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आधी आबादी पर टूटा कोरोना का कहर

कोरोना की मार यूं तो दुनिया भर के लोगों के ऊपर पड़ी है लेकिन बार-बार होने वाली बंदी का सबसे बड़ा विनाशकारी प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है। — स्वदेशी संवाद

 

झारखंड प्रदेश के जमशेदपुर की रहने वाली तुलसी पढ़ना चाहती है, किंतु कोरोना काल के दौरान मां की नौकरी छूट जाने से आगे की राह मुश्किल थी लेकिन वह जिद करती है और आगे की पढ़ाई के लिए पैसा जुटाने हेतु अपने आम के पेड़ से कुछ गिनती के आम लेकर बेचने निकलती है। कहते हैं जो खुद की मदद के लिए निकलता है उसकी मदद में भगवान भी आते हैं, तुलसी को एक भगवान मिला जिसने उसके एक दर्जन आम सवा लाख रूपये में खरीद लिए।

उत्तर प्रदेश के बहराइच की बबीता का पति पहले लॉकडाउन के दौरान ट्रक से दबकर मर गया, दूसरी लहर में उसकी नौकरी चली गयी। अब तीन बेटियों को पढ़ाने की जिम्मेवारी उसके सिर पर है। बताते हैं कि सोनू सूद इस महिला की मदद के लिए आगे आए हैं।

ऐसे कुछ एक उदाहरण है जो आजकल सोशल मीडिया पर चल रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मदद के लिए लोग मन से आगे आए हैं लेकिन मदद चाहने वालों की तादाद  एक अनार सौ बीमार से कई गुना बड़ी है। कोरोना की मार यूं तो दुनिया भर के लोगों के ऊपर पड़ी है लेकिन बार-बार होने वाली बंदी का सबसे बड़ा विनाशकारी प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है।

ग्लोबल इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट के एक अध्ययन के अनुसार बंदी के कारण नौकरिया गंवाने वालों में महिलाओं का अनुपात पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक है। बंदी हटने के बाद कार्य पर वापसी की दर के मामले में भी महिलाएं पुरुषों से बहुत पीछे है। बंदी के दौरान अनेक शहरी महिलाओं की आय या तो सुन्न हो गई या उसमें भारी कमी आई है। घरों में काम कर अपनी रोजी कमाने वाली महिलाओं की आजीविका इस दौर में छीन गई है। इनमें से अनेक महिलाएं फलों और सब्जियां बेचने जैसे छोटे-मोटे रोजगार कर रही हैं, पर उनकी आय पहले से बहुत कम हो गई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक ‘वर्किंग पेपर जेंडर इक्विटी इन द हेल्थ वर्कफोर्स’ के अनुसार स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्र में 70 प्रतिशत कार्य बल महिलाओं का है। अगर औसत लैंगिक वेतन अंतर निकाला जाए तो यह स्वास्थ्यकर्मियों के लिए 28 प्रतिशत है। इसके बाद भी कोरोना के दौरान नर्सों और शिशु देखभाल कर्मी तथा महिला सफाईकर्मी चुनौतीपूर्ण और कई बार असुरक्षित तथा भयावह परिस्थितियों में अपने दायित्वों का निर्वाह करती रही है। सितंबर 2020 की यूएन वीमेंस रिपोर्ट दर्शाती है कि महिलाएं कोविड-19 के कारण सर्वाधिक प्रभावित आर्थिक क्षेत्रों से संबंध होने के कारण बहुत तेजी से नौकरिया गंवा रही हैं और उनकी आय के स्रोत छीन रहे है। इस रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के कारण वर्ष 2021 के अंत तक 9 करोड़ 60 लाख लोग चरम निधर्नता की स्थिति में पहुंच जाएंगे। इनमें 4 करोड़ 70 लाख महिलाएं होंगी। जुलाई 2020 में आई मैकेंजी की एक रिपोर्ट के अनुसार महामारी के कारण महिलाओं के नौकरिया खोने की दर पुरुषों की तुलना में 1.8 गुना अधिक है। निर्धन महिलाओं की स्थिति और दयनीय है। उनके द्वारा बुरे समय के लिए जमा की गई छोटी-छोटी बचते खर्च हो गई है। सुरक्षित रखे गए थोड़े बहुत पारंपरिक गहने भी बिक चुके हैं। अधिकांश निर्धन महिलाएं सूदखोरों के अंतहीन चक्र में फंस चुकी हैं।

गरीबी है तो भोजन की समस्या ने भी विकराल रूप धरा है। परंपरा के अनुसार सबसे अंत में खाने वाली महिलाओं की थाली आज खाली रहने लगी है। परिवार में सदस्यों की बढ़ती जनसंख्या तथा भोजन आवास की समस्या ने मानसिक तनाव को जन्म दिया है और पुरुष अपनी हताशा महिलाओं के साथ मारपीट के रूप में व्यक्त कर रहे हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2020 में पूर्ण बंदी के दौरान घरेलू हिंसा के आंकड़े में दोगुनी वृद्धि हुई है। इस वर्ष दुनिया भर में 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की लगभग 24 करोड़ 30 लाख महिलाएं अपने नजदीकी लोगों की यौन या शारीरिक हिंसा की शिकार हुई हैं। पुरुषों ने बड़ी संख्या में रोजगार गंवाया, रोजी-रोटी के संकट और भविष्य की अनिश्चितता ने उन्हें उग्र और हिंसक बनाया। महिलाएं हमेशा की तरह इस हिंसा की शिकार बनी और पितृसत्तात्मक सोच से संचालित परिवार की अन्य महिलाएं इन्हें हिंसा पीड़ित होते देखती रही। शहरी महिलाओं की स्थिति भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। विमेन इन टेक्नोलॉजी इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि आईटी टेक्नोलॉजी बैंकिंग तथा वित्तीय क्षेत्र में कार्य करने वाली 21 से 55 वर्ष की अधिकांश महिलाएं घर से काम कर रही हैं और चूंकि बंदी के कारण सभी सदस्य घर पर थे और बाहर कोई सुविधा या सहायक भी उपलब्ध नहीं था, इसलिए उन्हें घरेलू कार्य भी करना पड़ा। मैकेंजी का आकलन है कि भारतीय महिलाओं पर घरेलू कार्य के बोझ में कोविड-19 के दौरान 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

यूनेस्को के अनुमान के अनुसार 1 करोड़ 10 लाख लड़कियां कोविड-19 के कारण अब दुबारा कभी स्कूल नहीं जा पाएंगी। जब लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं तो उसका क्या परिणाम होता है- जल्द और जबरन विवाह, किशोरावस्था में गर्भधारण करने की मजबूरी और अंतहीन हिंसा का सामना। कोविड-19 के कारण स्कूल बंद है। घर पर ही डिजिटल माध्यम से पढ़ाई चल रही है, मगर लड़कियां तो उन घरों में भी डिजिटल संसाधनों से वंचित रखी जाती हैं, जहां इनकी उपलब्धता है। लड़कों का इन पर पहला अधिकार होता है। ग्रामीण इलाकों में हम इन लड़कियों को खेतों में माता-पिता की मदद करते देखते हैं और शहरों में अपने परिवार के छोटे-मोटे काम धंधे में हाथ बटाते हुए भी पाते हैं। कोविड-19 इनके जीवन में शिक्षा का न मिटने वाला अंधकार लाने वाला है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी महिलाओं के लिए हताशाजनक परिस्थितियां हैं। कोविड-19 प्रसूति पूर्व की देखरेख, प्रसव और प्रस्वोत्तर सावधानियों के पालन में अकल्पनीय कठिनाई हुई है, क्योंकि अस्पताल कोविड-19 से निपटने में लगे थे और इनके अन्य विभाग या तो बंद थे या बहुत सीमित क्षमता के साथ कार्य कर रहे थे। यही स्थिति शिशुओं के उपचार और उन्हें पोषक आहार एवं सीटों की उपलब्धता के संबंध में है। इन क्षेत्रों में हम वैसे ही विकसित देशों से बहुत पीछे हैं और कोविड-19 ने महिलाओं के स्वास्थ्य को और संकट में डाल दिया है।

मार्च 2021 में वर्ल्ड इकोनामिक फोरम द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट कोविड-19 के विनाशकारी प्रभाव का आकलन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि लैंगिक समानता के लिए महिलाओं को अब एक और पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी होगी। कोविड-19 के दुष्प्रभाव के कारण लैंगिक समानता का लक्ष्य 99.5 वर्षों के बजाय 135.6 वर्षों में प्राप्त किया जा सकेगा।

कमोबेश यही स्थिति आर्थिक क्षेत्र की भी है। परंतु लिंग आधारित आंकड़े एकत्र करने का न तो कोई तंत्र पहले था, न बनाने की कोई कोशिश हो रही है। जो भी आंकड़े आ रहे हैं वे स्वतंत्र संस्थाओं के हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के अनुसार महिलाओं की बेरोजगारी दर छलांग मारकर 17 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो पुरुषों से दोगुने से अधिक है। द नाज फाउंडेशन का एक सर्वे बताता है कि भारत में महिलाओं की साप्ताहिक आय में बंदी के कारण 76 प्रतिशत की कमी देखी गई है। डिलायड का आकलन है कि कोविड-19 के बाद भारत में लैंगिक समानता तेजी से बढ़ेगी, लिंग भेद को प्रश्रय देने वाली व्यवस्था द्वारा पारंपरिक रूप से महिलाओं और पुरुषों के लिए जो भूमिका निर्धारित की गई है, कोरोना से संघर्ष को हमारी रणनीतियों में उन्हें यथावत रखकर एक तरह से उनका अनुमोदन ही किया गया है।

विशेषज्ञों की मानें तो कामकाजी महिलाओं के लिए परिवर्तनशील और लचीले कार्य घंटे छुट्टियों के सहानुभूति पूर्ण विकल्प तथा बच्चों की देखरेख एवं स्कूली शिक्षा की बेहतर व्यवस्थाएं इनकी परेशानियों को कम कर सकती हैं। परंतु घरेलू हिंसा के मद्देनजर तत्काल कानूनी की स्थिति और मनोवैज्ञानिक सहायता देने के लिए न केवल आपात सेवाओं की शुरुआत करनी होगी, बल्कि यह सुनिश्चित करना होगा कि वे सुचारु रुप से चलें। जब स्कूल दोबारा खुलेंगे तब लड़कियों को वापस स्कूल तक लाने के लिए सरकार और सामाजिक संगठनों को भी प्रभावी प्रयास करने होंगे।

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