swadeshi jagran manch logo

लोकतंत्र पर खतरे की छद्म रपटें

स्वीडन की उस एजेंसी की समझ पर सवालिया निशान लगता है कि भारत जैसे देश जहां हर छः माह में कोई न कोई बड़ा चुनाव होता है और शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता हस्तांतरण होता है, ऐसे देश को पाकिस्तान जैसे देश के साथ तुलना करना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। — डॉ. अश्वनी महाजन

 

पिछले कुछ समय से भारत में लोकतंत्र के तथाकथित गिरावट की रपटें कुछ ‘खास’ अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से आ रही हैं। हाल ही में स्वीडन की एक एजेंसी वी-डैम (वैरायटी ऑफ डेमोकरेसी) इंस्टीच्यूट ने रपट प्रकाषित की है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं, चुनावी निरंकुश देश बन गया है। इंस्टीच्यूट ने मीडिया के साथ दुर्व्यवहार और मानहानि और देशद्रोह के कानूनों के ज्यादा इस्तेमाल को अपनी इस रपट का आधार बनाया है। 

गौरतलब है कि इससे एक सप्ताह पहले अमरीका की एक एजेंसी ‘फ्रीडम हाउस’ ने भारत की स्थिति को नीचे गिराकर ‘पार्टली फ्री’ यानि ‘आंशिक स्वतंत्र’ कर दिया था। एजेंसी का मानना है कि वर्ष 2013 में भारत का स्कोर सबसे अधिक 0.75 था, जो 2020 के अंत तक घटकर 0.34 ही रह गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रैंकिंग में ये सब गिरावट 2014 से नरेन्द्र मोदी की बीजेपी सरकार के आने के साथ शुरू हुई। यहां तक कहा गया है कि भारत सरकार ने राष्ट्रद्रोह, मानहानी और आतंकवाद के कानूनों का बेजा इस्तेमाल करते हुए अपने आलोचकों को चुप कराने की कोशिश की है। 

सबसे मजेदार बात तो यह है कि इस रपट में भारत को पाकिस्तान के बराबर रख दिया गया है और उनकी माने तो बंगलादेश और नेपाल भारत से ऊपर हो गए हैं। रिपोर्ट का कहना है कि विश्व में अब मात्र 32 देश ही मुक्त लोकतंत्र बचे हैं, जो संख्या एक दशक पहले 41 थी। वैश्विक तौर पर लोकतंत्र का स्तर 2020 तक आते-आते 1990 के स्तर तक पहुंच गया है। दिलचस्प बात यह है कि यह रिपोर्ट मानती है कि चुनावी निरंकुश लोकप्रिय शासक बने हुए है। रिपोर्ट का कहना है कि निरंकुशता 25 देशों में फैली है जहां दुनिया की जनसंख्या का एक तिहाई यानि 260 करोड़ लोग रहते हैं। इन देशों में ब्राजील, भारत, टर्की और अमरीका शामिल है। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में मोदी सरकार को चुनावी निरंकुश मानने वाली यह रपट खुद स्वीकार कर रही हैं कि मोदी अत्यधिक लोकप्रिय हैं। इस बात की पुष्टि बार-बार हो रहे ओपिनियन पोल के माध्यम से भी सिद्ध होती है। इसका मतलब यह है कि देश में अधिकांश लोग यह मानते हैं कि इस सरकार की नीतियां सही दिषा में है। जहां तक अपने आलोचकों पर राष्ट्रद्रोह और मानहानि के कानूनों के तहत कार्यवाही करने से ये एजेंसियां इस सरकार को निरंकुष मानने लगी हैं, तो यह समझने की जरूरत होगी कि भारत की वर्तमान परिस्थितियों में क्या यह वास्तव में सच है या नहीं। 

रिपोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने को आधार बनाया गया है। देखा जाए तो नागरिकता संशोधन कानून लाने के पीछे स्पष्ट मंशा भारत के किसी पंथविशेष के खिलाफ मानी ही नहीं जा सकती। नागरिकता संशोधन कानून लाने के पीछे मंशा तो यह है कि पूर्व के अविभाजित भारत में रहने वाले गैर मुस्लिम नागरिकों, जिन्हें पाकिस्तान और बंगलादेश में धार्मिक कट्टरता, विद्वेश और आतंक के कारण मुसीबतों से गुजरना पड़ रहा था, और जिन्होंने इस कारण से भारत में शरण ले ली थी, उन्हें भारत की नागरिकता दी जाए। ऐसे में विरोधियों का यह कहना कि पाकिस्तान और बंगलादेश के मुस्लिमों को भी भारत में शरण लेने का बराबर अधिकार हो, इसे किसी भी हालत में औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे उन देषों में अधिसंख्य वर्ग में आते हैं और उनके प्रताड़ना के कोई उदाहरण भी नहीं हैं। ऐसे में भारत के मुस्लिमों को भड़काकर जो आंदोलन किया गया, उसे भी देश की जनता ने महीनों तक झेला और सरकार ने भी उसमें कोई रूकावट भी नहीं डाली। 

लेकिन उस विरोध की आड़ में जब कुछ राजनीतिक दलों के कुछ व्यक्तियों ने हिंसा भड़काने का काम किया तो ऐसे में नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा सुनिष्चित करने हेतु, हिंसा में लिप्त लोगों के खिलाफ सरकार द्वारा उठाए गए विधिसम्मत कदमों के कारण उसे चुनावी निरंकुष घोषित कर दिया जाए, यह किसी भी हालत में औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। यहां फ्रांस का उदाहरण उल्लेखनीय है, जब संप्रदाय विषेष के एक व्यक्ति द्वारा धर्मांघता के कारण एक नागरिक का कत्ल कर दिया गया, तो फ्रांस सरकार ने उस संप्रदाय विशेष के खिलाफ कई प्रतिबंध लगा दिए। लेकिन आश्चर्य का विषय यह है कि स्वीडन की इस एजेंसी ने फ्रांस के उस मामले का जिक्र तक नहीं किया। 

यदि नजदीक से देखा जाए तो कुछ पत्रकारों और अन्य व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही जरूर हुई है। लेकिन यह कानूनी कार्यवाही बिना कारण से नहीं हुई। एक पत्रकार (जिसे अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा) के खिलाफ कार्यवाही इसलिए हुई क्योंकि उसने बिना कारण यह समाचार प्रसारित कर दिया कि किसान आंदोलन के समय एक किसान की पुलिस की गोली के कारण मृत्यु हो गई। इसके कारण हिंसा भड़क सक सकती थी। जबकि सत्य यह था कि वो किसान खुद अपनी गलती से दुर्घटनावष मृत्यु को प्राप्त हो गया था। इसी प्रकार कुछ तथाकथित ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ के खिलाफ कानूनी कार्यवाही इसलिए हुई क्योंकि वे या तो स्वयं हिंसा में लिप्त थे या हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे थे। 

अपने देश में लाखों की संख्या में गैर सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं। उनमें से अनेकों गृह मंत्रालय की अनुमति के साथ विदेशी फंडिंग की प्राप्त करती हैं। देश में विकास एवं गरीबों वंचितों के उत्थान हेतु विदेशी सहायता सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं प्राप्त करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से यह महसूस किया जाता रहा है कि कुछ गैर सरकारी संस्थाएं विदेशी फंडिंग प्राप्त कर विदेशी ताकतों का एजेंडा आगे बढ़ा रही हैं। कई स्थानों पर विकास के प्रोजेक्ट रोकने, धर्मांतरण करवाने, देश विरोधी आंदोलनों को हवा देने समेत कई आपत्तिजनक कार्यों में संलग्न हैं। ऐसी संस्थाओं की विदेशी फंडिंग की तहकीकात करने के बाद लगभग लगभग 15000 एनजीओ की विदेशी फंडिंग के लाइसेंस पर रोक लगाई गई है। कई विदेशी एजेंसियां जो वैश्विक स्तर पर झूठ फैलाने का काम करती हैं वे  भी स्वीडन की वी-डैम इंस्टीच्यूट और अमेरिका की फ्रीडम हाउस जैसे संस्थाओं की रपटों को प्रभावित कर रही हैं।

किसी भी देश में कानून और व्यवस्था बनाए रखना सरकार का दायित्व होता है। उस कानून व्यवस्था में बाधक किसी भी व्यक्ति के खिलाफ विधिसम्मत कार्यवाही करना सरकार का कर्तव्य होता है। लेकिन पिछले कुछ समय से कुछ अराजक तत्व अनावश्यक रूप से देश की जनता को गुमराह ही नहीं कर रहे बल्कि देश की आंतरिक सुरक्षा एवं कानून और व्यवस्था के लिए बाधा बन रहे हैं। यही नहीं आम जनता को भी उसके कारण असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है। विरोध और आंदोलन ये दोनों लोकतांत्रिक व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं। लेकिन ये दोनों कानून के दायरे में बिना लोगों को असुविधा दिए, कानून और व्यवस्था और शांति बनाए रखते हुए होने चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में सामाजिक ताने-बाने को भंग करने, धर्म और जाति के आधार पर हिंसा करने, हिंसा को बढ़ावा देने को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे में बिना इस बात की तह में जाए कुछ लोगों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही को यह कहकर अलोकतांत्रिक नहीं ठहराया जा सकता कि वे पत्रकार हैं या राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। दिल्ली हिंसा के दौरान कुछ राजनीतिक दलों द्वारा पहले एक राजनीतिक दल के जन प्रतिनिधि के विरूद्ध कार्यवाही किए जाने के खिलाफ राजनीतिक माहौल बनाने का प्रयास किया गया। सरकार द्वारा ऐसे हिंसक तत्वों के खिलाफ कार्यवाही लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है बल्कि धर्म पर आधारित हिंसा किए जाने के आरोप सिद्ध हो जाने के बाद भी उस राजनीतिक दल की चुप्पी वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरा है। ऐसे अनेक उदाहरण पिछले कालखंड में मिलते हैं।

अच्छा हो राजनीतिक दल मुद्दों के आधार पर राजनीति करें, किन्हीं वर्गों के तुष्टिकरण की राजनीति देष की एकता और अखंडता के लिए खतरा उत्पन्न करती है। राजनीतिक दल सरकार की नीतियों का समुचित रूप से विष्लेषण करें, नए कानूनों के प्रभावों पर राष्ट्रीय बहस हो, लोक कल्याण हेतु नीतियां बने और अच्छी नीतियों के लिए सरकार का समर्थन हो और गलत नीतियों की आलोचना भी हो, तभी अपना लोकतंत्र और पुष्ट हो सकता है। लोकतंत्र के नाम पर हिंसा और कानून व्यवस्था पर चोट की अनुमति नहीं दी जा सकती। समझना होगा कि हमारे देष में पिछले 70 सालों से ज्यादा समय में (आपातकाल के 19 महीनें छोड़) लगातार निर्विघ्न शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव होते रहे और सरकारें बनती-बिगड़ती रही। कभी भी सेना का शासन नहीं आया। ऐसे में स्वीडन की उस एजेंसी की समझ पर सवालिया निषान लगता है कि भारत जैसे देष जहां हर छः माह में कोई न कोई बड़ा चुनाव होता है और शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता हस्तांतरण होता है, ऐसे देष को पाकिस्तान जैसे देष के साथ तुलना करना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।      

लेखक-प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

Share This

Click to Subscribe