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आत्मनिर्भर बीज स्वराज और अन्न स्वराज की ओर भारत

आत्मनिर्भरता की दस्तक ने देश की गरीबी, जर्जर होते खेत, टूटे हुए पोषक तत्वों और जल-कल के टूटते चक्र की मरम्मत की। उन्हें नव जीवन दिया। किसानों को उनकी मेहनत की कमाई का वचन दिया है।  - डॉ. वंदना शिवा


भारत में ब्रितानी उपनिवेषवाद के चलते खेती पर शोषणकारी ’लगान’ थोपा गया। इस अन्यायी व्यवस्था ने भारत पर भोजन का संकट खड़ा कर दिया था। इस ’लगान’ के कारण हमने 1942 में बंगाल का भीषण अकाल झेला। इस अकाल में 20 लाख लोग मारे गये थे। और भारत में ब्रितानी हुकूमत के दौरान 6 करोड़ लोग मारे गए। 

एक प्रार्थना सभा के दौरान महात्मा गांधी ने कहा था- ’’हमें स्वयं-सहायता और आत्मनिर्भरता के सबक को आत्मसाथ करना होगा। इस सबक के बल पर हम विदेषों पर निर्भरता और वर्तमान दिवालियापन की स्थिति से मुक्त हो सकेंगे। मैं यह बात अहंकारवष नहीं कह रहा। मैं यह बात तथ्यों के आधार पर रख रहा हूं। हम कोई छोटी जगह नहीं हैं जो भोजन के लिए किसी बाहरी देष की मदद पर जिएं। हम एक उपमहाद्वीप हैं। हम 40 करोड़ (अब 130 करोड़) लोगों का देष हैं। हमारे देष में शक्तिषाली नदियां बहती हैं। हमारे खेत समृद्धि की विविधता से लबालब हैंकृ’’ 

आजादी के बाद हमारी खेती शोषणकारी पंजों की गिरफ्त से मुक्त हो गई, तो हमारी कृषि की संरचना पहले जैसे रूप में आने लगी। पुनर्योजी अर्थव्यवस्था की यह पहल ने हमें आत्मनिर्भरता की ओर ले गई। आत्मनिर्भरता की दस्तक ने देष की गरीबी, जर्जर होते खेत, टूटे हुए पोषक तत्वों और जल-कल के टूटते चक्र की मरम्मत की। उन्हें नव जीवन दिया। किसानों को उनकी मेहनत की कमाई का वचन/गांरटी दी। इस आत्मनिर्भरता के कदम ने सभी को पहले भोजन की उपलब्धता को प्राथमिकता दी। औपनिवेषिक नीति वाली औद्योगिक खेती आधारित नकदी फसलों और कच्चे माल को प्राथमिकता नहीं दी। 

27 सितंबर 1951 की बात है। श्री. के.एम. मुंषी भारत के पहले कृषि मंत्री थे। भारतीय खेती की पुनर्स्थापना पर एक कार्यक्रम में राज्य के कृषि निदेषकों से श्री मुंषी ने कहा- आप योजना बनाते वक्त भारत की मिट््टी, फसलों और जलवायु की विविधता को ध्यान में रखें। भारतीय खेती के उत्थान के लिए योजना का रेखांकन प्रत्येक गांव और आवष्यक हुआ तो प्रत्येक खेत को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। जब आप योजना बना रहे हों तो उसे नीचे से ऊपर की तरफ आकार दें। 

श्री मुंषी ने कहा- ’’जब आपकी अध्यक्षता में गांव के जीवन-चक्र के जल और पोषण संबंधी दोनां पहलूओं पर अध्ययन हो। आप यह भी पता करें कि जीवन के चक्र में कहां गड़बड़ी आ गई है। तब आप इस चक्र में सुधार लाने के सभी जरूरी कदमताल करें। जो लोग यह मानते है कि गांवों के जीवन चक्र की बाहाली न सिर्फ देष की स्वतंत्रता और खुषहाली के लिए जरूरी है, बल्कि देष के अस्तित्व के लिए भी परम आवष्यक है, उनके लिए जीवन चक्र की आरोग्यता को वापस लाना असंभव नहीं।’’ 

प्रकृति के चक्र के नवसृजन की प्रक्रिया और भोजन तथा खेती के प्रति हमारी आत्मनिर्भरता को रासायनिक खेती आधारित हरित क्रांति और कार्पोरेट संचालित वैष्वीकरण (जिसे मुक्त व्यापार कहा गया) ने मटियामेट कर दिया।

पृष्ठभूमिः
हरित क्रांति, भोजन के औद्योगिकीकरण और कृषि के वैश्वीकरण का आजीविका, भुखमरी और बीमारी के संकट को न्यौता देने में योगदान- हरित क्रांति का मॉडल ऊर्जा की सघनता, जल की सघनता और रसायनिकों के अंधाधुंध प्रयोग पर आधारित था। इस मॉडल ने स्वतंत्रता के बाद पुनर्स्थापना की नीतियों से होने वाले लाभ को कम किया। मिट्टी के क्षरण और भूमि कटाव को बढ़ावा दिया। भारत की लबालब जैव विविधता को खत्म करने का काम किया। देष में जल संकट को बढ़ावा दिया। जलवायु परिवर्तन में तेजी पैदा की और असाध्य बीमारियों को उत्पन्न करने में योगदान दिया। 

1991 से रासायनिक खेती के साथ खाद्य और कृषि वैष्वीकरण का समागम हुआ। इस तिकड़ी ने औद्योगिक खाद्य प्रसंस्करण के लिए हमारी मुख्य फसलों के साथ कच्चे माल की वस्तुओं के जैसा व्यवहार किया। यह सरासर गलत था। इस वजह से किसानों की निर्भरता महंगे बीजों के साथ खेती से संबंधित दूसरे आदान जैसे रासायनिक खाद, कीटनाषक और शाकनाषकों पर बढ़ने लगी। किसानों की खेती पर लागत अधिक और उत्पादन का मूल्य कम होने लगा और किसान कर्ज के दलदल में फंस गया। इस तरह से अन्नदाता के हाथों से बीज स्वराज और अन्न स्वराज छिनता गया। और इस कुचक्र के ताने-बाने ने देष में कृषि संकट को बढ़ावा देने में भरपूर योगदान दिया। 

झूठी उत्पादकताः 
किसानों का विस्थापन, आजीविका का सत्यानाश और भुखमरी एवं कुपोषण की कुंजीः नव उदारवादी वैष्वीकरण से प्रेरित औद्योगिक खेती ने किसानों को अपनी ही जमीन में शरणार्थी बना दिया। हेरफेर कर किसानों को उत्पादकता की मृग-मरीचिका में बहलाया गया, जैसे लोगों को रेगिस्तान में पानी होने का भ्रम होता है। उन्हें इस भ्रम के फंसाया गया कि वे अधिक उत्पादन कर भुखमरी को कम कर रहे हैं। 

किसानों को यह बात समझ में नहीं आने दी गई कि रासायनिक खेती में उत्पादन के लिए ऊर्जा की खपत की एवज में उनका उत्पादन कुछ भी नहीं हो रहा है। उन्होंने अपने खाते से जितना धन लगाया उत्पादन उससे कहीं कम हुआ। किसानों को समझ नहीं आया कि वे नकारात्मक आर्थिक व्यवस्था के चक्र में फंस गये हैं। उन्होंने दस यूनिट ऊर्जा की खपत पर मात्र एक यूनिट उत्पादन प्राप्त किया। उन्हें यह बात नहीं समझाई गई। इस तरह से औद्योगिक खेती छद््म उत्पादकता की आढ़ में पारिस्थितिक संकट, बेरोजगारी, भुखमरी और कुपोषण के संकट को पैदा कर रही है। 

खेती से विस्थापित किसान यानी कृषि शरणार्थी जिनका खेती से मोहभंग हो गया था, अब कोरोना लॉकडाउन की वजह से अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं। उन्हें प्रवासी श्रमिक कहना अनुचित है क्योंकि वे भारतीय नागरिक हैं और वे देष के किसी भी कौने में जाने, वहां आजीविका उत्पादन हेतु कार्य करने और वहां से घर वापस आने के लिए स्वतंत्र हैं। वे विस्थापित कार्यकर्ता हैं। 

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 48.2 करोड़ श्रमिक थे। इनमें से औपचारिक क्षेत्र में मात्र 3.3 करोड़ श्रमिक हैं। बाकी 93 प्रतिषत लोग असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करते हैं। जनगणना के अनुसार 11.9 करोड़ किसान, 14.4 करोड भूमिहीन कृषि श्रमिक और 21.9 गैर-कृषि श्रमिक हैं। 80 प्रतिषत शहरी श्रमिकों ने नौकरियां खो दीं और गांवों की तरफ पलायन शुरू कर दिया है। ये हमारी अर्थव्यवस्थ्या की नींव को मजबूत करने वाले लोग हैं। इन कामकाजी लोगों के हाथों से रोजगार छिन गया है। लोगों के हाथों से रोटी छिन जाना, एक अपराध ही है। साथ ही उन्हें पुलिस की बर्बरता का षिकार भी होना पड़ा है। 

लाखों लोगों के हाथों से आजीविका और काम छिन जाने से उनके जीवन पर भुखमरी का संकट मण्डरा रहा है। भूख और कुपोषण की संरचना भी औद्योगिक खेती और वैष्विक खाद्य प्रणाली के ही उत्पादन हैं। औद्योगिक खेती का दुष्चक्र्र छोटे खेतों और छोटे किसानों को नष्ट करने पर लगा हुआ है। छोटे किसान मात्र 25 प्रतिषत जमीन का उपयोग करते हुए 70 प्रतिषत भोजन का उत्पादन करते हैं। भारतीय भोजन प्रणाली छोटे खेतों पर आधारित है। क्योंकि, छोटे खेत जैव विविधता आधारित, किसानों के गहन ज्ञान और समझदारी होते हैं, इस लिए वे अधिक उत्पादन देते हैं। 

छद््म या झूठी उत्पादकता भी जमीन हड़पने का एक नाजायज साधन ही है। 1991 के स्ट्रक्चर एडजस्टमेंट के बाद से छोटे किसानों की जमीनों को ठेका खेती या भूमि अधिग्रहण एक्ट में बदलाव के जरिए हड़पने की कोषिष की गई। बीज स्वराज और भू स्वराज, अन्न स्वराज की नींव हैं। भारत तभी आत्मनिर्भर होगा जब किसान आत्मनिर्भर होगा। और किसान तभी आत्मनिर्भर होगा जब कोई भूखा नहीं रहेगा, जब भू स्वराज, बीज स्वराज, ज्ञान स्वराज और आर्थिक सम्प्रभुता का संरक्षण होगा। 

भारत में कुपोषण के संकट की तरह कृषि संकट भी गहराता रहा है। अब हमारे 4 लाख किसान भाइयों ने आत्महत्या कर दी है। दुनिया में भूख से पीड़ित लोगों की सबसे ज्यादा संख्या कहीं है, तो वह भारत में है। 2019 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत 102वें स्थान पर है। 

कार्पोरेट/निगम तथा अरबपति लोग अब उत्पादकता और दक्षता बढ़ाने के लिए डिजिटल खेती और ’किसानों के बिना खेती’ की बात कर रहे हैं। इस कारण से भूमि का क्षरण, भूख का संकट, काम का संकट, ज्ञान का संकट, बाहरी आदानों जैसे बीज, खाद, कीटनाषकों, तेल, मषीनरी पर निर्भरता बढ़ेगी। औद्योगिक खेती में बड़ी चतुराई से जीवाष्म ईंधन और जहरीले रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के आंकड़ों को छुपाती है। ऐसी खेती 50 प्रतिषत ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन का योगदान देती है। ये गैसे जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। ये संकट जीव प्रजातियों की विलुप्ति के कागार पर धकेलते हैं। 

एग्रीबिजनेस और औद्योगिक खाद्य प्रणाली तथा स्वास्थ्य आपातकालः विज्ञान बताता है कि कोरानो, एचआईवी, ईबोला, इनफ््लूंजा, एमईआरएस जैसी बीमारियां पषुओं से मनुष्यों में आई है। ऐसा सघन औद्योगिक खेती के द्वारा पारिस्थितिक तंत्र, असीमित और बेलगाम व्यापार मॉडल अपनाने के कारण हुआ है। उदाहरण- अमेजन को जीएम सोया और इंडोनेषिया के वर्षा वनों को ताड़ के तेल के लिए सफाया करना। ज्ञात हो कि 90 प्रतिषत जीएम सोया जैव ईंधन और जानवरों के भोजन के उपयोग में लाया जाता है। ये उत्पादक हमारी खेती के हिस्सा नहीं हैं। बल्कि, खेती तो जमीन की देखभाल करना है। भोजन से हमें पोषण मिलता है। औद्योगिक आधारित पौधों और जानवरों की एकल खेती से बीमारियां ही फैलती हैं, नई तरह की महामारी उत्पन्न होती है, असाध्य बीमारियों का प्रसार होता है। स्वास्थ्य मंत्री ने भी स्वीकार किया है कि कोविड-19 की वजह से होने वाली 70 प्रतिषत मौतें ऐसी थीं, जिसमें मृतक पहले से ही पर्यावरण और खानपान जनित बीमारियों से संक्रमित थे। 

कोविद-19 की भरपाई के लिएः धरती पर उतरो और घर को लौटोः पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था दोनों की जडे़ घर से निकलती हैं। पारिस्थितिकी के ज्ञान के आधार पर घर की अर्थव्यवस्था की देखभाल हो सकती है। पारिस्थितिकी का व्यवहारिक ज्ञान प्रकृति और सामाजिक दुनिया में संतुलन कायम करती है। संसाधनों के अनियंत्रित दोहन जीव प्रजातियों को विलुप्ति के कागार पर खड़ी करती हैं। इससे जलवायु आपदाओं को गति मिलती है और पारिस्थितिक-तंत्र ध्वस्त हो जाता है। 

इसी तरह से अर्थव्यवस्था समाज का हिस्सा है। अर्थव्यवस्था को लोकतांत्रिक नियंत्रण से बाहर और समाज की पहुंच से ऊपर रखा गया है, नैतिक मूल्य, सांस्कृतिक मूल्य, आध्यात्मिक मूल्य, देख-रेख के मूल्य, सद््भावनाओं के मूल्य को दरकिनार करते हुए शोषणकारी वैष्विक बाजार केवल अपने लाभ की बात करता है। आज प्रतिस्प्रर्द्धा ने सहयोग की भावना के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है। अधिकाधिक लोगों को आजीविका और आवष्यकता के संदर्भ में अर्थव्यवस्था से बाहर रखा गया है। 

सभी को मिलकर जैविक खेती करने, लघु उद्योग आधारित स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने और बेरोजगार लोगों को काम देने का अवसर आ चुका है। हस्त-निर्मित वस्तुएं जीवाष्म ईंधनों से मुक्त हैं। जहर मुक्त हैं। इन्हें बढ़ावा देने का समय आ गया है।

 

(क्रमशः जारी ...)
 

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