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बदलाव की जरूरत है, पर बचाव भी जरूरी

केंद्र की राजग सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों पर पक्ष प्रतिपक्ष आमने-सामने है। सरकार जहां बिल को किसान  हितैषी बता रही है, वहीं विपक्ष खुलकर आलोचना कर रहा है। किसान संगठनों के मन में भी कई तरह की आशंकाएं हैं। स्वदेशी जागरण मंच ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की आशंकाओं को दूर करने तथा सभी हितधारकों की चिंताओं के उचित समाधान के लिए बहस की मांग की है। स्वदेशी जागरण मंच ने कहा है कि बेहतर होता कि सरकार इन्हीं तीन बिलों में एमएससी की गारंटी का जिक्र करती। अगर इन तीन बिलों में यह व्यवस्था नहीं हो सकी तो फिर सरकार को एक चौथा बिल लाकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देनी चाहिए। छोटे किसानों, व्यापारियों, श्रमिकों, कामदारों के पक्ष में सदैव तत्पर स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक डॉ. अश्वनी महाजन ने उक्त बातें एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में कही। स्वदेशी के पाठकों के लिए प्रस्तुत है बातचीत का हूबहू अनुवाद -

देश में किसानों की बेहतरी के लिए स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के अवसर को सरकार ने क्यों दरकिनार कर दिया?

मैं इसका जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि किन मुद्दों को प्राथमिकता देनी है और किन मुद्दों पर काम करना है, यह सरकार का विशेषाधिकार होता है। अलबत्ता में इतना जरूर कहूंगा कि केंद्र की सरकार ने खेती-किसानी से संबंधित जो तीन बिल ले आई, जो कि अब अधिनियम बन गए हैं, सही दिशा में उठाया गया एक वाजिब कदम है। इन नए कानूनों के पीछे सरकार की मंशा भली है। सरकार की दृष्टि में किसानों की खुशहाली प्रमुख है। फिर भी मेरा मानना है कि कोई भी विधेयक चाहे कितना भी सही क्यों ना हो, उसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा विद्यमान रहती है। 

स्वदेशी जागरण मंच ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का मुद्दा उठाया है?

हमने सरकार को सुझाव दिया है कि मंडियों के बाहर होने वाली खरीद के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू होना चाहिए। इसके पीछे एक मजबूत तर्क है कि हम कृषि की एक नई प्रणाली की ओर बढ़ रहे हैं। अब निजी पार्टियां, व्यक्ति या निगम सीधे मंडियों में जाए बिना कृषि उत्पादों की खरीद कर सकते हैं। मंडियों के भीतर मंडी शुल्क और एजेंटों का कमीशन भी तय होता है जो कि किसानों को वहन करना पड़ता है। इसलिए स्वाभाविक रूप से मंडियों के बाहर बिना फीस और बिना कमीशन के होने वाली खरीद किसानों और खरीदारों के लिए आकर्षक होगी तथा किसानों को बेहतर कीमत पाने का अवसर भी मिलेगा। लेकिन निजी खरीदार एक प्रभावी स्थिति में होंगे। हम समझते हैं कि किसानों के पास सौदेबाजी की शक्ति कमजोर होगी और अवसर भी कम होंगे। बाहरी एजेंट किसानों के उत्पादों को कम कीमतों की पेशकश कर उसका फायदा उठाने की कोशिश करेंगे। हमारा दृष्टिकोण यह है कि मंडियों के बाहर भी किसानों को कम से कम एक एमएसपी की पेशकश की जानी चाहिए जो कि वैज्ञानिक है और बहुत सोच-विचार कर घोषित किया जाता है। स्वदेशी जागरण मंच के अलावा अन्य किसान संगठनों की भी यही मांग है। 

हम एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के बरक्स एमआरपी (अधिकतम खुदरा मूल्य) का एक समानांतर खाका खींचते हैं। मालूम हो कि एमआरपी वह कीमत है जिस पर कंपनियां और निर्माता अपने उत्पाद बेचते हैं, लेकिन यह मनमाना है, यह लागत के आधार पर नहीं, बल्कि एक निहायत अवैज्ञानिक आधार पर तय किया जाता है। स्वदेशी जागरण मंच की प्रारंभ से ही यह मांग रही है कि निर्माताओं को उत्पादन लागत की घोषणा करनी चाहिए। हम यह नहीं कह रहे हैं कि उन्हें उत्पादन लागत दर पर अपना उत्पाद बेचना चाहिए, लेकिन उन्हें कम से कम इसकी घोषणा करनी चाहिए ताकि उपभोक्ताओं को इसके बारे में सही-सही पता चल सके।

प्रायः देखा गया है कि उत्पादक अपने उत्पादों की एमआरपी मनमाने तरीके से तय करते हैं और इसे ही वैध मान लिया जाता है। तब स्वदेशी जागरण मंच की यह मांग स्वतः जायज हो जाती है कि उत्पादकों को अपने उत्पादन की लागत सार्वजनिक करनी चाहिए। ऐसे में सवाल खडा होता है कि ऐसी परिस्थितियों में मंडियों के बाहर किसानों के लिए एमएसपी की मांग कैसे हो सकती है? किसानों को मंडी के बाहर न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए आश्वस्त कैसे किया जा सकता है? बाजार के पक्षपोषकों की ओर से अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि बाजार को कार्य करते रहने देना चाहिए, तभी किसानों को बाजार में पेश की जाने वाली कीमत मिलती रहेगी। लेकिन मार्केट को हमेशा मुक्त बाजार के रूप में काम नहीं करना चाहिए। बाजार में कई ऐसे प्रमुख खिलाड़ी भी होते हैं जो समूह के प्रति पक्षपातपूर्ण तरीके से अपने लिए लाभ को सुनिश्चित करते हैं। ऐसे में संभव है कि किसानों के पास कोई विकल्प न बचे और वे बाजार के प्रमुख खिलाड़ियों द्वारा उद्धृत दरों पर अपने उत्पाद बेचने को मजबूर होंगे।

ज्ञात हो कि सरकार ने कुछ समय पहले 2220 किसान मंडियां स्थापित करने की घोषणा की थी। इस काम में तेजी लाई जानी चाहिए ताकि किसानों को अपनी उपज बेचने के अधिकाधिक विकल्प मिल सके। आदर्श रूप में कहा जाए तो सरकार को एक सुनिश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करनी चाहिए, जिससे कम दाम पर किसानों की उपज को मंडी के बाहर भी नहीं बेचा जा सकता हो। और इसके लिए हमारे पास आदर्श के रूप में न्यूनतम समर्थन मूल्य का ढ़ांचा उपस्थित है जो कि वैज्ञानिक भी है और जिसकी गणना सरकार द्वारा समय-समय पर स्वयं की जाती रही है। 

क्या बड़े कारपोरेट छोटे किसानों का शोषण नहीं करेंगे?

हमारा देश छोटे-छोटे किसानों से मिलकर बना हुआ है और छोटे किसान बाजार की ताकतों का लाभ नहीं ले पा रहे हैं। मौजूदा विधेयक में सरकार अनुबंध खेती को प्रोत्साहित करने की व्यवस्था की है। इससे छोटे किसानों को अनुबंध की खेती संस्कृति में प्रवेश करने का सहज अवसर प्राप्त होगा। इससे छोटे खेतों का अच्छा उपयोग बल्कि सबसे अच्छा उपयोग किया जा सकता है, लेकिन अनुबंध में कुछ बातों का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। अब तक की प्रचलित प्रणाली में किसान अपने उत्पाद जिस मंडी में बेच रहा होता है, तो वहां के व्यापारियों-आढ़तियों से उसे संरक्षण प्राप्त होता रहा है। किसान, व्यापारी या आढ़ती से अग्रिम भुगतान प्राप्त करने में सक्षम होता है और आढ़तियों को भी यह भरोसा होता है कि किसान अपनी उपज उसी के पास लाएगा और इसी विश्वास के बदौलत वह उसे पेशगी देता है। लेकिन नई व्यवस्था में ऐसा कोई आश्वासन नहीं है। इसलिए अनुबंध में एक ऐसे आश्वासन दिए जाने की आवश्यकता है कि किसानों को उनके उत्पाद की कीमत किस्तों में मिलेगी। उदाहरण के लिए जब किसान खेत में बुवाई करता है तो एक निश्चित राशि दी जा सकती है। फिर कुछ महीनों बाद अगली किस्त दी जा सकती है। अगर ऐसा नहीं होता है तो किसान साहूकार के पास जाने के लिए मजबूर हो जाएगा। इसी तरह यदि कोई विवाद होता है तो विवाद समाधान तंत्र को किसान का पक्ष लेना चाहिए। वर्तमान में ऐसे मामलों का निपटारा किसान और निगमों द्वारा नियुक्त मध्यस्थों के आधार पर होता है। नये कानून में प्रावधान है कि यदि किसान को इस प्रक्रिया के माध्यम से समाधान नहीं मिलता तो वह एसडीएम के पास जा सकता है। गौरतलब है कि एसडीएम पहले से ही कई अन्य प्रशासनिक कामों के बोझ तले दबे हैं, ऐसे में वह किसानों को कितना तवज्जो दे सकेंगे। इसलिए हमने सुझाव दिया है कि उपभोक्ता अदालतों की तर्ज पर किसान अदालतें भी देश में स्थापित की जाएं। ये अदालतें ग्रामीण स्तर पर विवादों को निपटाने और सामान्य अदालतों पर काम के बोझ को कम करने में मदद करेंगी। 

किसान यह जानना चाहते हैं कि कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) को निरर्थक घोषित किए जाने की बजाय इसमें सुधार क्यों नहीं किया जा सकता?

देखिए, जब एपीएमसी को लाया गया था तो उसका मुख्य उद्देश्य उन कानूनों को पारित करना था जिससे किसानों को बाजार के गैर कानूनी आचरण एवं तौल में खराबी से बचाया जा सके। इसके जरिये मंडियों में भी सुधार किया गया ताकि फीस और कमीशन को भी सुनिश्चित किया जा सके। अब मंडियों की उतनी आवश्यकता नहीं है या यह कहें कि मंडियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। आज जब कंप्यूटर और ऑनलाइन ट्रेडिंग का समय है तो ऐसे में किसान सिर्फ अपने राज्य की मंडियों में ही अपना उत्पाद बेचने के लिए आखिर क्यों बाध्य हो? जब एपीएमसी के स्थान पर बेहतर व्यवस्था हो सकती है तो एपीएमसी में सुधार क्यों होना चाहिए। ऐसे ढेर सारे मसले हैं। लेकिन जरूरी यह है कि इन सब बातों के साथ हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान को उसका उचित मूल्य मिल सके। 

आपकी चिंता क्या उन किसान संगठनों के समान है जो इसका विरोध कर रहे हैं, क्या आप इस मुद्दे पर उन लोगों के साथ हैं?

यहां उनके साथ होने या ना होने का सवाल ही नहीं उठता। हम किसानों के संपूर्ण लाभ के लिए हैं। हम उन सभी छोटे किसानों, व्यापारियों, छोटे पैमाने के कारीगरों, श्रमिकों के लिए हैं। स्वदेशी जागरण मंच इस वर्ग के लिए हमेशा तत्परता से खड़ा रहा है। इसके साथ ही साथ हमारा लक्ष्य अर्थव्यवस्था के विकास का भी है। हम किसी कारपोरेट के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जो गरीब हैं, जिन्हें कम विशेषाधिकार प्राप्त है, उन्हें भी संरक्षित करने की आवश्यकता है। समय के हिसाब से बदलाव एक जरूरत है, लेकिन किसानों के लिए बचाव भी उतना ही जरूरी है।   

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