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कठिन समय के लिए खास है आम बजट

स्वास्थ्य के मद में अपेक्षित बढ़ोतरी स्वागत योग्य कदम है। कोरोना काल में जिस प्रकार से भारतीय चिकित्सा पद्धतियों ने अपना लोहा मनवाया है तथा कोरोना से बचाव हेतु दवाइयां, वैक्सीन, पीपीई किट, वेंटिलेटर आदि का निर्माण जिस राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुआ है, वह निसंदेह आत्मनिर्भर भारत बनाने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा। — दुलीचंद कालीरमन

 

वित्त वर्ष 1921-22 का आम बजट कोरोना वायरस के कारण पैदा हुई प्रतिकूल परिस्थितियों में पेश किया गया। इसलिए इस बजट की सबसे बड़ी प्राथमिकता महामारी के कारण मंद पड़ी अर्थव्यवस्था को गति देना ही है। यदि हम शेयर बाजार के सूचकांक को इसका एक परीक्षण घटक माने तो जाहिर तौर पर आम बजट इसमें कुछ हद तक सफल रहा है।

कोरोना महामारी से भारतीय अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचाया है, इसका अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि पहली ही तिमाही में लॉकडाउन के दौरान अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत तक की कमी आई थी, जो बाद की तिमाही में 7.5 प्रतिशत रही। 34.3 लाख करोड़ के बजट प्रावधानों द्वारा आगामी वित्त-वर्ष में 11 फ़ीसदी की विकास दर की सुनहरी तस्वीर दिखाने का प्रयास किया गया है।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि महामारी के दौरान राजकोषीय व्यय ज्यादा हुआ, जबकि वित्तीय स्त्रोत संकुचित हो गए। जिससे राजस्व प्राप्तियों पर प्रतिकूल असर पड़ा। ऐसी विकट परिस्थितियों में ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां जैसे रेलवे, यातायात, बाजार, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बस, थिएटर, शिक्षण संस्थान व अन्य असंगठित क्षेत्र की गतिविधियां ठहर सी गई थी। कामगारों का अपने घरों को पलायन तथा उद्योगों को पुनः शुरू करने में कुशल कामगारों की कमी भी आड़े आई। क्योंकि कुछ कामगार गांव से वापस नहीं लौटे तथा वहीं कृषि क्षेत्र में समायोजित हो गए। कृषि क्षेत्र पर कोरोना की मार नहीं पड़ी, इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने प्रवासी मजदूरों को भी समायोजित कर लिया। लेकिन यह परिस्थितियां लंबे समय तक लाभप्रद नहीं रह पाएंगी।

बढ़ती बेरोजगारी को संभालने के लिए केंद्र सरकार को पूंजीगत व्यय में वृद्धि करने के लिए अतिरिक्त राजस्व की जरूरत थी। जिसे प्राप्त करने का एक आसान रास्ता करो में वृद्धि होती। लेकिन इस विषम परिस्थिति  में यह एक प्रतिगामी कदम होता, क्योंकि कोरोना की मार हर नागरिक की जेब पर भी पड़ी है। सरकार ने बिना कोई अतिरिक्त कर का बोझ आम आदमी पर डाले अतिरिक्त राजस्व प्राप्ति के लिए विनिवेश को माध्यम चुना। सरकार ने अधोसंरचना पर खर्च के लिए 1.7 लाख करोड़  रुपए विनिवेश तथा निजीकरण के माध्यम से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि गत वर्ष विनिवेश के माध्यम से मात्र 20,000 करोड रुपए के लक्ष्य को 1.75 लाख करोड़ तक लाने को अमलीजामा पहनाना चुनौती भरा कार्य है। सरकार कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों और बैंकों को निजी क्षेत्र में देने पर विचार कर रही है।

विनिवेश और निजीकरण पर वर्ष 1991 से अभी तक आम सहमति नहीं बन पाई है। मुख्य राष्ट्रीय पार्टियां अपनी सुविधा अनुसार उनका विरोध और समर्थन करती है। सत्ता से बाहर (विपक्ष) में होते हुए यह देश को बेचने के बारे में नारे लगाते हैं तथा जब सत्ता में आते हैं तो इसे जवाबदेही और गुणवत्ता के नाम पर सही बताने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अब आम आदमी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं चाहता है, चाहे वह निजी क्षेत्र से हो या सार्वजनिक क्षेत्र से।

रोजगार के मोर्चे पर अगर देखें तो स्थिति गंभीर है। किसी भी सरकार के लिए हर व्यक्ति को सरकारी नौकरी दे पाना असंभव है। स्वरोजगार, स्टार्टअप तथा सूक्ष्म-लघु और मध्यम उद्योग (एसएमई) ही भारत की इस चुनौती से निबटने के सहायक हो सकते हैं। स्टार्टअप को कर में छूट देना एक स्वागत योग्य कदम है। जिससे आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण बदलाव आएंगे।

किसान आंदोलन के कारण कृषि एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। नए कृषि क़ानूनों को लेकर पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के  मन में एमएसपी को लेकर भ्रम की स्थिति है। प्रधानमंत्री संसद में तथा संसद से बाहर कई बार कह चुके हैं कि एमएसपी था, एमएसपी है तथा एमएसपी भविष्य में भी रहेगा। अगर बजट के आंकड़ों पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि वर्ष 2013-14 में गेहूं की खरीद में जहां 33.8 हजार करोड रुपए खर्च किए गए, वहीं वर्ष 2020-21 में यह राशि बढ़कर 75.6 हज़ार करोड़ हो गई। सरकार ने वित्त वर्ष 2021-22 में  16.5 लाख करोड रुपए कृषि-ऋण के लिए आवंटित किए हैं। ग्रामीण बुनियादी ढांचा विकास के मद में भी 10,000 करोड की बढ़ोतरी कर इसे 40,000 करोड कर दिया है। नाबार्ड के माध्यम से भी लघु सिंचाई परियोजनाओं के लिए 5,000 करोड़ की राशि आवंटित की गई है। पूरे भारत के लिए यह राशि पर्याप्त नहीं है, लेकिन कोरोना की विषम परिस्थितियों में कई मोर्चों पर हमें समझौता करना पड़ा है। 

कृषि क्षेत्र में सुधार अब वक्त की जरूरत बन गई है। कृषि को एक नए दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है ताकि निजी क्षेत्र को साथ लेकर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को सुधारा जा सके। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की अपनी महत्वकांक्षी घोषणा को दोहराया है। लेकिन कृषि सुधारों की इस घोषणा में क्या भूमिका रहेगी यह भविष्य ही तय करेगा।

सरकार को बुनियादी ढांचे के विकास हेतु अतिरिक्त खर्च करने की जरूरत है। जिससे ’इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में सरलता के साथ-साथ अतिरिक्त रोजगार का सृजन किया जा सकेगा। इससे घरेलू तथा अन्य संस्थागत निवेशकों को भी निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा।

चीन के प्रति दुनिया भर में बढ़ती नकारात्मकता का लाभ उठाने के लिए सरकार को निर्यात संवर्धन की दिशा में बाधाओं को कम करके निर्यात प्रोत्साहन पर विशेष बल देना होगा। इसके अतिरिक्त कच्चे माल व आयात के विभिन्न पहलुओं पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। ताकि उन आयातों का विकल्प घरेलू स्तर पर तैयार किया जा सके और ’आत्मनिर्भर-भारत’ का सपना यथार्थ के धरातल पर उतारा जा सके।

स्वास्थ्य के मद में अपेक्षित बढ़ोतरी स्वागत योग्य कदम है। कोरोना काल में जिस प्रकार से भारतीय चिकित्सा पद्धतियों ने अपना लोहा मनवाया है तथा कोरोना से बचाव हेतु दवाइयां, वैक्सीन, पीपीई किट, वेंटिलेटर आदि का निर्माण जिस राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुआ है, वह निसंदेह आत्मनिर्भर भारत बनाने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा। यह आत्मविश्वास भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए एक उदाहरण पेश करेगा। 

(लेखक पूर्व सैनिक है तथा वर्तमान में शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हुए है। समसामयिक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर निरंतर लिखते रहते है।)
 

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