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अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने वाला बजट

सड़कों के लिए 1.08 लाख करोड़ रुपये, रेलवे के लिए 1.07 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत ख़र्च का प्रावधान के अतिरिक्त मेट्रो, जलमार्ग, जलपत्तन पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के लिए किये गये प्रावधान सराहनीय प्रयास कहे जा सकते हैं। — डॉ. अश्वनी महाजन

 

एक भयंकर महामारी के बाद पेश किए जाने वाले इस बजट का विश्लेषण सामान्य बजटीय विश्लेषण के अनुसार करना सही नहीं होगा। राजकोषीय घाटा बढ़ने पर सामान्य बजट की आलोचना होती है। जहाँ वर्ष 2020-21 में बजट में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के बराबर रखा गया था, वह संशोधित अनुमानों में बढ़कर 9.5 प्रतिशत पहुँच गया है और आगामी वर्ष 2021-22 में इसे जीडीपी के 6.8 प्रतिशत के बराबर आकलित किया गया है। उसके बावजूद इस बजट की आलोचना का कोई कारण नहीं, क्योंकि चालू साल में यह घाटा सरकारी फ़िज़ूल खर्ची के कारण नहीं बल्कि रोज़गार खो चुके लोगों की जीवन रक्षा उनके जीवनयापन हेतु आवश्यक सामग्री जुटाने, देश को पुनः पटरी पर लाने के लिए, ग्रामीण और औद्योगिक क्षेत्रों को अधिक धन उपलब्ध कराने के कारण हुआ है।

आगामी वर्ष के लिए यह राजकोषीय घाटा सामान्य से लगभग दोगुना रखने के पीछे कारण यह है कि महामारी की मार झेल रही अर्थव्यवस्था को एक बड़ा समर्थन देने की दरकार है। इसके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर हेतु अधिक धन का आवंटन, नवीन इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की घोषणा, चीनी आयातों की मार झेल रहे उद्योगों के पुनर्निर्माण हेतु प्रयास के साथ-साथ स्वास्थ्य पर ख़र्च में अभूतपूर्व 137 प्रतिशत वृद्धि, शोध एवं विकास (आरएंडडी) के लिए अतिरिक्त धन का आवंटन और राज्यों को स्थितियों से निपटने हेतु अधिक संसाधनों का आवंटन किया गया है।

एक विकासशील देश होने के बावजूद जिस प्रकार से भारत महामारी से निपटने में दुनिया के अधिकांश देशों से कहीं ज़्यादा सफल रहा है, उसके आर्थिक प्रभावों से निपटने में भी हम उतना ही बेहतर प्रदर्शन कर पाएँ, ऐसे तमाम प्रयास इस बजट में दिखाई दे रहे हैं। महामारी के बावजूद सरकार का इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान कम नहीं हुआ। चालू वर्ष का कार्य निष्पादन कहीं भी कम दिखाई नहीं दे रहा। लेकिन आगामी वर्ष में तो इंफ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च में भारी वृद्धि वास्तव में स्वागत योग्य क़दम माना जा सकता है। पिछले तीन दशकों से हर वर्ष बजट में स्वास्थ्य खर्च में लगभग स्थिरता बनी हुई थी। इस वर्ष हालाँकि महामारी से राष्ट्रीय संकल्प के कारण निपट पाए, लेकिन स्वास्थ्य पर ख़र्च बढ़ाने की आवश्यकता काफ़ी समय से महसूस की जा रही थी। इस वर्ष प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों ग्रामीण और शहरी दोनों में अभूतपूर्व वृद्धि स्वागत योग्य है। स्वास्थ्य से ही अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े पोषण कार्यक्रम और स्वच्छ पेयजल के लिए पाँच वर्ष के लिए 2.8 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान एक गेम चेंजर हो सकता है।

आत्मनिर्भर भारत हेतु मैन्युफ़ैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए 1.97 लाख करोड़ रुपये की उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजनाएं एक बड़ा क़दम है जिनकी घोषणा पहले ही की जा चुकी थी। नई आर्थिक नीति के जुनून में दीर्घकालीन वित्तपोषण व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया था। पूर्व में हुई इस गलती को इस बार बजट में सुधारने का प्रयास हुआ है, और एक दीर्घकालीन विकास वित्तीय संस्थान (डीएफआइ) की स्थापना हेतु 20 हज़ार करोड़ रुपये की अंश पूंजी का प्रावधान स्वागत योग्य क़दम है।

इन सब प्रयासों के कारण चालू वर्ष में बजट प्रावधान 4.12 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय के स्थान पर संशोधित अनुमानों में यह 4.39 लाख करोड़ रुपया पहुँच गया है। आगामी वर्ष के लिए 5.54 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान स्वागत योग्य है। सड़कों के लिए 1.08 लाख करोड़ रुपया का पूंजीगत ख़र्च का प्रावधान रेलवे के लिए 1.07 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत ख़र्च का प्रावधान के अतिरिक्त मेट्रो, जलमार्ग, जलपत्तन पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के लिए प्रयास सराहनीय कहे जा सकते हैं।

पिछले वर्षों के विनिवेश के विवादास्पद प्रयासों को इस वर्ष आगे बढ़ाने की घोषणा चिंता का विषय है। बीपीसीएल, एयर इंडिया, शिपिंग कोरपोरेशन, कंटेनर कोरपोरेशन, पवनहंस इत्यादि विनिवेश के बारे में पहले भी चिंताएं व्यक्त की जाती रही हैं। सरकार को इन पर पुनर्विचार करना चाहिए दो सरकारी बैंकों और एक बीमा कम्पनी का निजीकरण भी चिंता बढ़ाने वाला है। बेहतर होगा कि इन संस्थानों का रणनीतिक विनिवेश करने की बजाए इन संस्थानों का कार्य निष्पादन बेहतर करते हुए दीर्घकाल में इनकी अंशधारिता आम लोगों को बेची जाए बेकार पड़ी भूमि या परिसंपत्तियों को बेचकर राष्ट्र निर्माण में लगाए जाने में कोई समस्या नहीं लेकिन पूर्व में गाढ़ी कमाई सेऐसे बनाए गए संस्थानों का रणनीतिक विनिवेश सही नहीं है। उनके कार्य निष्पादन को बेहतर कर उनका एक्वटी विनिवेश कहीं बेहतर विकल्प होगा।

उधर उधर बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा को वर्तमान में 49 प्रतिशत बढ़ाकर 74 प्रतिशत करना भी चिंताजनक है। ग़ौरतलब है कि वित्तीय क्षेत्र में विदेशी प्रभुता बढ़ाया जाना सही नहीं है। इससे देश के वित्तीय संसाधनों पर विदेशी प्रभुत्व बढ़ता है और देश के विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। सरकार को इस क़दम पर पुनर्विचार करना चाहिए। 

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