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स्वदेशी जागरण मंच के 29 साल, बेमिसाल 

स्वदेशी जागरण मंच के 29 साल, बेमिसाल 
‘लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’

वर्ष 1996 आने तक स्वदेशी जागरण मंच आर्थिक नीतियों पर असंतोष का एक महत्वपूर्ण और साहसिक स्वर बन गया था। बताते चलें कि उसी वर्ष 1996 में मंच ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में मासिक स्वदेशी पत्रिका शुरू की। इसे मंच का मुखपत्रा माना गया। गौरतलब है कि कम साधन-संसाधन होने के बावजूद स्वदेशी पत्रिका का नियमित प्रकाशन होता रहा। — स्वदेशी संवाद

‘हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’, मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां स्वदेशी जागरण मंच के विकास यात्रा पर हूं-ब-हू सटीक बैठती है। केवल तीन दशक से थोड़े कम ही समय के अंतराल में स्वदेशी जागरण मंच द्वारा प्रतिपादित स्वदेशी की विचारधारा का सर्वत्र बोलबाला हो चला है। स्वदेशी के भाव को आगे लाने तथा स्वदेशी आर्थिक चिंतन के जरिए भारतीयों की सुख-समृद्धि का सपना साकार करने के लिए 90 के दशक में जब स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया गया था, तब के देश के नीति निर्माताओं ने इसे एक तुच्छ पहल मानते हुए हिकारत भरी नजरों से देखा था। लेकिन स्वदेषी के समर्पित कार्यकर्ताओं की मेहनत और उपयुक्त आर्थिक चिंतन का नतीजा है कि आज देष के संतुलनकारों को भी स्वदेशी में सफलता के अक्स दिखने लगे हैं। स्वदेषी के दर्शन का प्रतिबिंब साधारणतया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए आत्मनिर्भर भारत के स्पष्ट आह्वान में भी देखा जा सकता है। यह वही आत्मनिर्भर भारत का सपना है, जिसे राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने आज से 30 साल पहले देखा था।

उक्त बातें स्वदेशी जागरण मंच के सह संयोजक डॉ. अश्वनी महाजन ने आज यहां मंच के 29 साल पूरे होने तथा तीसवें वर्ष में प्रवेष करने के अवसर पर ‘द प्रिंट’ से बातचीत करते हुए कही। मालूम हो कि राष्ट्रीय ऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की देखरेख में 22 नवंबर 1991 को महाराष्ट्र के नागपुर में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना हुई थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को उनके असाधारण संगठनात्मक कौशल और बौद्धिक जीजिविषा के लिए जाना जाता है। यह वही दौर था जब भारत उदारीकरण के एक नए युग की ओर कदम बढ़ा चुका था। भविष्यद्रष्टा ठेंगड़ी जी को यह भान हो गया था कि उदारीकरण की नीति भारतीय हितों के लिए उपयुक्त नहीं है। स्वदेशी कार्यकर्ताओं के साथ लगातार बैठकें कर ठेंगड़ी जी ने उदारीकरण के रास्ते दबे पांव आने वाले निजीकरण, वैश्वीकरण को चिन्हित किया तथा गोलबंद होकर प्रखर विरोध की आवश्यकता पर बल दिया।

परिणाम यह हुआ कि स्वदेशी जागरण मंच सत्ता प्रतिष्ठान की नजर में असंतोष की एक महत्वपूर्ण आवाज बन गया। पहले 5 वर्षों के दौरान मंच ने उदारीकरण के नाम पर नासमझ वैश्वीकरण के खिलाफ लगातार हमला किया। हालांकि स्वदेशी के संवाहक सत्ता के गलियारों में नीति निर्माताओं को प्रभावित करने में पूरी तरह सक्षम नहीं थे, क्योंकि उदारीकरण के जरिए भारत के आर्थिकी कुलांचे भरने का जो सपना दिखाया गया था, उसके बरक्श वैश्वीकरण के नकारात्मक पक्ष का न तो मूल्यांकन हुआ था और न ही किसी को अनुभव था। वैष्वीकरण के समर्थकों ने तर्क दिया कि भारत को विकसित देषों की श्रेणी में लाने के लिए एकमात्र रास्ता उदारीकरण ही है।

डॉ. महाजन का मानना है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण, उस समय एक ऐसी आकर्षक अवधारणा की तरह प्रस्तुत की गई थी कि हर आदमी उस बैंड-बाजे पर थिरक रहा था। स्वदेशी जागरण मंच और मंच के जैसे ही कुछ अन्य गिनती के संगठनों को इस नीति के बाद की तबाही का पूर्वाभास था। स्वदेषी जागरण मंच पक्के विश्वास के साथ इन नीतियों के विरोध में मुखर रहा। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, उदारीकरण की परतें एक-एक कर उधड़ने लगी, तो अन्य लोग भी स्वदेषी के सुसंगत स्टैंड के साथ खड़े होने लगे। स्वदेषी के सरोकार से जुड़ने लगे। यह जुड़ाव दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। वर्ष 1996 आने तक स्वदेषी जागरण मंच आर्थिक नीतियों पर असंतोष का एक महत्वपूर्ण और साहसिक स्वर बन गया था। 

बताते चलें कि उसी वर्ष 1996 में मंच ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में मासिक स्वदेषी पत्रिका शुरू की। इसे मंच का मुखपत्र माना गया। गौरतलब है कि कम साधन-संसाधन होने के बावजूद स्वदेषी पत्रिका का नियमित प्रकाषन होता रहा। यहां तक कि कोविड-19 जैसी महामारी के दौरान भी पत्रिका का लगातार संपादन हुआ। लॉकडाउन के चलते हमने डिजिटल प्रकाषन का फैसला लिया है।

बाजपेई युग
मालूम हो कि वर्ष 1998 से 2004 तक भारतीय जनता पार्टी भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार केंद्र में सत्तासीन थी। स्वदेषी जागरण मंच ने विनिवेष जैसे कई मुद्दों को जोर-षोर से उठाया। विनिवेष के तरीकों पर सख्त एतराज जताते हुए तत्कालीन बाजपेई सरकार को आड़े हाथों लिया। उस समय के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने स्वदेषी जागरण मंच के विरोध को सरकार को प्रभावित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक मजबूत रणनीति का हिस्सा करार दिया था। जो कि किसी भी रूप में सही नहीं था। आपको यह ध्यान रखना होगा कि बाजपेई सरकार के दौरान भाजपा अल्पमत में थी। बाजपेई युग के दौरान स्वदेषी जागरण मंच के पदाधिकारी मुखर रणनीति के मामले में आगे थे। इसलिए विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार को सहयोग दे रहे दल भी इस तरह के बेसिर-पैर के आरोप लगाने शुरू कर दिए थे। मैं थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि बाजपेई सरकार के प्रमुख सदस्यों में से कोई भी जैसे कि वित्तमंत्री यषवंत सिन्हा, विदेष मंत्री जसवंत सिंह, विनिवेष मंत्री अरुण शौरी, आदि नेतागण मूल रूप से आरएसएस की विचारधारा से नहीं थे। इसलिए उस दौरान नीतिगत निर्णयों में स्वदेषी के सिद्धांतों का कतई पालन नहीं होता था। और यही कारण था कि स्वदेषी के मुद्दों को लेकर स्वदेषी जागरण मंच का विरोध जारी रहा। और खास बात रह रही कि मंच द्वारा उठाये गये सारे मुद्दे देषहित के थे।

यूपीए शासनकाल
2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन की सरकार केंद्र में थी। उनके पहले कार्यकाल के दौरान वामपंथी दलों ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को पंगु बना दिया था, तब स्वदेषी जागरण मंच ने खुलकर आलोचना की थी कि वामपंथी दल देष को समाजवादी राज्य में बदलने की कोषिष कर रहे हैं। स्वदेषी जागरण मंच ने सरकार द्वारा खैरात बांटने की नीतियों का विरोध किया था तथा मंच ने स्पष्ट रूप से कहा था कि देष के कमजोर लोगों को लोकलुभावन तोहफे देकर भ्रम में डालने की बजाय सरकार को ऐसी नीतियों का निर्माण सुनिष्चित करना चाहिए ताकि दक्षता और क्षमता के आधार पर कमजोरों को मजबूत बनाया जा सके।

यूपीए-2 के दौरान स्वदेषी जागरण मंच ने एक जुझारू संगठन की भूमिका अपनाते हुए सरकार में पारदर्षिता की कमी और बढ़ते भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर शेष विपक्ष से हाथ मिलाया था। अनुवांषिक रूप से संषोधित जीएम फसलों के मुद्दे पर मंच ने यूपीए सरकार की घेराबंदी की और यह विरोध आगे भी जारी रहा।

मोदी युग
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पिछले 6 वर्षों के दौरान स्वदेषी जागरण मंच द्वारा उठाए गए अधिकांष मुद्दों पर वर्तमान की मोदी सरकार ने समय रहते संज्ञान लिया है। जीएम फसलों के उत्पादनों की अनुमति नहीं देना, विदेषी मुद्रा में संप्रभू बांड जारी करना, बांड के जरिए धन जुटाने से रोकने, योजना आयोग को समाप्त कर उसकी जगह नीति आयोग गठित करना, आयातों को प्रतिबंधित करने और इसके लिए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को लागू करने आदि जैसे मामलों में मोदी सरकार की नीति में स्वदेषी जागरण मंच के रूख को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

जुलाई 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के 2 महीने के भीतर ही स्वदेषी जागरण मंच ने जीएम फसलों का मुद्दा उठाया था। लगभग 6 साल बीत गए, अब तक भारत में किसी भी जीएम फसल के व्यवसायिक उत्पादन के लिए कोई मंजूरी नहीं दी गई है। अक्टूबर 2014 में एक नया भूमि अधिग्रहण कानून लाने का कदम उठाया गया। स्वदेषी जागरण मंच ने खाद्य सुरक्षा पर कानून के संभावित प्रभाव पड़ने इसके सामाजिक आर्थिक प्रभाव और उन किसानों की सहमति से संबंधित मुद्दों के बारे में अपनी चिंताओं को व्यक्त किया, जिनकी भूमि का अधिग्रहण किया जाना था। सब जानते हैं कि उस विषय पर तीन बार अध्यादेष लाया गया और हर बार वह ठंडे बस्ते का षिकार हुआ।

भारतीय रिजर्व बैंक के दो गवर्नर रघुराम राजन और उनके उत्तराधिकारी उर्जित पटेल नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया यह सभी नाम उन लोगों के थे, जो स्वदेषी के खांचे में फिट नहीं बैठते थे। स्वदेषी जागरण मंच ने खुलकर इनका विरोध किया और आज वे भारत सरकार में कहीं नहीं है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (आरसेप) को लेकर स्वदेषी जागरण मंच ने बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि अगर भारत इस समझौते में शामिल होता है तो मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, रोजगार सृजन, किसानों की दो गुना आय, के साथ-साथ आत्मनिर्भर भारत के लिए भी खतरनाक होगा। अंततः सरकार ने पिछले साल आरसीईपी में शामिल होने से इनकार कर दिया।

कई लोग पूछते हैं कि बाजपेई शासन के दौरान सदैव झंडा बुलंद करने वाले स्वदेषी जागरण मंच के लोग मोदी युग में ठंडा क्यों है। बीते 6 साल के दौरान कभी यह नहीं लगा कि सरकार और मंच के बीच किसी मुद्दे पर कोई मतभेद है, तो इसका स्पष्ट कारण यह है कि लोकसभा में भाजपा का बहुमत है और मोदी सरकार स्वदेषी के मामलों को बढ़-चढ़कर ग्रहण करती रही है। इस बीच स्वदेषी जागरण के एक दूसरे अधिकारी ने कहा कि हमारा मुख्य उद्देष्य टकराव नहीं है। हमारी रणनीति के तीन प्रमुख तत्व हैं- जागरूकता पैदा करना, लोगों को षिक्षित करना और रचनात्मक कार्यक्रम चलाना। और सबसे बड़ी बात कि हमारे स्वदेषी जागरण मंच के जनक राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी की यही सीख भी है।           

दी प्रिंट के लिए अरुण आनंद की डॉक्टर अश्वनी महाजन से हुई बातचीत पर आधारित

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