौरान उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शासन में लोकप्रिय हुई बुलडोजर कार्रवाई की करें तो इसके पीछे बड़ी वजह न्याय में देरी की शिकायत का फौरी निराकरण है। भारत बड़ा देश है। कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक एक ऐसा ढांचा यहां आजादी के पहले से हमारे साथ चला आ रहा है, जिसमें आमूलचूल सुधार की दरकार है। पर यह सब रातोंरात संभव नहीं। लिहाजा, एक दूसरी सूझ यह सामने आई कि जनता के सामने विधि के शासन को कारगर दिखाना जरूरी है। तार्किक रूप से इस दरकार पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। जो सवाल आज बुलडोजर न्याय को लेकर अदालत, मीडिया और राजनीति के साथ जनता के कुछ हलकों में खड़े भी हो रहे हैं, उसमें एतराज की जगह समाधान का कोई समझदार मार्ग नदारद है।

सत्ता के साथ सहमति का मसला

इस पूरे मसले पर विचार करने का एक दूसरा सिरा भी है, जो बीते वर्षों और दशकों में भारत और दुनिया के कई देशों में चुनी गईं सरकारों से जुड़ा है। इस मामले में नीदरलैंड्स इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोसाइंस की सोशल न्यूरोलॉजिस्ट एमिली कैस्पर ने एक दिलचस्प शोध किया है। कैस्पर जानना चाहती थीं कि सत्ता के विरोध का निर्णय लोग निर्भीकता से करते हैं, या ऐसा करते हुए वे किसी भय से दबे होते हैं। शोध के नतीजे से यह बात जाहिर हुई है कि अनजाने ही सत्ता के साथ सहमति की मनोवैज्ञानिक स्वाभाविकता हाल के दौर में बढ़ी है। अपने शोध अध्ययन की व्याख्या करते हुए कैस्पर कहती हैं कि बगैर उचित प्रशिक्षण और जागरूकता के लोग सत्ता के खिलाफ अपनी असहमति को खुले विरोध के मोर्चे तक ले जाने से भागते हैं।

कैस्पर के अध्ययन और उसके नतीजे को अगर भारत के मौजूदा हालात से जोड़ कर देखें तो विमर्श का एक नया आधार विकसित हो सकता है। आज जब नरेन्द्र मोदी की विकल्पहीनता पर बहस के कई सिरे एक साथ खुले हैं, तो उसमें लोकतंत्र के कुछ बुनियादी सरोकारों पर नई समझ से विचार करना जरूरी है। कैस्पर ने भी अपने अध्ययन में इस समझ की तरफ इशारा किया है। अंग्रेजी में इस खतरनाक स्थिति के लिए ’टीना’ नाम से एक टर्म काफी लोकप्रिय है, और हालिया सालों में काफी इस्तेमाल में भी रहा है। ’टीना’ यानी ’देअर इज नो अल्टरनेटिव’।

आज जो लोग उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र की राजनीति का नया फलित बांच रहे हैं, वे भी कहने को तैयार नहीं कि आने वाले कम से कम दो दशक में भाजपा भारत की राजनीति के केंद्र से बाहर हो जाएगी। साफ है कि अगर यही स्थिति रहने वाली है तो जाति-समाज और न्याय से लेकर विकास तक विकसित हो रहे नए स्थापत्यों पर एक बड़े स्वीकार के लिए हमें तैयार होना चाहिए। बड़ी बात यह कि यह स्वीकार्यता कहीं से भी यह नहीं दिखाती कि लोकतंत्र की मजबूती या निरंतरता में हम कहीं कमजोर पड़े हैं।

तत्काल कार्यवाही का सवाल

तार्किक लिहाज से देखें तो बुलडोजर न्याय के साथ क्या यह भी विचारणीय नहीं है कि राजनीति के अपराधीकरण के दौर से आगे बढ़कर हम आज उस दौर में हैं, जब कोई राजनीतिक दल या उसका शासन अपराधियों पर तत्काल कार्रवाई की बात करता है। इस संबंध में उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहस का एक प्रसंग खासा रोचक है। पिछले साल 25 फरवरी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उमेश पाल की दिनदहाड़े हत्या को लेकर सदन में नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव के साथ आमने-सामने होने पर उन्होंने कहा, ’मैं माफिया को मिट्टी में मिला दूंगा।’ उन्होंने जिस सख्त लहजे में यह बात कही, वह क्लिप आज तक सोशल मीडिया में वायरल है। योगी ने अखिलेश पर उंगली उठाते हुए कहा कि वह दौर गया जब अपराध को संरक्षण देकर लोग अपनी राजनीति चमकाते थे।

बहरहाल, इस बात से कतई एतराज नहीं कि न्याय हमेशा आलोचना से ऊपर होना चाहिए। साथ में यह भी कि न्याय का विधान और प्रक्रिया सर्व-समावेशी और पूरी तरह तटस्थता की धुरी पर खरी होनी चाहिए। पर व्यावहारिक बात एक यह भी है कि लोकतंत्र के लोकप्रियतावादी ढांचे में सलेक्टिव होने का खतरा हमेशा बना रहता है। यह खतरा त्वरित न्याय के कई मौजूदा प्रसंगों में दिखता और तथ्यात्मक रूप से साबित भी हुआ है। पर बहुमत के शासन के साथ अगर न्याय को लेकर कोई द्रुत प्रक्रिया अपनाई जा रही है, तो वह कम से कम इंसाफ में देरी की निराशा को दूर करने की दिशा में बढ़ा कदम तो है ही।

आधुनिक न्याय के सिद्धांतकार जॉन रॉल्स ने राजनीतिक दर्शन और नैतिकता को लेकर कई महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। रॉल्स एक तरफ तो मानवता को सर्वोपरि मानते हैं, वहीं न्याय को लेकर निरंतरता की बात भी करते हैं। रॉल्स की स्थापना के साथ मौजूदा संदर्भ को देखें तो सबसे आदर्श स्थिति तो मानवीय आदर्श और नैतिकता का व्यापक रूप से असंदिग्ध होना है। पर अगर ऐसा नहीं है तो फिर न्याय को लेकर जड़ता को तोड़ते हुए निरंतरता की तरफ बढ़ना एक जरूरी कार्रवाई है। त्वरित न्याय के मौजूदा दृष्टांत भले आदर्श न ठहराए जाएं, पर लोकतंत्र में यह अपराध के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के लोकप्रिय मॉडल की शक्ल तो अख्तियार कर ही चुके हैं। बीते वर्षों में तमाम राजनीतिक दलों ने अपराधियों के सामने घुटने टेक दिये थे अथवा उनसे साठ-गांठ कर ली थी। योगी आदित्यनाथ ने इस बाडेबंदी को ध्वस्त करने में बहुत हद तक कामयाबी प्राप्त की है और प्रदेश की जनता का बड़े पैमाने पर समर्थन भी प्राप्त है। 

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