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कोरोना का कहर और अंतरराष्ट्रीय राजनीति 

व्यापार और प्रभाव की राजनीति कोरोना को दुनिया से जाने नहीं देगी, क्योंकि कोरोना का डर ही गरीब देशों को गरीब रखने और उनकी गरीबी को भी लूटने में मदद करेगा। इसमें वैक्सीन सबको न मिलना, बड़ी सहायक सिद्ध होगा और यही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का मकसद लगता है। — अनिल जवलेकर

 

कोरोना का कहर समाप्त भी नहीं हुआ है और राजनीति शुरू हो गई है। घरेलू राजनीति की तो हम काफी जानकारी रखते है लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बारे में थोड़ा उदासीन रहते है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। कोरोना की नई वैक्सीन और दवा जैसे-जैसे बाज़ार में आ रही है, वैसे-वैसे पैसा और बाजार का महत्व बढ़ गया है और उसको काबिज करने की राजनीति भी हो रही है। स्वदेषी जागरण मंच द्वारा उठाया गया ‘वैक्सीन को पेटेंट से मुक्त’ कराने का मुद्दा इसलिए महत्वपूर्ण है। भारत और अमरीका सहित करीब 60 देषों ने इसका समर्थन किया है, लेकिन अभी भी यूके और यूरोपियन यूनियन के देष इससे सहमत नहीं है। औषधि कंपनियाँ पेटेंट से मुक्ति की बात कभी नहीं चाहेगी और इसलिए बहुत से गरीब देष दबाव में है। उनको लगता है कि कोरोना की वैक्सीन और दवा पेटेंट से मुक्त हो गई तो औषधि कंपनियाँ उनको असहाय्य कर देंगी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति और दबाव तंत्र यही से शुरू हो जाता है। 

औषधि कंपनियों का कहना मुनाफे के लिए है 

पेटेंट से मुक्त कोरोना की वैक्सीन और दवा कितनी कारगर होगी और उससे किसको कितना फायदा होगा, यह कहना मुष्किल है। औषधि कंपनियों का दावा है कि वैक्सीन को बनाने में 280 मौलिक चीजों का उपयोग होता है, जिसकी पूर्ति 19 देषों में कार्यरत 86 लोग या एजंसियां करती हैं। इसलिए वैक्सीन बनाना इतना आसान नहीं है। उनके अनुसार यह एक गलत धारणा है कि फॉर्मूला सबको उपलब्ध हो जाने से वैक्सीन का उत्पादन बढ़ेगा और वैक्सीन की उपलब्धता बढ़ेगी। बहुत से देषों की ऐसा उत्पादन करने की क्षमता भी नहीं है। कंपनियों का यह भी कहना है कि पेटेंट मुक्ति से संषोधन पर भी बुरा असर पड़ेगा। कंपनियों को यह भी डर है कि पेटेंट से मुक्त होने से इस फोर्मूले का दुरुपयोग भी हो सकता है। यह बात कुछ हद तक सही है कि वैक्सीन बनाने की तकनीकी नाजुक है और थोड़ा भी उत्पादन में समझौता किया गया तो वैक्सीन बेअसर हो सकती है।  

गरीब देषों की असहायता 

वैसे औषधि कंपनियों की बात समझ में आती है, क्योंकि उनका लक्ष्य मुनाफा होता है और मुनाफे में कमी लाने वाली कोई बात उनको जंचती नहीं है। लेकिन गरीब देषों का चुप रहना समझ से बाहर है। दक्षिण अमरीका के कई देष इस मामले में चुप है। हालांकि दक्षिण अमरीकी देषों पर कोरोना का सबसे ज्यादा असर हुआ है। दुनिया में सबसे ज्यादा कोरोना की मौतें इन्हीं देषों में हुई है। फिर भी इनमें से कुछ ही देषों ने कोरोना वैक्सीन और दवा के पेटेंट मुक्ति की बात की है। दुनिया की 8 प्रतिषत लोक संख्या होते हुए भी इन देषों में कोरोना का असर सबसे ज्यादा है। इन देषों में पूरी तरह से वैक्सीन लिए हुए लोग भी कम है और उनकी दूसरे देषों की औषधि कंपनियों पर निर्भरता भी ज्यादा है और शायद यही कारण है कि वे पेटेंट मुक्त वैक्सीन और दवा का समर्थन नहीं कर पा रहे है। उनको लगता है कि ऐसा करने पर औषधि कंपनियाँ दवाईं की पूर्ति रोक लेगी और उनकी असहायता बढ़ जाएगी। 

सबको मिलकर ही कोरोना का मुक़ाबला करना होगा 

दुनिया को एक होकर कोरोना का मुक़ाबला करना जरूरी हो गया है क्योंकि कोरोना का फैलाव कही से कही पर भी हो सकता है, जो सभी देषों को भारी पड़ेगा। यह कहने की जरूरत नहीं है कि गरीब देषों के लोगों को वैक्सीन मिलना उतना ही जरूरी है जितना कि अमीर देषों के लोगों को। लेकिन अमीर देष वैक्सीन पर कब्जा बनाए रखे है। पेटेंट मुक्त करने से वैक्सीन और दवाई का उत्पादन बढ़ने में मदद मिलेगी, जिससे कोरोना का फैलाव रोका जा सकेगा। पेटेंट मुक्ति ऐसे गरीब देषों को एक मौका भी देता है कि उन्नत आरोग्य सुविधा उनके देष में भी बनाए और औषधि उद्योग बढ़ाए ताकि भविष्य में कोरोना जैसी बीमारियों का सामना अपने बलबूते पर कर सके। 

मानवीय हित सर्वोपरि हो 

पेटेंट का विचार मानवी हित को ध्यान में रखकर होना बहुत जरूरी है। जीवनोपयोगी औषधि या आरोग्य सेवा जैसी व्यवस्था पेटेंट के अधीन होना सिर्फ गरीब देषों के लिए ही नहीं मानव जाति के भविष्य के हित में नहीं होगा। जिस तरह इंटरनेट तकनीकी पेटेंट अधीन न होने से दुनिया में बहुत जल्दी फैली भी और सफल भी हुई, उसी तरह जीवनोपयोगी औषधि भी सहज उपलब्ध होनी चाहिए। कोरोना वैक्सीन और दवा का उत्पादन और वितरण सीमित रखने और मुनाफा बढ़ाने में पेटेंट का उपयोग दुरुपयोग कहा जाएगा। यहाँ यह बात समझनी जरूरी है कि जितनी जल्दी वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाया जाएगा उतनी ही जल्दी दुनिया भर के लोगों को वैक्सीन उपलब्ध की जा सकेगा। वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने में निष्चित तौर पर पेटेंट एक रुकावट है और उसको जल्द दूर करना ही मानव हित में होगा। 

भारत की प्रभावकारी नीति 

भारत देष बहुत अमीर नहीं है लेकिन वर्तमान भारत सरकार का कोरोना काल का सबसे बड़ा योगदान यही रहेगा कि उसने अपने देष में अपनी कोरोना वैक्सीन बनाने की कोषिष की और उसमें कामयाबी हासिल की। आज के अंतरराष्ट्रीय हालात देखकर तो यही लगता है कि भारत अगर कोरोना की  वैक्सीन न बनाता तो चारों तरफ से भारत को बदहाली का सामना करना पड़ता। वैक्सीन के लिए भीख मांगनी पड़ती और कोई मदद नहीं करता। ऐसे में कोरोना पता नहीं और कितनी मौतें लेता। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी एक देष दूसरे देष की वैक्सीन को कम देख रहा है और अपने देष में बने वैक्सीन को अच्छा मान रहा है। और इसलिए अपनी ही वैक्सीन को स्वीकारने के लिए दबाव की राजनीति अपना रहा है। भारत की कोविषील्ड और कोवैक्सिन को मान्यता देने में बहुत से अमीर देष जो आनाकानी कर रहे है, वह इसी राजनीति का हिस्सा है। जब भारत ने भी वही नीति अपनाई तो अब कुछ देषों ने भारत की वैक्सीन को मान्यता देने की पेषकष की है। इस कोरोना संकट में भारत का अपना वैक्सीन कारगर साबित हुआ है और कोरोना का मुक़ाबला करने में भारत सक्षम नजर आ रहा है। इसलिए भारत की स्वदेषी नीति प्रभावकारी रही है, यह एक गौरव की बात है। 

कोरोना की राजनीति खतरनाक है 

कोरोना एक महामारी है और सामान्य लोग जितने असमंजस में है उतने ही साईंटिस्ट भी इसके बारे में असमंजस में है। बहुत सी कोरोना की बातें अभी भी अंधकार में है। अभी तक इसके मूल कारण का पता नहीं चल पाया है। यह जरूर है कि इसकी शुरुआत चीन से हुई है। विष्व स्वास्थ्य संगठन तो अपने बयान बदलते नहीं थकता है। कोरोना के फैलाव के कारणों से लेकर उसकी दवाओं तक सभी तरह के संभ्रम बने हुए है। ऐसे समय में सहकार की राजनीति होनी चाहिए, न कि व्यापार और उसके फायदे की। लेकिन मानव जाति को यह श्राप ही कहा जाएगा कि यहां मौत का सौदा होता है। यह व्यापार और प्रभाव की राजनीति कोरोना को दुनिया से जाने नहीं देगी, क्योंकि कोरोना का डर ही गरीब देषों को गरीब रखने और उनकी गरीबी को भी लूटने में मदद करेगा। इसमें वैक्सीन सबको न मिलना, बड़ा सहायक सिद्ध होगा और यही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का मकसद लगता है। इसके साथ ही जहां भी प्रभावी वैक्सीन बनायी जा रही है उसे दुनिया भर में स्वीकार किया जाना चाहिए और इसमें राजनीति या व्यापार की बात नहीं होनी चाहिए। कोरोना से बचने का यही एक रास्ता फिलहाल मानव जाति को उपलब्ध है।            

अनिल जवलेकर :- सदस्य एकात्म प्रबोध मंडल (एकात्म विकास समिति ) मुंबई,
निवृत्त्त अधिकारी - नाबार्ड, 
प्रबंध समिति सदस्य - उत्तन कृषी संशोधन संस्था, केशवसृष्टी, उत्तन, भायंदर, ठाणे महाराष्ट्र 
'India's Perspective Policy on Agriculture' एवं 'Droughts and way Forward' इन पुस्तक के सहाय्यक संपादक , 
स्वदेशी जागरण मंच की 'स्वदेशी पत्रिका' (इंग्रजी व हिन्दी) लिखते रहे हैं। 

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