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आत्मनिर्भरता और विकास का लक्ष्य - घरेलू उद्योगों की मजबूती से दूर होगी बेरोजगारी

‘आत्मनिर्भर-भारत’ की दिशा में देश की यात्रा, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों के निहितार्थ, नवाचार, उद्यमिता और रोजगार के बीच संतुलन जैसे अनेक ज्वलंत आर्थिक मुद्दों पर प्रख्यात सांख्यिकीय संगठन इंडिया स्टेट के लिए अर्थशास्त्री डॉ. अश्वनी महाजन से वरिष्ठ पत्रकार महिमा शर्मा ने लंबी बातचीत की है। डॉ. महाजन ने मौद्रिक चुनौतियों, भारत की अर्थव्यवस्था पर रूपए के मूल्यह्यस के प्रभावों तथा आत्मनिर्भरता के रास्ते तत्काल रोजगार सृजन पर बेबाकी से अपनी राय प्रकट की है। स्वदेशी पत्रिका के पाठकों के लिए प्रस्तुत है साक्षात्कार का संपादित अंश...

 

वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में भारत अपने घरेलू उद्योगों को मजबूत करते हुए आत्मनिर्भरता को कैसे बढ़ावा दे सकता है?

नई आर्थिक नीति के बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों विषेषकर चीन से बढ़ते आयात के कारण हमारा औद्योगिक आधार कमजोर होने लगा। हमारे उद्योगों की गिरावट में सबसे अधिक योगदान चीनी आयात का रहा है। चीन से आयात बढ़ने के कारण हमारे कपड़ा, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स, मषीनरी उपकरण, बिजली, दूरसंचार उपकरण, कागज और कागज के उत्पाद, बुनियादी धातु, परिष्कृत उत्पाद से संबंधित उद्योग सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। कई अन्य मामलों में बेतहाषा आयात के चलते भारत में चल रही फैक्ट्रियों को बंद तक करना पड़ा है। भारतीय उद्योगों के विनाष की यह प्रक्रिया 2001 में चीन के डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के बाद और तेज हो गई। यही कारण है कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी जो वर्ष 1995-96 में 21.26 प्रतिषत थी, में गिरावट आई और 2018-19 में यह नीचे गिर कर 16.35 प्रतिषत पर आ गई।

भारी तादाद में युवा श्रम शक्ति वाले भारत जैसे देष में विनिर्माण क्षेत्र रोजगार और आजीविका के व्यापक अवसर प्रदान कर सकता है लेकिन दुर्भाग्य से न केवल हमने तीन महत्वपूर्ण दषक को दिए, जिसके दौरान हम अपने विनिर्माण को बढ़ावा दे सकते थे, बल्कि हमारे नीति निर्माता इस नुकसान के प्रति उदासीन और असंवेदनषील भी बने रहे। भारतीय उद्योगों को बचाने के लिए आगे आने की बजाय उन्होंने विनिर्मित उत्पादों के आयात के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि सस्ते आयात से हमारे लोगों के लिए कई सामान खरीदना संभव हो जाएगा और इससे उनकी जीवनषैली में भी सुधार होगा।

उल्लेखनीय है कि 2004 से पहले सरकार आयातित विनिर्मित और कृषि वस्तुओं पर भारी शुल्क लगाती थी। वर्ष 1990 में डब्ल्यूटीओ लागू होने से पहले आयात पर औसत भारित टैरिफ 56.36प्रतिषत था। 1992 में जब  डब्ल्यूटीओ वार्ता चल रही थी तब इसे घटाकर 27.01 प्रतिषत कर दिया गया था। साल 1996 आते-आते इसे घटाकर 23.72 प्रतिषत कर दिया गया। मालूम हो कि डब्ल्यूटीओ समझौते वर्ष 1995 में लागू हुए थे वर्ष 2004 में औषध भारित टैरिफ 22.96 प्रतिषत था, 2004 के बाद से सरकारों ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और टैरिफ में लगातार गिरावट जारी रही। वर्ष 2005 में औसत भारित टैरिफ 13.9 प्रतिषत था जो कि 2007 में कम होकर एक 11.99 प्रतिषत हो गया और 2008 में और घटकर यह 5.99 प्रतिषत पर आ गया। सबसे कम औसत भारित प्रेरित 2018 में था जब यह घटकर 4.88 प्रतिषत पर आ गया था। वर्ष 2018 के बाद से सरकार ने आयात की कुछ चयनित वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाने का प्रयास किया जिसमें इलेक्ट्रॉनिक दूरसंचार मोबाइल फोन कपड़ा परिधान और गैर आवष्यक वस्तुएं शामिल थी। इन सारे प्रयासों के बावजूद वर्ष 2020 में औसत भारित टैरिफ 6.19 प्रतिषत ही रहा।

कोविड-19 महामारी के दौरान षिद्दत के साथ यह महसूस किया गया कि देष आयातित वस्तुओं पर निर्भर नहीं रह सकता। देष को कुछ हद तक आत्मनिर्भरता हासिल करने की जरूरत है। इसी सोच के तहत ’आत्मनिर्भर भारत’ का लोकप्रिय कार्यक्रम शुरू हुआ है। सरकार ने उन क्षेत्रों वस्तुओं की एक सूची तैयार की है जो चीन से असामान आयात से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। चीन द्वारा सामानों की भारी मात्रा में डंपिंग, चीन के अधिकारियों द्वारा व्यापार नियमों का उल्लंघन या ऐसे किसी अन्य चालबाजियों से ठीक-ठाक के पड़े भारतीय उद्योगों के पुनरुद्धार के लिए सरकार ने उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना की पेषकष की है।वर्तमान सरकार ऐसे उद्योगों के पुनरुद्धार के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे रही है। सरकार के इन प्रयासों के बहुत उत्साहजनक परिणाम विनिर्माण के इन क्षेत्रों में देखने को मिल रहे हैं कई नई एपीआई विनिर्माण क्षमताएं बनाई जा रही है और देष एक बार फिर एपीआई के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर है यही स्थिति विनिर्माण के अन्य क्षेत्रों की भी है। लेकिन विडंबना पूर्ण है कि एक तरफ विभिन्न उत्पादों के लिए नई क्षमताएं बनाई जा रही है वहीं दूसरी तरफ चीन से आयात बेरोकटोक अब भी जारी है।

भारतीय रुपए की वर्तमान स्थिति और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव के बारे में आप का आकलन किया है रुपए में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के निपटान की अनुमति देने संबंधी भारतीय रिजर्व बैंक के फैसले का असर क्या होगा?

पिछले कुछ समय से अमेरिकी डालर के मुकाबले भारतीय रुपया कमजोर हो रहा है और फरवरी 2022 में रुपया 74.5 रुपए प्रति अमेरिकी डालर से घटकर अब 82 रुपए प्रति अमेरिकी डालर पर आ गया है।

अतीत में रुपया न केवल अमेरिकी डालर के मुकाबले बल्कि यूरो, पाउंड, येन और युआन सहित कई महत्वपूर्ण मुद्राओं के मुकाबले कमजोर हो रहा था। उदाहरण के लिए वर्ष 1991 के बाद से पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले रूपए में 137प्रतिषत, यूरो के मुकाबले 489प्रतिषत और येन के मुकाबले 241प्रतिषत की गिरावट आई है, जबकि यूएसडी के मुकाबले मूल्य हास 252प्रतिषत रहा है। इसका मतलब यह है कि लंबी अवधि में रुपया सभी महत्वपूर्ण मुद्राओं के मुकाबले कमजोर हुआ है।

लेकिन हाल के दिनों में रुपए के अवमूल्यन के रुख में बदलाव आया है फरवरी 2022 से जून 2023 तक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 10.5 प्रतिषत कमजोर हुआ, लेकिन ब्रिटिष पाउंड के मुकाबले केवल 2.4 प्रतिषत और यूरो के मुकाबले 5.1 प्रतिषत की गिरावट आई जबकि जापानी येन के मुकाबले लगभग 9 प्रतिषत की वृद्धि हुई है। पूर्व में जुलाई 2022 से पहले के 5 महीनों में पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले 6.13 प्रतिषत, येन के मुकाबले 10.77 प्रतिषत और यूरो के मुकाबले 4.72 प्रतिषत की बढ़ोतरी हुई थी। चूंकि यूएसडी दुनिया भर की लगभग सभी प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है, इसलिए रुपए की कमजोरी के बजाय विभिन्न मुद्राओं के मुकाबले अमेरिकी डालर की मजबूती के कारणों को समझना हमारे लिए अधिक फायदेमंद है।

जुलाई 2022 में भारतीय रिजर्व बैंक ने एक परिपत्र के माध्यम से भारतीय रुपए में वस्तुओं और सेवाओं के आयात और निर्यात के लिए निपटान की अनुमति दी है।यह रूस और यूक्रेन युद्ध के कारण रूस और ईरान को भुगतान के लिए अमेरिकी डालर के उपयोग पर अमेरिकी प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में एक रणनीतिक निर्णय था। एक अन्य कारण भारतीय निर्यात को बढ़ावा देकर भारतीय रुपए की कमजोरी का समर्थन करना था जिसके परिणाम स्वरूप विदेषी व्यापार में वृद्धि हुई है। इस निर्णय के कारण दुनिया के कई देष जो भारत से आयात करने में रुचि रखते थे और अमेरिकी डालर की कमी के कारण ऐसा करने में सक्षम नहीं थे अब वे अपने आयात के लिए भारतीय रुपए में भुगतान कर सकते हैं। भारतीय रुपए में व्यापार के निपटान की सुविधा के लिए भारतीय बैंकों ने यूके, न्यूजीलैंड, जर्मनी, मलेषिया, इजराइल, रूस और संयुक्त अरब अमीरात सहित 19 देषों के साथ विषेष वोस्ट्रो खाते खोले हैं। रूस की तरह ही इन 19 देषों में से कुछ देष भारत को भारी निर्यात करते हैं और उन्हें उनके निर्यात के लिए भारतीय रुपए में भुगतान किया जाएगा। यह उचित रूप से माना जाता है कि ऐसे देष भारत से अधिक से अधिक उत्पाद आयात करने के लिए अपने भारतीय रुपए के भंडार का उपयोग करने की संभावना रखते हैं। यह भारत से निर्यात को पर्याप्त बढ़ावा दे सकता है जो उनके लिए आवष्यक भारत में उपलब्ध वस्तुओं या सेवाओं की गुणवत्ता और मात्रा के अधीन है। बढ़ते वैश्विक आर्थिक जोखिमों के बीच इस पूरी कवायद से बहुमूल्य विदेषी मुद्रा भंडार बचाने में मदद मिलेगी।

भारतीय रिजर्व बैंक के दिनांक 11 साथ 2022 के परिपत्र के अनुरूप भारतीय रुपए में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निपटान यानी भारतीय रुपए में आयात निर्यात के चालान भुगतान और निपटान की अनुमति देने के लिए विदेष व्यापार नीति में आवष्यक परिवर्तन किए गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के दिषा निर्देषों के अनुसार निर्यात लाभ प्रदान करने और भारतीय रुपए में निर्यात प्राप्तियों के लिए निर्यात दायित्वों की पूर्ति हेतु विदेष व्यापार नीति में भी बदलाव हुए हैं। यह परिवर्तन यह सुनिष्चित करेंगे कि निर्यातक निर्यात प्रोत्साहन के हकदार बने रहें, भले ही उनके निर्यात का भुगतान भारतीय रुपए में किया जाए। इस निर्णय से अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डालर की आवष्यकता कम हो जाएगी और भारतीय रुपए को मजबूत करने में मदद मिल सकती है। इससे मुद्रास्फीति से निपटने और रुपए को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने सहित और भी कई लाभ होंगे।

2000 के नोटों के विमुद्रीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा कृपया लाभ और हानि दोनों बताएं?

पूर्व में 1000 और 500 के बड़े नोटों को बंद करने के नाम पर 2000 का नोट जारी करना नोटबंदी की मूल भावना के ही खिलाफ था। इसीलिए मार्च 2018 में 2000 के नोटों को वापस लेने की शुरुआत की गई थी गौरतलब है कि शुरुआत में चलन में आए 6.73 लाख करोड़ रुपए के 2000 के नोट मार्च 2023 तक घटकर सिर्फ 3.62 लाख करोड़ रुपए रह गए थे। हालांकि सरकार ने 2000 के नोट जारी किए थे लेकिन सरकार का इरादा धीरे-धीरे इन नोटों के प्रचलन को कम करना और अंततः इन्हें पूरी तरह से वापस लेना था रिजर्व बैंक का कहना है कि मार्च 2017 से पहले जारी किए गए कुल 2000 रूपये की नोटों में से 89 प्रतिषत नोट अपनी मियाद पूरी कर चुके हैं और भारतीय रिजर्व बैंक की स्वच्छ नोट नीति के तहत इन्हें वापस लिया ही जाना था। निष्कर्ष है कि 2000 रूपये के नोटों को वापस लेने को अचानक लिया गया फैसला नहीं कहा जा सकता। रिजर्व बैंक का कहना है कि आम जनता के पास 2000 रूपये के नोट बहुत कम है इसका मतलब यह भी है कि प्रचलन में 2000 रूपये के नोट ज्यादातर उन लोगों के पास है जिन्होंने अपना पैसा नगदी (या कहे काला धन) के रूप में रखा है।इसलिए रिजर्व बैंक का कहना है कि इस फैसले से बैंकों की जमा राषि में भारी बढ़ोतरी हो सकती है। इससे सरकार का राजस्व बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था में और अधिक पारदर्षिता भी आएगी।

मुद्रास्फीति से निपटने, अधिक पारदर्षिता लाने, डिजिटलीकरण, अपराध, आतंकवाद, पत्थरबाजी और यहां तक कि नक्सलवाद को नियंत्रित करने, सरकारी राजस्व को बढ़ाने आदि के मामले में नोटबंदी भारत के लिए फायदेमंद रही है। 2000 रुपए के नोटधारक इन्हें अन्य मुद्राओं में बदल सकते हैं। बदलने वालों में से अधिकांष या तो उन्हें बैंक खातों में जमा करेंगे और करों का भुगतान करेंगे या कोई विषिष्ट खपत बढ़ा सकते हैं, इससे अर्थव्यवस्था को लाभ होगा। अर्थषास्त्रियों का मानना है कि इससे बैंक जमा में न्यूनतम एक लाख करोड रुपए की बढ़ोतरी हो सकती है।

बड़ी जनसंख्या प्रमुख चिंता का विषय बन गई है। वर्तमान आर्थिक परिदृष्य में भारत बेरोजगारी और रोजगार सृजन की चुनौतियों का समाधान कैसे कर सकता है?

सबसे पहले हमें यह समझने की आवष्यकता है कि वर्तमान में भारत में चिंता जनसंख्या के आकार को लेकर नहीं है बल्कि हमारे युवाओं की तैनाती की है। विषेष रूप से 15 से 30 वर्ष के आयु वर्ग के युवाओं की संख्या लगभग जनसंख्या का 30 प्रतिषत है। इस जनसंख्या को वरदान माना जाता है और इसे जनसांख्यिकीय लाभांष भी कहा जाता है।

वैश्वीकरण के प्रति नीति निर्माताओं के जुनून के कारण पिछले लगभग 30 सालों में भारत में विनिर्माण क्षेत्र में उल्लेखनीय गिरावट आई है। साथ ही यह मानसिकता भी विकसित हो गई है कि भारत कभी भी विनिर्माण क्षेत्र में दुनिया से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता इसलिए हमें केवल सेवा क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है हम अपनी आवष्यकताओं के लिए विदेषों से वस्तुएं आयात कर सकते हैं। यह मानसिकता विकसित करने का भी प्रयास किया गया कि घरेलू उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ निर्यात बढ़ाने के लिए भी आयात आवष्यक है। व्यापार घाटा बढ़ने और इसके परिणामस्वरूप विदेषी मुद्रा की मांग बढ़ने तथा रुपए के अवमूल्यन के बावजूद हमारे नीति निर्माताओं की सोच में कोई बदलाव नहीं आया।लेकिन करो ना काल के दौरान जब अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो गई और हमें आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए चीन पर निर्भर रहना पड़ा (जो उस महामारी का मुख्य दोषी था), तब देष में ’आत्मनिर्भर भारत’ और ’वोकल फार लोकल’ की एक नई सोच विकसित हुई। महामारी के उस कठिन समय में भारत ने न केवल आवष्यक दवाएं टीका पीपी किट वेंटिलेटर और अन्य चिकित्सा उपकरणों का निर्माण किया बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए वाहन प्रयास शुरू कर दिए।

पिछले कुछ वर्षों में आयात की बड़ी आमद के कारण जो क्षेत्र प्रभावित हुए हैं जैसे एपीआई, इलेक्ट्रॉनिक्स, कपड़ा और परिधान, दूरसंचार, रसायन आदि के साथ-साथ भारत के लिए आवष्यक उद्योगों जैसे सेमीकंडक्टर सोलर पैनल इलेक्ट्रिक वाहन आदि के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं। उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन पीएलआई एंटी डंपिंग शुल्क लगाने तेरी बढ़ाने आदि के जरिए उद्योगों को पुनर्जीवित करने का काम शुरू हुआ है। सरकार अगले कुछ वर्षों में इन सभी पीएलआई पर लगभग 3 लाख करोड रुपए खर्च करने की योजना बना रही है प्रधानमंत्री द्वारा आत्मनिर्भर भारत योजना का कार्यान्वयन और वोकल फार लोकल का नारा वास्तव में इन क्षेत्रों में नई ऊर्जा का संचार कर रहा है।इन ऐतिहासिक प्रयासों को सफल बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जानी चाहिए सरकार को उद्यमियों और युवाओं तक ले जाने के लिए समाज के प्रयासों की जरूरत होगी देष में लगभग 700 औद्योगिक समूह हैं जिनमें से कई आयात के हमले और गैर अनुकूल व्यवसायिक माहौल के कारण विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रहे हैं। कुछ राज्यों में एक जिला और एक उत्पाद योजना भी कई तरह के संकटों का सामना कर रही है ऐसे उद्योगों को पुनर्जीवित करने में बड़ी मदद मिल सकती है।

अपना सतत आर्थिक विकास सुनिष्चित करते हुए भारत मुद्रास्फीति के दबाव को प्रभावी ढंग से कैसे सुव्यवस्थित कर सकता है?

यद्यपि मुद्रास्फीति आम आदमी और व्यवसायियों को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही है फिर भी मुद्रास्फीति की दर दुनिया की अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में काफी कम है। मैन्युफैक्चरिंग हो या सर्विस सेक्टर सभी में तेजी से विकास के संकेत हैं जीएसटी की प्राप्ति यों के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं डॉलर के मुकाबले रुपया थोड़ा कमजोर हुआ है लेकिन यह पहले जैसा नहीं है क्योंकि जब भी भारतीय मुद्रा कमजोर हो रही थी वह दुनिया की सभी प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले कमजोर हो रही थी। लेकिन पिछले 5 महीनों में पाउंड यूरो और इनके मुकाबले रुपया मजबूत हुआ है।रुपए सहित अन्य प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले डालर की मजबूती अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी और वैश्विक उथल-पुथल के कारण है इसीलिए यह माना जा रहा है कि डॉलर की मजबूती अल्पकालिक होगी। भारत के नीति निर्माताओं की मुख्य चिंता महंगाई है भारत में मुद्रास्फीति बहुत लंबे समय तक 3.00 से 4 प्रतिषत के बीच बहुत ही निचले स्तर पर बनी रही, लेकिन हाल ही में गिरावट से पहले कुछ समय के लिए यह 7प्रतिषत के षिखर पर पहुंच गई थी। ऊंची महंगाई के कारण रिजर्व बैंक को नीतिगत ब्याज दरें बढ़ानी पड़ी जिसका असर विकास पर भी पड़ा। मुद्रास्फीति की उच्च दर की स्थिति में सरकार को मुद्रास्फीति पर अंकुष लगाने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे महंगाई से निपटने के लिए कई प्रयास किए गए हैं जिनमें रूस और ईरान से सस्ते दामों पर कच्चा तेल खरीदना देष में कृषि उत्पादन बढ़ाना और सरकार द्वारा पेट्रोल और डीजल पर टैक्स में कमी करना शामिल है इन सभी प्रयासों के कारण भारत में मुद्रास्फीति की दर अमेरिका और ब्रिटेन की तुलना में काफी कम है।

विश्व स्तर पर देष खाद्य मुद्रास्फीति धान की बढ़ती कीमतों और आवष्यक कच्चे माल की बढ़ती कीमतों का सामना कर रहे हैं कुछ हद तक भारत भी से प्रभावित हो रहा है लेकिन कर राजस्व बढ़ाकर और परिणाम स्वरूप राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रयास जारी है इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि भारत मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में सक्षम रहता है तो हम आत्मनिर्भर भारत के प्रयासों के बल पर देष के विभिन्न क्षेत्रों में विनिर्माण को बढ़ावा देकर अपनी जीडीपी और रोजगार दोनों को बढ़ाने में कामयाब होंगे।

नौकरियों के लिए न्यूनतम जोखिम सुनिष्चित करते हुए एआई के माध्यम से भारत में नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए सरकार को क्या भूमिका निभानी चाहिए?

आज भारत के सामने चुनौती न केवल पहली दूसरी और तीसरी औद्योगिक क्रांति में अपने संतोषजनक प्रदर्षन की भरपाई करने की है बल्कि चौथी औद्योगिक क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लेने की भी है। यह सच है कि रोबोटिक्स कृत्रिम बुद्धिमता ड्रोन आदि के कारण रोजगार सृजन में कुछ कमी आ सकती है लेकिन इसकी भरपाई दुनिया में इन तकनीकों में अग्रणी बनकर इसके माध्यम से रोजगार पैदा करके की जा सकती है। हमें यह याद रखना चाहिए कि नई तकनीक के कारण लागत भी कम होती है। उदाहरण के लिए जो कंपनियां कृत्रिम बुद्धिमता रोबोट ड्रोन आदि का उपयोग करती हैं वह अपने लागत कम कर देती हैं लागत कम होने से वह उद्योग बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाते हैं लेकिन नई तकनीक के नाम पर रोजगार के अंदाज और नुकसान को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में नीति निर्माताओं को प्रौद्योगिकी के चयन पर अत्यधिक संवेदनषीलता और गंभीरता से विचार करना होगा।  

https://www.indiastat.com/Socio-Economic-Voices/India-Pursuit-Self-Reliance-Economic-Growth-Strategies-Strengthen-Domestic-Industries-Address-Unemployment
 

 

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