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कृषि उपज बाज़ार प्रणाली में सुधार जरूरी

सरकार ही समर्थन मूल्य पर खरीददारी करती रहे, यही किसान की जरूरत है। सरकार की भी अपनी मर्यादा है, क्योंकि समर्थन मूल्य व्यवस्था सरकार की खर्च करने की ताकत और भंडारण की व्यवस्था से जुड़ी है। इसीलिए सरकार ने अलग से किसानों के खाते में पैसे डालकर इसको सुलझाने का प्रयास किया है। — अनिल जावलेकर

 

आजकल कृषि उपज बाजार चर्चा में है। सरकार ने हाल ही में कृषि उपज बाजार प्रणाली को दुरूस्त करने के लिए कुछ नये कानून पारित किये है, जिससे किसान को सहूलियत की संभावना है। लेकिन इसका विरोध हो रहा है। कृषि उपज बाजार में बदलाव ब्रिटिशों के जमाने से हो रहे है। आज तक के बहुत सारे सुधार कृषि उपज बाजार समिति के तहत चलने वाले व्यापार से संबंधित थे। यह पहली बार हुआ है कि समिति में हो रहे व्यापार के अलावा किसान को यह स्वतंत्रता देने की कोशिश की गई है कि वो अपना कृषि उत्पादन समिति के बाहर और किसी को कही भी बेच सकता है। वैसे यह कुछ नया नहीं है। कृषि उपज बाजार समिति में कार्यरत व्यापार भी कुछ सरकारी नहीं था। वहाँ भी निजी व्यापारी ही व्यापार करते है। फर्क सिर्फ इतना है कि वे परवाना धारक है। कृषि उपज बाजार व्यवस्था किसान को लाभ देने में असमर्थ रही है, यह बात नकारी नहीं जा सकती। इसमें सुधार की जरूरत थी, यह बात समझने की है। वैसे भी सुधार एक जीवन की आवश्यकता है। जो कूड़ा बन चुका है उसको फेंका जाएगा और नई बातें आती रहेंगी। 

कृषि और किसान लूटते रहे है 

कृषि उपज बाजार व्यवस्था किसी भी दृष्टि से कभी किसानों के फायदे की नहीं रही। किसान और उसका उत्पाद हमेशा से लूटता आया है। लूटते किसान आंदोलित होते रहे, लेकिन बहुत कुछ नहीं हो पाया। ब्रिटिश तो खैर व्यापार के लिए ही आए थे और उन्होंने व्यापार के जरिये ही कृषि को लूटा। कृषि उत्पन्न बाजार सुधार भी उन्होंने अपने फायदे के लिए किए। वे चाहते थे कि भारतीय कृषि उत्पाद अच्छा और सस्ते दाम पर उनको मिलता रहे। कपास में उनकी दिलचस्पी को सभी जानते है। कृषि उत्पन्न बाजार समिति की बात ब्रिटिशां के राज में चली, लेकिन उस पर अमल स्वतंत्रता के बाद हुआ। 

कृषि उपज बाजार समिति 

किसानों को यह एक बाजार उपलब्ध कराने की बात थी, जिसमें किसान अपना कृषि माल लाये और बेचें। कुछ व्यापारियों को यहां सहूलियत और परवाना दिया गया और आशा की गई कि वे किसान के उत्पाद को ठीक दाम देंगे। कृषि समितियों से भी अपेक्षा थी कि किसानों को सभी आवश्यक सुविधा उपलब्ध कराये, जिससे किसानों के माल की सुरक्षा हो और बेचने के लिए जगह मिले तथा माल को साफ करने, सुखाने और गुणवत्ता तय करने की सुविधा भी वहां हो। समितियों में व्यवहार पारदर्शी होने की भी उम्मीद थी। भारत के लगभग सभी राज्यों ने कृषि उत्पन्न बाजार समितियों के लिए 1960-70 के दशक में कानून बनाए और सभी दृष्टि से समितियों को कार्यरत किया। समितियों की कमजोरी यह रही कि जितना और जैसा चाहिए था, वैसा उनका विस्तार नहीं हो पाया और जितनी सुविधा देनी थी, वह भी नहीं दी गई। अपेक्षा थी कि किसान को 5 किलोमीटर के अंदर यह सुविधा मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। फिर परवाना धारक व्यापारियों का भी एकाधिकार बढ़ता गया और व्यापार पारदर्शी नहीं रहा। कीमतें तय करने में किसान की भूमिका नहीं थी और इन व्यापारियों के भरोसे सब व्यापार चलता था। किसान इस व्यवस्था में भी लाभान्वित नहीं हुआ और उसमें उब-सा गया। इससे इस बाजार व्यवस्था में सुधार जरूरी हो गए। 

समर्थन मूल्य द्वारा किसानों को फायदा देने की कोशिश 

साम्यवादी देशों की तरह भारत सरकार ने बाजार पूर्ण रूप से नियंत्रित कभी नहीं किया। व्यापार निजी क्षेत्र में रहा। जहां जरूरी हो, वहां सरकार हस्तक्षेप जरूर करती रही। ऐसा करते वक्त सरकार की यह कोशिश रही कि व्यवस्था छोटे किसान के लिए फायदेमंद हो। जब सरकार को लगा कि बाजार व्यवस्था किसान को मुनाफा नहीं दे सकती, तो सरकार ने समर्थन मूल्य की संकल्पना लायी और उसे अमल में लाने के लिए एफ़सीआई और नाफेड जैसी संस्थाओं को जन्म दिया। उसके द्वारा सरकार कुछ फसलों के लिए समर्थन मूल्य जाहिर करती रही और जब फसल आती तो उसको उस समर्थन मूल्य पर खरीदती रही। इस व्यवस्था से किसान को अपने उत्पाद की कीमत मिल जाती है। इस व्यवस्था में कुछ क्षेत्र के किसानों ने अच्छा फायदा उठाया। जैसे कि पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश इत्यादि। लेकिन इस योजना से बाकी प्रांतों के किसान वंचित ही रहे। 

डिजिटल बाजार का प्रयोग 

कृषि उत्पन्न बाजार समिति का एकाधिकार कम करना जरूरी हो गया और इसी दरमियान तंत्र ज्ञान विकास का फायदा लेते हुए सरकार ने डिजिटल मार्केटिंग को बढ़ावा दिया और एक ई-नाम का प्लेटफार्म शुरू किया। आज यह प्रयोग कामयाब होता नज़र आ रहा है। यह एक ऐसी अतिरिक्त बाजार व्यवस्था है जिसके जरिये किसान अपने कृषि उत्पाद घर बैठे बेच सकता है और खरीददार भी घर बैठे खरीद सकता है। सरकार ने कोशिश की है कि इस प्लेटफार्म को विविध बाजार से जोड़ा जाये। अब तक 18 राज्य और 3 केंद्र शासित प्रदेश के 1000 से ज्यादा होलसेल बाजार इससे जुड़ चुके है। 31 अगस्त 2020 तक 1.67 करोड़ किसान, 1.44 लाख व्यापारी, 84 हजार कमीशन एजेंट और 1722 किसान उत्पाद संघ (थ्च्व्े) इस प्लाटफार्म से जुड़ चुके थे। यह एक उपलब्धि मानी जाएगी, जिसने किसान को एक बेहतर और वैकल्पिक बाजार उपलब्ध कराया। 

कृषि उपज बाजार समिति एकमात्र बाजार नहीं हो सकता

बदलती दुनिया में एक तरफ तंत्र ज्ञान बेशुमार गति से बढ़ रहा है और दूसरी ओर जाग्रतिकरण कमजोर पड़ रहा है। कोरोना ने सभी देशों को आत्मनिर्भरता को अपनाने के लिए मजबूर किया है। व्यापार की व्यवस्था भी बदल रही है। ऑनलाइन व्यापार बढ़ रहे है और आवश्यक भी हो गए है। ऐसे समय में किसान को एक ही व्यापार व्यवस्था से जोड़कर रखना अव्यावहारिक होगा। समय के साथ चलना जरूरी है और इसलिए कृषि उत्पन्न बाजार समिति का एकाधिकार समाप्त होना स्वाभाविक है। कृषि में नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी आ चुकी है और किसान भी अब कृषि बाजार को समझने लगा है। पहले जैसे जानकारी के स्रोत भी सीमित नहीं रहे। डिजिटल और सोशल मीडिया की वजह से हर बात की जानकारी अपने मोबाइल पर मिल जाती है। सरकार भी अपनी तरफ से कृषि उत्पाद की तथा कृषि व्यापार संबंधित जानकारी किसानों तक पहुंचा रही है। कई संस्थाएं भी इसमें हाथ बटा रही है। कई मोबाइल एप्लीकेशन भी उपलब्ध कराये जा रहे है, जिसके जरिये किसान अपने व्यापार ठीक से कर सके। इसका परिणाम किसान को अपनी फसल कहा बेचनी चाहिए, कितने दाम पर बेचनी चाहिए या किस तरह उपज की गुणवत्ता बनाए रखनी है, इसका ज्ञान होता जा रहा है। इससे किसान खुद अपना व्यापार करने में सक्षम होता दिखाई दे रहा है। बाजार समिति और उनके परवाना धारक व्यापारियों तक अब अपना व्यापार सीमित रखने की किसान को जरूरत नहीं है।  

किसान को सरकार के साथ की जरूरत है

व्यापार व्यवस्था संपन्न करने भर से किसान लाभान्वित होगा, ऐसा कहना गलत होगा। भारत के ज़्यादातर किसान छोटे किसान है और उसकी कृषि योग्य भूमि भी कम है। सिर्फ बाजार के भरोसे किसान को नहीं छोड़ा जा सकता। उसकी जरूरत उसके उत्पाद को सही कीमत मिलने की है, जो कि किसी भी व्यवस्था से मिले। कोई बाजार मुनाफे की गारंटी नहीं दे सकता। सरकार ही समर्थन मूल्य पर खरीददारी करती रहे, यही किसान की जरूरत है। सरकार की भी अपनी मर्यादा है, क्योंकि समर्थन मूल्य व्यवस्था सरकार की खर्च करने की ताकत और भंडारण की व्यवस्था से जुड़ी है। इसीलिए सरकार ने अलग से किसानों के खाते में पैसे डालकर इसको सुलझाने का प्रयास किया है। समर्थन मूल्य पर फसल की खरीद और नगद खाते में कुछ जमा करना किसान को राहत दे सकता है। कृषि बाजार व्यवस्था सुधार साथ-साथ होते रहने चाहिए।

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