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कैंसर के लिए प्रभावी और किफायती ईलाज में बाधाएं

आज दुनिया में एक सबसे अधिक भयावह बीमारी के रूप में कैंसर महामारी का रूप ले चुका है। भारत में भी कैंसर से पीड़ित लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। लेकिन यह भी सही है कि पहले की तुलना में कैंसर के ईलाज में काफी प्रगति भी हुई है। विभिन्न प्रकार के कैंसर के लिए अत्यंत प्रभावी दवाईयां विकसित हो चुकी हैं। चूंकि कैंसर पर शोध लम्बे समय से चल रहे हैं, उन शोधों से विकसित दवाईयां जो पहले रॉयल्टी के कारण काफी महंगी हुआ करती थी, उनकी कीमत में कमी आई है। लेकिन उसके बावजूद कुछ नए ईलाज, जो अधिक प्रभावी हो सकते हैं, वे अभी भी काफी महंगे बने हुए हैं।

गौरतलब है कि मानव जीनोम की डिकोडिंग ने स्वास्थ्य के बारे में हमारी समझ पर बड़ा प्रभाव डाला है, जिससे हमें बीमारी के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या करने और किसी विशेष रोगी में, किसी विशेष बीमारी के लिए वैयक्तिकृत यानि पर्सनलाईज्ड दवा विकसित करने में मदद मिली है। ये दवाईयां जैविक यानि बायोलॉजिकल होती हैं, जिससे लक्षित रूप चिकित्सा से संभव होती हैं। इन बायोलॉजिकल दवाईयों ने कैंसर में ऑटोइम्यून जैसी जानलेवा स्थिति में भी उपचार संभव बना दिया है। बायोलॉजिक्स बड़े अणु वाली दवाएं हैं, जो आमतौर पर जटिल प्रोटिन से बनी होती हैं और जैनेटिक इंजिनियरिंग के माध्यम से जीवित कोशिकाओं में जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से निर्मित होती हैं। इन नई दवाओं ने दुनिया भर में घातक बीमारियों से लड़ रहे लाखों रोगियों के लिए आशा की किरण जगाई है, जिसके लिये अन्वेषकों ने सराहनीय काम किया है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि कैंसर से अधिकांश पीड़ित लोग, खासतौर पर विकासशील देश, इसका लाभ नहीं उठा पा रहे, क्योंकि या तो ये ईलाज वहां उपलब्ध नहीं है या बहुत महंगे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इनकी पहुंच नहीं बनाई जा सकती। यहां पर फोलोऑन बायोलॉजिक्स, यानि इसी प्रकार के बायोलॉजिक्स, जिनको तकनीकी रूप से बायोसिमिलर कहा जाता है, कैंसर के ईलाज में सुरक्षित एवं प्रभावी कम लागत वाले विकल्प के रूप में उभरे हैं। ये बायोसिमिलर पूर्व में बने इनोवेटर बायोलॉजिक के समान होते हैं और वे कैंसर के ईलाज में सुरक्षित एवं कम लागत वाले विकल्प हैं। यदि आम भाषा में समझना हो तो कह सकते हैं कि जिस प्रकार भारत जैसे विकासशील देशों में सस्ते दाम पर उपलब्ध जैनरिक दवाईयों के कारण ईलाज सस्ता और सुगम हो गया है। हालाँकि बायोसिमिलर जैनरिक दवाईयों की तरह ही हैं, लेकिन रसायनिक जैनरिक की तुलना में बायोसिमिलर को बहुत कड़े मूल्यांकन और परीक्षण से गुजरना पड़ता है। बायोसिमिलर को बायोलॉजिक्स के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे कैंसर के ईलाज के ज्यादा विकल्प मिलते हैं। जहां आज भारत में 9 में से कम से कम एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कैंसर का खतरा है, कैंसर का ईलाज लगातार महंगा बना हुआ है, जिसके कारण व्यक्तिगत खर्च भी बढ़ता है और सरकारी खर्च भी। भारत में, स्तन कैंसर के 50 प्रतिशत से 60 प्रतिशत मामलों में निदान रोग के चरण-3 या 4 में किया जाता है, जब कैंसर शरीर के अन्य भागों में फैल चुका होता है। यहीं पर बायोसिमिलर उम्मीद की किरण जगाते हैं। सौभाग्य से, भारत में घरेलू बाजार में स्वीकृत बायोसिमिलर की सबसे अधिक संख्या है। बायोसिमिलर केवल जैनरिक नहीं है, बल्कि पहले से स्वीकृत बायोलॉजिक्स के बहुत समान संस्करण हैं। इनको अनुमोदन के लिए कठोर नियामक प्रक्रियाओं से भी गुजरना पड़ता है। लेकिन देश में विकसित होने और काफी कम लागत पर बाजार में प्रवेश करने की वजह से ये किफायती होते हैं और इससे जीवन रक्षक उपचार में वित्तीय बाधा नहीं होती है। कैंसर के ईलाज को जन-जन तक पहुंचाने में जहां बायोसिमिलर के महती भूमिका हो सकती है, वहीं इसकी उपलब्धता में कई बाधाएं हैं, जो इसकी सबदूर उपलब्धता पर अंकुश लगाती है। पेटेंट संबंधित चुनौतियां, जटिल नियामक प्रक्रिया, इन जीवन रक्षक विकल्पों के बाजार में प्रवेश के लिए बाधाएं बनी हुई हैं। ऐसे में एक स्वभाविक सवाल है कि क्या हम इन बाधाओं के चलते कैंसर के प्रभावी ईलाज में पीछे रह जाएंगे?

परिस्थितियों की मांग है कि इसके बारे में तुरंत निर्णयात्मक कारवाई हो। भारत में हमें एक ऐसा वातावरण निर्माण करना होगा, जिससे बायोसिमिलर जैसी नई खोजों को किफायती दाम पर कैंसर पीड़ितों तक पहुंचाया जा सके। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि इन प्रारंभिक बायोलॉजिक्स के पेटेंट धारक लगातार कानूनी दाव-पेंच के माध्यम से अपने पेटेंट को आगे बढ़ाते जा रहे हैं, जिसे एवरग्रीनिंग कहते हैं। एवरग्रीनिंग एक ऐसी रणनीति है, जिसमें पेटेंट धारक अपनी बाजार विशिष्टता का विस्तार करने और अधिक किफायती बायोसिमिलर के प्रवेश में देरी करने के प्रयास में मौजूदा बायोलॉजिक्स में बेहद मामूली संशोधनों के लिए कई पेटेंट दायर करते हैं, जिसके कारण किफायती उपचार रोगियों तक नहीं पहुँच पाते।

उल्लेखनीय रूप से, पेटेंट अधिनियम की धारा 3(डी) को मामूली संशोधनों के लिए पुनःपेटेंटीकरण को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया था। कैंसर की दवा इमैटिनिब मेसिलेट पर 2013 के नोवार्टिस बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पुष्ट किया था। फिर भी, मूल जैविक निर्माता अभी भी बायोसिमिलर तक पहुँच में देरी करने के तरीके खोज रहे  हैं। वे बायोसिमिलर उत्पादकों को अदालत में आक्रामक रूप से चुनौती देते हैं और बायोसिमिलर निर्माताओं को जल्दी से विपणन अनुमोदन प्राप्त करने से रोकने के लिए बायोसिमिलर विपणन अनुमोदन विनियमों में सुधार के खिलाफ लॉबी करते हैं, भले ही भारत की आईपीआर व्यवस्था डेटा विशिष्टता प्रदान नहीं करती है। नतीजतन, बायोसिमिलर निर्माताओं को अपने स्वयं के महंगे परीक्षण करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे बायोसिमिलर के किफायती उत्पादन में देरी होती है। इस प्रकार की समस्या से निपटने के लिए अमरीका और सिंगापुर ने कुछ प्रयास किये हैं, जिसके कारण बाइसीमिलर दवाईयों की लागत में काफ़ी कमी आई है। 

भारत में बायोसिमिलर की उपलब्धता बढ़ाने के लिए कई उपाय संभव है। सबसे पहले विदेशी कंपनियों के हथकंडों पर लगाम लगानी पड़ेगी। दूसरे, डॉक्टरों और मरीजों के बीच बायोसिमिलर के बारे में कई भ्रांतियां है, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। इसके लिए एक व्यापक जनजागरण अभियान की जरूरत है, ताकि इस नए युग की जीवन रक्षक दवाईयों के बारे में विश्वास बढ़ाया जा सके। समय लगातार आगे बढ़ रहा है और बायोसिमिलर के बिना कैंसर के हजारों मरीज मौत से जूझ रहे हैं। जीवन रक्षक ईलाज कोई सुविधा नहीं, बल्कि एक अधिकार है। जरूरत इस बात की है कि हम बायोलॉजिक्ल दवा की मूल कंपनियों के कारपोरेट लालच को कैंसर के मरीजों के लिए बायोसिमिलर जैसे किफायती और प्रभावी ईलाज के रास्ते में बाधा न बनने दें।

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