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विकास की राह में रोड़ा है बेढ़ब आबादी

मानव संसाधन अर्थ तंत्रा में महत्वपूर्ण संसाधन माना जाता है, लेकिन बड़ी जनसंख्या के बोझ से दबा कोई भी देश अपने मानव संसाधन को गुणवत्तापूर्ण बनाने में विफल ही रहता है। कोरोना काल के दौरान यह उजागर हुआ है कि डेमोग्राफिक डिविडेंड जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि नीति नियामकों ने डेमोग्राफिक डिजास्टर का नकारात्मक संकेत दिया है।  — अनिल तिवारी

 

व्यक्ति निर्माणकर्ता के साथ-ही-साथ उपभोक्ता भी है। यही कारण है कि उत्पादन की दर और खपत की दर में हमेशा संतुलन बना रहना चाहिए। जनसंख्या और आर्थिक विकास का एक दूसरे से अंतर्संबंध है। किसी भी देश में जनसंख्या का घनत्व कम हो और रोजगार योग्य आबादी भी कम हो तो ऐसे देश में जनसंख्या को बढ़ाना होता है। वही किसी देश में जनसंख्या का घनत्व और रोजगार योग्य आबादी भी ज्यादा हो तो उस देश में जनसांख्यिकीय संतुलन की आवश्यकता होती है, तभी कोई देश अपनी आर्थिक वृद्धि और जीवन स्तर को सुधार सकता है। लगता है इसी समझ के तहत उत्तर प्रदेश और असम सहित कुछ राज्यों ने अपनी जनसंख्या संतुलित करने के लिए नीतिगत चर्चा शुरू की है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हेमंत विस्वा सरमा द्वारा शुरू की गई पहल पर कई राजनीतिक दलों तथा सामाजिक संगठनों के कान खड़े हो गए हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में स्पष्ट रूप से कहा है कि इस बाबत किसी केंद्रीय कानून की फिलहाल जरूरत नहीं है। फिर भी सरकार के विरोधी इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने की फिराक में है। ये विघ्नसंतोषी ताकतें शायद यह भूल गई है कि सन 1952 में ही भारत दुनिया का ऐसा पहला देश बना, जिसने राष्ट्रीय परिवार नियोजन की शुरुआत की थी। यह अलग बात है कि क्रियान्वयन सही न होने के कारण यह अपने लक्ष्य से भटक गया। देश ने 1975 से लेकर 1977 तक इंदिरा सरकार का वह अमानवीय दौर भी देखा, जिसमें परिवार नियोजन के शिविरों में पुरुषों की जबरन नसबंदी कर दी गई।

महात्मा गांधी ने कहा था कि लालच को छोड़ दें तो पृथ्वी सब मनुष्यों की जरूरत पूरा कर सकती है। लेकिन कोरोना के दौर ने हमें दिखाया है कि हम किल्लत के उस मुहाने पर बैठे हैं जहां पृथ्वी हमारी जरूरत का बोझ उठाने में भी कराहने लगी है। अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन, दवाइयां, इंजेक्शन, मेडिकल स्टाफ, यानी जान बचाने का हर जरूरी सामान मरीजों की बेलगाम संख्या के आगे बौना साबित हुआ है, क्योंकि एक अनार सौ बीमार।

किसी भी देश की बड़ी आबादी बेशक उसके लिए ताकतवर वरदान मानी जाती है लेकिन उस आबादी का अगर सदुपयोग न हो तो वह अभिशाप साबित होती है। भारत में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का सबब बनी हुई है क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस हिसाब से जीवन को बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जुटाना तथा उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकारों के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो रहा है। देश की आजादी और विभाजन के बाद पहली जनगणना 1951 में हुई थी। उस वक्त भारत की आबादी मात्र 36 करोड़ थी, जो आज बढ़कर लगभग 135 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यानी हर आदमी के हिस्से के जल, जंगल, जमीन और अन्य तमाम संसाधन एक चौथाई हो चुके हैं। साथ ही जल, मिट्टी और वायु की गुणवत्ता भी रसातल में मिलती जा रही है। और तो और, जनसंख्या विस्फोट के कारण भारत से भारत की आत्मा ही गायब हो रही है। एक तरफ जहां हमारे गांव अंधाधुंध शहरीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं, वही हमारे संयुक्त परिवार भी संसाधनों का बंटवारा करते-करते अब नाममात्र ही बचे हैं।

पिछले डेढ़ साल से चल रही कोरोना महामारी के दौरान एक बात यह साफ हो चुकी है कि जनसंख्या उतनी ही अच्छी होती है जितने को प्रबंधित किया जा सके और जिसके लिए कम से कम रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई और दवाई जैसी आवश्यक सुविधाओं का इंतजाम किया जा सके। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले दो-तीन दशकों से हमारे देश में अधिकांश लोग जनसंख्या विस्फोट के मुद्दे से कतराने लगे है। 1970 से 80 के दशक में लोगों के बीच जागरूकता लाने के लिए ‘हम दो-हमारे दो’ का नारा प्रचलित हुआ था। लेकिन 1990 के बाद हमारे देश की राजनीति की दिशा ऐसी बदली कि जनसंख्या का यह ज्वलंत मुद्दा सिरे से गायब हो गया। 

वोट बैंक की राजनीति में हमारे देश के राजनीतिक दलों ने जनसंख्या विस्फोट के मुद्दे को विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के खिलाफ साजिश की तरह पेश करना शुरू कर दिया। परिणाम सामने है कि जनसंख्या विस्फोट के कारण गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ऊँचे पायदान पर पहुंच गई है। तथ्य है कि देश के 80 करोड लोग आज 2 जून की रोटी के लिए सरकार पर निर्भर हो गए हैं और बच्चों को स्कूल बुलाने के लिए उन्हें दोपहर के भोजन का लालच भी देना पड़ रहा है।

भारत में इस वक्त दुनिया की करीब 17.5 प्रतिशत आबादी है। जिसके वर्ष 2027 तक 20 प्रतिशत होने का अनुमान है। लेकिन उसके पास दुनिया का केवल 2 प्रतिशत ही भूभाग है और उसकी अर्थव्यवस्था विश्व की अर्थव्यवस्था की केवल 0.3 प्रतिशत ही है। यानी कि दुनिया का हर पांचवा आदमी भारतीय है। लेकिन उसके हिस्से में दुनिया की जमीन का 50वां टुकड़ा आ पाता है। 

दुनिया की जिन 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से होड़ लेने का हम सपना देखा करते हैं उनके सामने हम आबादी के मामले में कहां से कहां पहुंच चुके हैं। जनसंख्या के हिसाब से मिलान करें तो पिछले 70 सालों में हम 3 अमेरिका, 5 ब्राजील, 7 रूस, 8 जापान, 12 जर्मनी, 15 फ्रांस, 16 ब्रिटेन, 20 कोरिया या 27 कनाडा पैदा कर चुके हैं। हालात यह है कि हम भारत के लोग हर रोज लगभग 70 हजार बच्चे पैदा कर रहे हैं और चौपट होती अर्थव्यवस्था, महंगाई, बेरोजगारी, संसाधनों की कमी, कानून व्यवस्था के संकट और बिगड़ते पर्यावरण का रोना रोते हैं। लेकिन वही हम से 3 गुना अधिक जमीन और 5 गुना बड़ी अर्थव्यवस्था तथा दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला हमारा चिरप्रतिद्वंदी चीन 1 दिन में केवल 46 हजार बच्चे ही पैदा कर रहा है।

हालांकि देश में बढ़ती तमाम समस्याओं के पीछे जनसंख्या वृद्धि को महत्वपूर्ण कारक मानने वालों की तादाद लंबी है, लेकिन उनका रवैया दोहरा है। जो लोग इसे लेकर संसद में निजी बिल ले आते हैं, वे भी सार्वजनिक मंचों पर इसे जोर-शोर से उठाने में कतराते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई द्वारा बनाए गए 11 सदस्यीय संविधान समीक्षा आयोग (न्यायमूर्ति बैंकट चलैया आयोग) ने 2 साल के विस्तृत विचार विमर्श के बाद संविधान में आर्टिकल 47 जोड़ने के लिए और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का सुझाव दिया था, जिसे आज तक लागू नहीं किया गया। इससे पहले नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में भी इस संबंध में एक संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था। जिसमें दो से अधिक संतान वाले व्यक्तियों को संसद और विधान मंडलों का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराने का प्रस्ताव था, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी। इस पृष्ठभूमि में यदि कुछ राज्य सरकारें इसके लिए कदम बढ़ाती हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है। 

जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश को किसी धर्म या समुदाय के विरोध में उठाया गया कदम मानना संकीर्ण सोच से ज्यादा कुछ नहीं है। विरोध की मानसिकता के कारण ही राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर आबादी रोकने के उपाय शुरू किए हैं। पंचायत स्तर के चुनाव में दो संतान का फार्मूला  पहले से ही लागू किया गया है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा आदि राज्यों में इस बाबत कानून बनाया जा चुका है, इसे सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक भी ठहराया है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश और असम के नजरिये से देखें तो उनका कदम बहुत हद तक व्यवहारिक लगता है। 

हमारे देश में गरीबी और अशिक्षा के साथ-साथ जातीय राजनीति भी अपनी चुनौतियां हैं। शिक्षा के अभाव में संतान के तौर पर लड़का-लड़की में भेद कर देखा  जाता है। हालांकि कड़े कानून बनाने के खतरे भी कम नहीं है, लेकिन देशहित में लोगों को स्वप्ररेणा के रास्ते आगे बढ़ने के लिए जागरूक करना चाहिए। क्योंकि अब बहुत विलंब की गुंजाईश नहीं रह गई है। इसलिए दो संतान की नीति का कानून बनाकर क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। 

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