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22 मार्च जल दिवस पर विशेष: देश में लगातार बढ़ती जल समस्या

जल संकट के मामले में भारत विश्व में 13वें स्थान पर है। भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देशों से तीन गुना ज्यादा है।  — दिनेश प्रसाद मिश्रा

 

भारत भूमि रत्नगर्भा है। प्रकृति से उसे सारस्वत वरदान प्राप्त है, जिससे वह नाना प्रकार के खनिजों, प्राकृतिक वनस्पतियों, पेड़ -पौधों ,फल फूल तथा  खाद्यान्न से समृद्ध होकर मानव सहित समस्त जड़-जंगम, जीव-जगत को जीवन-यापन हेतु अनुकूल अवसर उपलब्ध कराती है। किंतु भूगर्भ के जल के अधाधुंध दोहन से भूगर्भ जल स्तर गिरते जाने से पेयजल की भी समस्या उत्पन्न हो रही है। देष के अनेक भागों से ग्रीष्म ऋतु में भूगर्भ का जल समाप्त हो जाने के कारण पेयजल उपलब्ध कराने हेतु शासन व्यवस्था को टैंकरों का आश्रय लेना पड़ता है।   

देष की बड़ी-बड़ी नदियां तो किसी न किसी रूप में आज अभी अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं, किंतु उनको जल की आपूर्ति करने वाली 45 00 से अधिक छोटी-छोटी नदियां सूख कर विलुप्त हो गई हैं। डब्ल्यू.आर.आई. ने भूजल भंडार और उसमें आ रही निरंतर कमी, बाढ़ और सूखे के खतरे के आधार पर विश्व के 189 देषां को वहां पर उपलब्ध पानी को दृष्टि में रखकर श्रेणीबद्ध किया है। जल संकट के मामले में भारत विश्व में 13वें स्थान पर है। भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देषों से 3 गुना ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार भारत के उत्तरी भाग में जल संकट भूजल स्तर के अत्यंत नीचे चले जाने के कारण अत्यंत गंभीर है। यहां पर जल संकट ’डे जीरो’ के कगार पर है, इस स्थिति में नलों का पानी भी सूख जाता है।

दक्षिण भारत के चेन्नई से लेकर उत्तर भारत के अनेक शहरों में पेयजल की समस्या मुंह बाए खड़ी है। देष के लगभग 70 प्रतिशत घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। लोग प्रदूषित पानी पीने के लिए बाध्य हैं, जिसके चलते लगभग 4 करोड़ लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित पानी पीने से बीमार होते हैं तथा लगभग 6 करोड लोग फ्लोराइड युक्त पानी पीने के लिए विवष हैं। उन्हें पीने के लिए शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। देष में प्रतिवर्ष लगभग 4000 अरब घन मीटर पानी वर्षा के जल के रूप में प्राप्त होता है किंतु उसका लगभग 8 प्रतिशत पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं, शेष पानी नदियों, नालों के माध्यम से बहकर समुद्र में चला जाता है।  

पानी की गंभीर समस्या को देखते हुए आज जल संरक्षण हेतु जन आंदोलन की प्रबल आवष्यकता है क्योंकि पानी की कमी से प्रभावित होने वाले क्षेत्र की सीमा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है कि पानी बचाने के लिए और उसे सुरक्षित करने के लिए हरसंभव उपाय किए जाएं। प्रधानमंत्री का मानना है कि देषवासियों के सामर्थ्य, सहयोग और संकल्प से मौजूदा जल संकट का समाधान प्राप्त कर लिया जाएगा, किंतु जल संरक्षण के तौर-तरीकों को प्रयोग में लाने के लिए सरकारी तंत्र की भूमिका बहुत आषा जनक नहीं है। यद्यपि सरकार ने विभिन्न राज्यों में जल संरक्षण संबंधी नियम कानून बना रखे हैं लेकिन व्यवहार में वह नियम कानून कागजों तक ही सीमित है, क्योंकि सरकारी तंत्र जल संरक्षण के लिए प्रायः वर्षा ऋतु में ही सक्रिय होता है और खाना पूरी कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेता है। 

जल की कमी के कारण अनेक राज्यों में नदियों के जल के बंटवारे को लेकर भी निरंतर विवाद होते रहते हैं। यह विवाद विषेष रूप से जल की समस्या से ग्रस्त दक्षिण भारत के राज्यों में देखने को मिल रहे हैं, जिसके निदान हेतु सरकार द्वारा अंतरराज्यीय नदी जल विवाद संषोधन विधेयक 2019 को मंजूरी दी गई है, जिससे राज्यों के मध्य होने वाले नदी जल विवादों को दूर करने में आसानी होगी तथा आवष्यकतानुसार संबंधित राज्यों को नदियों का जल प्राप्त होगा। साथ पेयजल की समस्या को दूर करने के लिए खारे जल को पीने योग्य बनाने के लिए भी सरकार द्वारा कार्य किया जा रहा है। नीति आयोग इस दिषा में निरंतर क्रियाषील है। खारे जल को पीने योग्य बना लिए जाने पर दक्षिण भारत एवं समुद्र तटीय प्रदेषों में पीने के पानी की समस्या का निदान प्राप्त किया जा सकेगा जिसके अभाव में प्रदूषण की दिनोंदिन गंभीर होती समस्या से पूरे भारत को प्रदूषित भोजन और पानी के प्रयोग से भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। फाउंडेषन फॉर मिलेनियम सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स और रिसर्च फर्म थाट आर्बिट्रेस के ताजा अध्ययन में यह बताया गया है कि जीवन के लिए जरूरी पानी और भोजन के दूषित होने से देष को 2016 -17 में 734427 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ जो देष के कुल जीडीपी का 4.8 फीसदी था। 

जहां एक और हमारे जल स्रोत प्रदूषण से दूषित होकर उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं रह गए वहीं दूसरी ओर लगभग 4500 छोटी बड़ी नदियां सूख कर गायब हो गई हैं सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही बिहार में 250, झारखंड में 141, असम में 28, मध्य प्रदेष में 21, गुजरात में 17, बंगाल में 17, कर्नाटक में 15, केरल और उत्तर प्रदेष में 13-13, मणिपुर और उड़ीसा में 12-12, मेघालय में 10 और जम्मू कष्मीर में 9 नदियां लगातार सूखती जा रही हैं, किंतु इन नदियों के संरक्षण के लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। आज नदियों के संरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है और न ही सरकार द्वारा इस संदर्भ में कोई भी अपनी नीति निर्धारित की गई है जिसके अभाव में बहुत सी नदियों में जल की मात्रा या तो निरंतर कम होती जा रही है या उनका पानी सूखता जा रहा है और वह अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। एक शोध के अनुसार बिहार की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा है तथा लगभग 250 नदियां गायब हो चुकी हैं झारखंड में भी 141 नदियां गायब हो चुकी हैं। इसका कारण इन नदियों में बढ़ता हुआ प्रदूषण है। जिसको नियंत्रित करने का केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या सरकार के पास कोई रीति नीति नहीं है। आज सबसे अधिक आवष्यक आवष्यकता नदियों को प्रदूषण मुक्त करने तथा उनके अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए लुप्त हो रही छोटी छोटी नदियों को भी जीवन देने की आवष्यकता है जिसकी ओर से केंद्र एवं राज्य की सरकारों ने पूरी तौर पर अपनी आंखें बंद कर रखी हैं।

आज शायद ही देश की कोई ऐसी नदी हो जो प्रदूषण से मुक्त हो। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक वह रही अनेक नदियां इसका उदाहरण है। देश की सबसे बड़ी नदी गंगा भी इससे अछूती नहीं है, अरबों रुपए खर्च कर देने के बाद भी अभी तक उसे निर्मल नहीं बनाया जा सका है। वस्तुतः स्थान स्थान पर तालाब पोखर झील बावड़ी कुआं आदि बनाकर वर्षा के जल को प्रकृति एवं  जीवन की रक्षा के लिए संरक्षित किया जा सकता है, जैसा कि पूर्व में हमारे पूर्वजों द्वारा किया जाता रहा है। प्राकृतिक तथा मानव निर्मित केंद्रों में जल इकट्ठा होकर धीरे धीरे अवशोषित होता हुआ भूगर्भ जल स्तर को काफी बढ़ा देता है, जिससे जल की समस्या का समाधान भी हो जाता है। इसके लिए आवष्यक है कि वर्षा के जल को नदियों तक पहुंचकर व्यर्थ में न बहने दिया जाए और उसे येन केन प्रकारेण संरक्षित कर भूगर्भ में  पहुंचाने के लिए प्रयास किया जाए, जिसके लिए भूजल एक्वीफर्स प्राकृतिक रूप से मिले वरदान हैं। वनाच्छादित भूमि प्राकृतिक रूप से जल का संग्रहण कर भूगर्भ के जल स्तर को ऊपर बनाए रखने में सर्वाधिक योगदान देती है, जिसे दृष्टिगत रखते हुए जल संरक्षण हेतु वनों के संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता है। 

वस्तुतः जल संरक्षण और उसका कुशल प्रबंधन ही नियंत्रण प्राप्त करने का एक मात्र साधन है जिसके लिए सर्वप्रथम वनों के विनाश पर रोक, शहरीकरण के नाम पर मनमाने ढंग से उग रहे कंकरीट के जंगलों पर प्रतिबंध, नदियों के गर्भ से खनिजों का आधा धुंध दोहन कर उनके प्राकृतिक प्रवाह मार्ग को बाधित करने से रोककर उन्हें अपनी गति से प्रवाहित होने देना जैसे कार्य कर सफल जल प्रबंधन करते हुए वर्षा के जल को सफलतापूर्वक भूगर्भ में पहुंचाया जा सकता है जो आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग में लाया जा सकता है और जल समस्या का निदान पाया जा सकता है, अन्यथा स्थिति में वर्षा का असीमित जल अनियंत्रित रूप से नदियों में पहुंचकर व्यर्थ में बह जाएगा और प्राकृतिक रूप से जल से संपन्न होते हुए भी भारत भूमि प्यासी की प्यासी बनी रहेगी तथा जल संकट प्रतिवर्ष देष के नीति नियंताओं के समक्ष  चुनौती बनकर उपस्थित होता रहेगा।

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