सेवा नहीं, ज्ञान प्रदान करता है और ज्ञान आसान रास्तों से अर्जित नहीं होता। ज्ञान साधना है। शिक्षण कला भी है, जो हर ज्ञानी के पास भी नहीं होता। हर डिग्रीधारी उच्च शिक्षा प्रदान करने योग्य नहीं हो सकता। इसलिए शिक्षक की नियुक्ति में चूक करना, समाज को कमजोर करना है। शिक्षा और शिक्षक की विश्वसनीयता और गुणवत्ता बरकरार रहनी चाहिए। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्र
हाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षकों और अकादमिक स्टाफ की नियुक्ति और पदोन्नति हेतु न्यूनतम योग्यता एवं उच्च शिक्षा के मानकों के अनुरक्षण के उपाय, विनियम, 2025 का मसौदा जारी किया गया है, जिसमें नियुक्ति के प्रावधानों में कुछ बदलाव किए गए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के सिद्धांतों के अनुरूप इसका उद्देश्य अकादमिक मानकों को मजबूती प्रदान करना और शैक्षिक उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए मार्ग प्रशस्त करना है, जिससे उच्च शिक्षा के हर पहलू में नवाचार, समावेशिता, लचीलापन और गतिशीलता लाई जा सके। मसौदा अभी सुधार और परामर्श के लिए सार्वजनिक डोमेन में रखा गया है।
प्रस्तावित नियमों के अनुसार अब कोई भी छात्र, जिसके चार साल के स्नातक में 75 प्रतिशत मार्क्स हों, पीएचडी में दाखिला ले सकता है, और पीएचडी के उपरांत वह सहायक शिक्षक नियुक्त होने के योग्य है। यही नहीं, अगर उसके स्नातक या स्नातकोत्तर की डिग्री पीएचडी के विषय से भिन्न भी है, तो जिस विषय में उसने पीएचडी की हो, उस विषय के शिक्षक के रूप में वह नियुक्त हो सकता है यानी अब नेट अनिवार्य नहीं है, और जिस उम्मीदवार के स्नातक या स्नातकोत्तर के विषय उसके नेट परीक्षा के विषय से अलग भी हों तो जिस विषय में उसने नेट परीक्षा उत्तीर्ण की हो, वह उस विषय में शिक्षक बनने योग्य है। अगर किसी उम्मीदवार ने किसी हो तो वैसे लोग भी सहायक शिक्षक नियुक्त किए जा सकते हैं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें नेट या पीएचडी को ही मानक मान लिया गया है, और आप किस विषय में ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन करते हैं, उसे अप्रासंगिक कर दिया गया है। यूं तो यह नियम शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने और उसमें समावेशिता और लचीलापन लाने के उद्देश्य से किया गया है, पर इससे संदेश निकल कर आता है कि आपके कॉलेज की पढ़ाई का आपके ज्ञानवर्धन या आपको किसी विषय में दक्ष बनाने में कोई योगदान नहीं है, या वह जरूरी नहीं है। क्या सालों महाविद्यालय की उच्चस्तरीय शिक्षा के कोई मायने नहीं हैं? क्या सिर्फ एक वस्तुनिष्ठ परीक्षा पास करके कोई किसी विषय की बारीकियों का ज्ञाता हो सकता है? या जिस विषय में आपका शैक्षणिक आधार न हो, उसमें आप अच्छा शोध कर सकते हैं? और बिना उस विषय के गहन अध्ययन के आप शिक्षा प्रदान करने के काबिल हो सकते हैं? सालों किसी विषय के सान्निध्य में रहने के बाद कोई विषय विशेषज्ञ बन पाता है। जब नेट परीक्षा पूरी तरह ऑब्जेक्टिव हो गई थी तब भी सवाल उठे थे कि मानविकी के विषय की गूढ़ता की जांच या भाषा और साहित्य की दक्षता ऑब्जेक्टिव परीक्षा के जरिए कैसे स्थापित की जा सकती है? और अब सिर्फ इस परीक्षा के आधार पर शिक्षक का चयन करना कितना उचित होगा!
एक और बात जो इस मसौदे से स्थापित होती है, वह यह है कि इसमें नियुक्तियों में सिलेक्शन कमिटी को सशक्त कर दिया गया है, जिसके अपने खामियाजे हो सकते हैं। हम देख रहे हैं, देश भर में कितने नियुक्ति घोटाले और प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक के मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में एक चयन समिति के हाथों पूरी चयन प्रक्रिया का निष्कर्ष छोड़ना, निष्पक्षता के नियमों पर खरा नहीं उतरता। खासकर विषय विशेष में उल्लेखनीय योगदान देने वाले उम्मीदवारों का चयन सिर्फ चयन समिति पर छोड़ देना पक्षपात और अपारदर्शिता को न्योता देने के बराबर है। पहले तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि किन विषयों में कितनी सीटें विशिष्ट योगदान वालों को दी जा सकती हैं, और उनके मानदंड तय होने चाहिए, और इस तरह की नियुक्तियां कुछ चुने हुए कोर्सेज में ही होनी चाहिए जिनमें इंडस्ट्री एक्सपीरियंस की जरूरत हो सकती है, पर यह प्रावधान हर विषय और हर अकादमिक स्टाफ की नियुक्ति के लिए होना थोड़ा गैर-जरूरी लगता है खासकर तब जब कई क्वालिफाइड उम्मीदवार अभी भी नौकरी की आस देख रहे हों।
देश में सरकारी नौकरियों के प्रति इतना रुझान है और पद इतने कम कि फोर्थ ग्रेड की नौकरी के लिए भी प्रतियोगी परीक्षाएं होती हैं। किसी महाविद्यालय में सहायक शिक्षक की नौकरी ग्रेड एक लेवल की नौकरी है और आईएएस अधिकारियों का भी यही ग्रेड होता है।
जब एक अधिकारी बनने की प्रक्रिया मुश्किल होती है, और उम्मीदवारों को परीक्षा के कई चरणों से गुजरना होता है, तो सहायक शिक्षक की नियुक्ति प्रक्रिया सिर्फ सिलेक्शन कमिटी पर क्यों छोड़ दी जाती है, जहां प्रतिभागियों की संख्या ज्यादा हो वहां पारदर्शिता और निष्पक्षता कायम रखने के लिए वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन होना जरूरी है, और चयन समितियां व्यक्तिपरक होती हैं। जैसा कि राज्य सेवा आयोग की परीक्षाओं में होता है, उम्मीदवारों की योग्यता के ऑब्जेक्टिव मूल्यांकन पर ज्यादा तरजीह दी जाती है और इंटरव्यू या सिलेक्शन बोर्ड के अंक कम होते हैं। वैसे ही कैंडिडेट के पर्सनल क्रेडेंशियल को महत्व मिलना चाहिए और साक्षात्कार औपचारिकता होनी चाहिए उसके व्यक्तित्व के आकलन के लिए जिसके अंक पूरक होने चाहिए, संपूर्ण आधार नहीं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के तहत वैसे भी कॉलेज के डिग्री कोर्सेज में मुख्य विषय (कोर पेपर्स) कम कर दिए गए हैं, जहां छात्र पढ़ तो 8 पेपर रहा है पर उसके चुने हुए कोर्स के पेपर तीन ही हैं, और उसमें भी उनकी क्रेडिट संख्या 5$3 से 3$1 हो गई है, और बहुविषयी पेपर्स ज्यादा हैं यानी पहले की तुलना में अब कॉलेज छात्रों की अपने विषय की टीचिंग-लर्निंग अवधि कम हो गई है, तो जाहिर है कि उन्हें अपने विषय का ज्ञान प्राप्त करने के कम घंटे मिल रहे हैं, जिससे सब्जेक्ट नॉलेज की कमी हुई है, और शिक्षण की गुणवत्ता पर असर पड़ा है, और कई शिक्षक समूहों ने क्रेडिट आवर्स बढ़ाने की मांग की है। अब शिक्षक नियुक्ति में भी कॉलेज की पढ़ाई को दरकिनार कर दिया जाए तो प्रश्न चिह्न शिक्षक की दक्षता पर ही लग जाएगा।
यही नहीं, अगर किसी भी अकादमिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति कोई भी विषय पढ़ाने के योग्य सिर्फ पीएचडी या नेट परीक्षा के आधार पर हो जाए, तो शिक्षा की क्या विश्वसनीयता रह जाएगी।
इससे महाविद्यालयों के विषय विशेष के शिक्षक पदों की संख्या पर भी असर पड़ेगा। जिस शिक्षा गुणवत्ता को बढ़ाने की बात की जा रही है, वह विशेषज्ञता के पैमाने को ढीला कर के नहीं पाई जा सकती। लचीलापन छात्रों के दिए जाने वाले विकल्पों में बेशक, होना चाहिए पर उनकी दक्षता के पैमानों पर नहीं। एनईपी का बहुविषयी दृष्टिकोण सैद्धांतिक रूप से तो अच्छा है पर इसे फलीभूत करने की कोशिश में विशेषज्ञता के महत्त्व को नहीं नकारा जा सकता। शिक्षण की गुणवत्ता क्षीण न हो इसके लिए, अकादमिक पृष्ठभूमि को तरजीह देना जरूरी है, और इस गुणवत्ता की परख ऑब्जेक्टिव पैरामीटर पर होनी चाहिए जिससे पारदर्शिता कायम रखी जा सके और पक्षपात के अवसर कम हों।
हालांकि अभी ये नियुक्ति के नियम-निर्देश प्रतिक्रिया के लिए खुले हैं, और शिक्षक समुदाय अपने विचार और सुझाव मंत्रालय को भेज ’सकते हैं। उम्मीद है कि सभी सुझावों पर विचार किया जाएगा और सभी बिंदुओं से शिक्षण जगत की चिंताओं पर ध्यान दिया जाएगा जिससे दुरुस्त शिक्षा नीति कार्यान्वित की जा सके। याद रहे कि शिक्षण मात्र पेशा नहीं है, अन्य रोजगारों की तरह सिर्फ नौकरी नहीं है। शिक्षक समाज का निर्माता होता है, चिंतक होता है, प्रेरणा- स्त्रोत होता है। सेवा नहीं, ज्ञान प्रदान करता है और ज्ञान आसान रास्तों से अर्जित नहीं होता। ज्ञान साधना है। शिक्षण कला भी है, जो हर ज्ञानी के पास भी नहीं होता। हर डिग्रीधारी उच्च शिक्षा प्रदान करने योग्य नहीं हो सकता। इसलिए शिक्षक की नियुक्ति में चूक करना, समाज को कमजोर करना है। शिक्षा और शिक्षक की विश्वसनीयता और गुणवत्ता बरकरार रहनी चाहिए।