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बदलता वैश्विक परिदृश्य और क्वाड

भारत को अपनी परिस्थितियों को देखते हुए किसी भी एक संगठन या गुट पर अतिनिर्भरता सही रणनीति नहीं हो सकती। हम क्वाड के साथ-साथ अपनी शक्ति में यथोचित वृद्धि करके आत्मनिर्भरता को प्राप्त करें ताकि वैश्विक मंच पर भारत का मस्तक ऊंचा रहे। — दुलीचंद कालीरमन

 

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही विश्व दो ध्रुवीय हो गया था। इसमें एक पक्ष अमेरिका और उसके साथी ‘नाटो’ के देश तथा दूसरी तरफ सोवियत संघ की अगुवाई में अमेरिका विरोधी ‘वारसा-संधि’ के नाम पर एकजुट हो गए थे। एक तीसरा धड़ा विकासशील या गरीब देशों का भी था जो इस दो ध्रुवीय व्यवस्था में खुद को असुरक्षित महसूस करते रहे हैं और उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से एक तीसरे समूह में खुद को छद्म रूप से स्थापित करने का प्रयास किया। यह भी सच है कि इस तीसरे गुट के देश अंदर खाते विश्व की दोनों महाशक्तियों में से किसी न किसी के साथ संपर्क में जरूर रहते थे। लेकिन किसी भी प्रकार के टकराव को टालने के लिए गुटनिरपेक्षता का चौमा पहन लेते थे।

1991 में तत्कालीन सोवियत संघ के बिखराव के बाद और दुनिया में वामपंथी विचारधारा के पतन के कारण ‘वारसा-संधि’ के देश निरंतर कमजोर होते चले गए। सोवियत संघ के रास्ते पर रूस ने कुछ दिन चलने का असफल प्रयास किया लेकिन अपनी कमजोर अर्थव्यवस्था और निरंतर मजबूत होते अमेरिका के कारण पिछड़ गया। ऐसा लगने लगा था कि विश्व में एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के रूप में स्थापित हो चुकी है। 21वीं सदी में एशिया में एक नई महाशक्ति चीन के रूप में उभरी जो अभी तक चुपचाप अपनी व्यापारिक और सैन्य ताकत को बढ़ा चुकी थी। 

अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही यह स्थापित हो चुका था कि अमेरिका के प्रमुख शत्रु देश का तमगा रूस से चीन के पास जा चुका था। चीन अब खुलकर मैदान में आ चुका था और उसका सामना करने में अमेरिका खुद को कहीं न कहीं कमजोर पा रहा था। क्योंकि अमेरिका के बाजारों में चीन निर्मित सामानों का अतिक्रमण हो चुका था। चीन दक्षिणी चीन सागर और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी सैन्य गतिविधियों को लगातार बढ़ाता जा रहा था। ‘वन बेल्ट-वन रोड’ के नाम पर अपनी आर्थिक रणनीति की आड़ में अपने सैन्य लक्ष्य पूरे कर रहा था।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल चीन के साथ छद्म संघर्ष में ही बीता। अपने कार्यकाल के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने अनेकों बार चीन के साथ व्यापारिक युद्ध की बातें की और चीन से आयात को हतोत्साहित करने के लिए आयात करों को बढ़ा दिया। लेकिन कोरोना आगमन से यह व्यापारिक लड़ाई अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। अमेरिका की भी अपनी सीमाएं थी और चीन भी अब इतनी आसानी से काबू में आने वाला नहीं था। 

इसलिए भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की चौकड़ी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ती चीन की दखलअंदाजी को रोकने के लिए क्वाड का गठन किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र समकालीन विश्व भू-राजनीति का केंद्र बिंदु बन गया है। क्वाड के लिए अभी भी एक संस्थागत ढांचे का अभाव है। क्वाड को मिल रहे महत्त्व का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद जो बाईडेन ने अपनी पहली बहुपक्षीय वार्ता के लिए क्वाड जैसे संगठन को ही चुना। यह कदम उन लोगों के लिए किसी झटके से कम नहीं था जो अभी तक यह अनुमान लगा रहे थे कि डोनाल्ड ट्रम्प के बाद बाईडेन प्रशासन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक नई राह चुन सकते हैं। 

क्वाड का विचार नया नहीं है। वर्ष 2007 में जापान ने इसकी पहल की थी लेकिन भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश इसे लेकर हिचक रहे थे। उनकी हिचक की मुख्य वजह यह थी कि कहीं चीन नाराज न हो जाए। लेकिन पिछले एक वर्ष के घटना क्रम ने इन दोनों देशों की सोच बदल दी है। केवल भारत और ऑस्ट्रेलिया ही नहीं अपितु अमेरिका की भी हाल के दौर में व्यापार, ताइवान और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे कई मसलों को लेकर चीन के साथ तनातनी बढ़ी है। वही कोरोना काल में अपनी हेठी दिखाने के साथ-साथ चीन ने ऑस्ट्रेलिया पर व्यापारिक और भारत पर सामरिक शिकंजा कसने का प्रयास किया। जापान के साथ तो उसके समुद्री सीमा के मुद्दे फंसे हुए हैं। इस प्रकार विगत एक वर्ष के घटनाक्रम ने क्वाड के उभार में निर्णायक भूमिका निभाई है, क्योंकि इससे जुड़े देशों को यह आभास हुआ कि चीन को उसकी भाषा में जवाब देना आवश्यक हो गया है।

यही कारण था कि भारतीय सेनाओं ने लद्दाख की चोटियों पर चीन का सामना किया और उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। कोरोना काल के बाद जिस प्रकार से नया वैश्विक ढांचा आकार लेता जा रहा है और क्वाड की बढ़ती मान्यता को देखते हुए बीजिंग के तेवर भी बदले हुए हैं। उसे समझ आ गया है कि जब दुनिया की बड़ी शक्तियां लामबंद होंगी तो उसके क्या अर्थ हो सकते हैं। यही कारण है कि कुछ समय पहले तक क्वाड को लेकर आंखें तरेरने वाला चीन अब सहयोग और मित्रता की भाषा बोल रहा है। विगत एक वर्ष में चीन का पूरा चित्र दुनिया के सामने उजागर हो चुका है।

पिछले वर्ष अमेरिका और जापान के साथ ऑस्ट्रेलिया की सक्रिय भागीदारी में मालाबार युद्धाभ्यास एक शुभ संकेत माना जा सकता है, जो वैश्विक राजनीति में एक नई धमक के रूप में दिखाई देता है। इन देशों की बहुत सारी स्वाभाविक समानताएं है। क्योंकि ये सभी देश मूलरूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश हैं। जिनकी राय तमाम मुद्दों पर एक दूसरे से मेल खाती है। 

क्वाड आने वाले समय में वैश्विक राजनीति को दिशा देने वाला सिद्ध हो सकता है। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में स्थित देशों को इससे बहुत बड़ा सहारा और चीन के मुकाबले उचित विकल्प मिलेगा। इसकी महत्ता इससे समझी जा सकती है कि आसियान देशों के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश भी क्वाड का दायरा बढ़ाकर उसमें शामिल होने की कतार में है। यह तय है कि आने वाले समय में क्वाड का विस्तार होगा जो इसके उज्जवल भविष्य का परिचायक है।

इस नए गठबंधन से भारत का परंपरागत मित्र देश रूस कहीं ना कहीं असमंजस की स्थिति से दो-चार हो रहा है। पाकिस्तान के कारण ‘सार्क’ गठबंधन के देश सहयोग को आगे नहीं बढ़ा पाए। चीन और भारत के रिश्तों में आई खटास के कारण रिक (आरआईसी) और ब्रिक्स (बीआरआईसीएस) जैसे गठबंधन ठंडे पड़ चुके हैं।

विदेश नीति के जानकार यह भी जानते हैं कि कोई भी देश अपने सारे पत्ते नहीं खोलता। वैश्विक अर्थव्यवस्था के कारण सभी के हित साझे हैं। भारत को अपनी परिस्थितियों को देखते हुए किसी भी एक संगठन या गुट पर अतिनिर्भरता सही रणनीति नहीं हो सकती। हम क्वाड के साथ-साथ अपनी शक्ति में यथोचित वृद्धि करके आत्मनिर्भरता को प्राप्त करें ताकि वैश्विक मंच पर भारत का मस्तक ऊंचा रहे।

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