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किसानों के बहाने विपक्ष की ओछी राजनीति

केंद्र की सरकार जब कानून पर आवश्यक संशोधन करने के लिए तैयार है, तो आंदोलनरत किसान संशोधन मानने की बजाय पूरा का पूरा कानून वापस लेने की मांग पर ही क्यों अडे हैं। — अनिल तिवारी

 

देश में पिछले पच्चीस दिन से जारी किसान आंदोलन भारत के सशक्त लोकतंत्र का बेहतरीन और विपक्ष की ओछी राजनीति का ताजा उदाहरण है। केंद्र में एक बहुमतवाली सरकार जिस तरह से आंदोलन के पहले दिन से ही किसानों की मांगों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही है और उनकी आशंकाओं का समाधान करने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है, वह सराहनीय है। वहीं विपक्ष किसानों के बीच भ्रामक बातें फैला कर आग में घी डालने का काम कर रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि आंदोलन किसानों का है, लेकिन विरोधी दलों की चांदी हो गई है। उनके भाग्य से छींका टूट गया है। पिछले 6 सालों में मोदी सरकार ने कई एक भूलें की, लेकिन विपक्ष उसका बाल भी बांका नहीं कर पाया। किसानों के बहाने विपक्ष के हाथ अब एक ऐसा मामला आ गया है, जिसकी दहाड़े देश-विदेश में भी सुनी जा सकती है। इस विसंगति के लिए मोदी सरकार की जिम्मेवारी कम नहीं है। विपक्षी दलों के पुराने रवैया को ध्यान में रखते हुए अगर सरकार कृषि सुधार कानूनों को लाने से पहले ही किसान नेताओं या फिर राज्य सरकारों को विश्वास में ले लेती, तो आज पूरा देश इस तरह की अराजक स्थिति और अनावश्यक विरोध की राजनीति से बच जाता।

सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन खड़ा होगा। यह आंदोलन कई मामलों में विलक्षण है। देश में ऐसा आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ। पंजाब और हरियाणा के इन किसानों के लिए खाने-पीने से लेकर सोने-बैठने तक, हर तरह का ऐसा खासा इंतजाम हुआ है जिसे देखकर आम नागरिकों के साथ-साथ संगठनों, राजनीतिक पार्टियों के लोग भी आश्चर्यचकित हैं।

कृषि मंत्री के अलावा केंद्र के आधा दर्जन मंत्रियों के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन बात अभी वहीं पर अड़ी हुई है। कितनी विचित्र स्थिति है। मध्यस्थता के लिए सर्वोच्च अदालत को भी बीच में आना पड़ रहा है। किसान अब भी अड़े हुए हैं। सरकार का पूरा अमला-जमला किसानों को यह समझाने में लगा हुआ है कि यह कानून उनके फायदे के लिए ही बनाए गए हैं, लेकिन किसान तीनों कानूनों को वापस लिए जाने की मांग पर डटे हुए हैं। सरकार कह रही है कि तीनों कानून आपके फायदे के लिए हैं। किसान कह रहे हैं कि उन्हें नहीं चाहिए। विपक्षी दलों का आरोप है कि केंद्र की सरकार जिस तरह से नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और नागरिकता संशोधन कानून एक झटके में थोप दिए, वैसा ही किसान कानून के साथ किया गया। सदन में मतदान के बजाय इसे पिछले दरवाजे से शोरगुल में ध्वनिमत से पास करा लिया गया।

फिलहाल सरकार अपने हर कदम से बातचीत करके किसानों की समस्याओं को दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और अपनी नियत तथा अपनी मंशा लगातार स्पष्ट कर रही है। सरकार दूर दराज के अन्य किसानों के बीच जाकर इन विधेयकों के फायदे भी गिना रही है। वहीं दूसरी तरफ आंदोलन कर रहे किसान टस से मस होने को तैयार नहीं है। किसानों के इसी अड़ियल रवैये से कुछ सवाल खड़े होते हैं। केंद्र की सरकार जब कानून पर आवश्यक संशोधन करने के लिए तैयार है, तो आंदोलनरत किसान संशोधन मानने की बजाय पूरा का पूरा कानून वापस लेने की मांग पर ही क्यों अडे हैं।

बिन्दुवार बात करें तो साल 2015 की शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश के केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है, लेकिन फिर भी किसान एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था पर आश्वासन चाहते हैं जो कि सरकार लिखकर देने को तैयार है।

किसानों को डर है कि मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी, जबकि यह एक कटु सत्य है कि मौजूदा मंडी व्यवस्था के अंतर्गत मंडियों में ही किसानों का सर्वाधिक शोषण होता है। वह मंडियों में कम दामों पर अपनी उपज बेचने के लिए आढ़तियों के आगे विवश होते हैं और ये आढ़ती उन्हीं फसलों को आगे बढ़ी हुई कीमतों पर बेचते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। फिर भी किसानों की मांगों को देखते हुए केंद्र सरकार राज्यों को यह छूट देने के लिए तैयार है कि वह प्राइवेट मंडियों पर बहुत शुल्क लगा सकती हैं।

सरकार ने यह भी स्वीकार कर लिया है कि अगर कंपनियों और किसानों के बीच कोई विवाद हुआ तो वह सरकारी अधिकारियों के नहीं, अदालतों के शरण में जा सकेंगे।

जिस कांट्रैक्ट फार्मिंग कानून को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा था कि किसानों की जमीन प्राइवेट कंपनियों द्वारा हड़प ली जाएगी, उसको लेकर भी कानून में स्पष्ट था कि खेती की जमीन या बिल्डिंग गिरवी नहीं रखी जाएगी। किसानों ने मुद्दा उठाया कि नए कृषि कानूनों में कृषि अनुबंधों के पंजीकरण की व्यवस्था नहीं है, तो सरकार ने संशोधन में आश्वासन दिया कि कंपनी और किसान के बीच कांट्रैक्ट की 30 दिन के भीतर रजिस्ट्री होगी। बिजली से जुड़े नए कानून लागू करने के खिलाफ सरकार ने आश्वस्त किया है कि बिजली की पुरानी व्यवस्था जारी रहेगी और वह बिजली संशोधन बिल 2020 नहीं लायेगी। किसानों को आपत्ति है कि नए कानूनों से वह निजी मंड़ियों के चंगुल में फंस जाएंगे, सरकार ने संशोधित प्रस्ताव में निजी मंडियों के रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था की है ताकि राज्य सरकारें किसानों के हित में फैसले ले सकें।

लेकिन किसान नेताओं द्वारा संशोधित प्रस्ताव को ठुकराकर, पूरे कानून वापस लेने की मांग पर अड़ना, बैठक में बात करने के बजाय हां या ना की तख्ती लहराना, बैठक से बाहर निकल आंदोलन को और तेज करने की घोषणा करना, अदानी-अंबानी के सामान का बहिष्कार करना, जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। यह कदम आंदोलन में किसानों के पीछे छुपे विरोधी दलों के मंसूबों को उजागर कर रहे हैं, क्योंकि पिछले 9 तारीख को जब सरकार और किसानों के बीच बातचीत प्रस्तावित थी, उसके ठीक एक दिन पहले 8 तारीख को भारत बंद का आह्वान, भारत के आमजन के मन में नहीं उतरा। विरोधी पार्टी के नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति से मिलकर इन कानूनों को रद्द करने की मांग किया, इसके पीछे भी सीधी-सीधी राजनीति लोगों के समझ में आई।

देश के 86 प्रतिशत किसान छोटे किसान है, जो खुद खेती में निवेश भी नहीं कर सकते। किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के आंकड़े उनकी दयनीय स्थिति बताने के लिए काफी है। सरकार और अनेक कृषि विशेषज्ञों की राय है कि इन कानूनों से भारतीय खेती के आधुनिकीकरण की गति तेज हो जाएगी। किसान को बेहतर बीज, सिंचाई, कटाई, भंडार और बिक्री के अवसर मिलेंगे। अब तक भारतीय किसान एक एकड़ में जितना अनाज पैदा करता है वह चीन और कोरिया जैसे देशों के मुकाबले एक चौथाई से भी कम है। भारत में खेती की जमीन दुनिया के ज्यादातर देशों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। देश में किसानों की संख्या का अनुपात भी अन्य देशों के मुकाबले अधिक है, फिर भी हमारे यहां आधे से अधिक किसानों की हालत दयनीय है।

मालूम हो कि कांग्रेस ने अपने पिछले चुनावी घोषणा पत्र में कृषि से जुड़े एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने की बात कही थी। कृषि मंत्री के रूप में पिछली सरकार में एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने सुधारों की वकालत की थी। आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने बीते 23 नवंबर को नए कृषि कानूनों को नोटिफाई करके दिल्ली में लागू कर दिया है और अब वह उस विधेयक की कॉपी विधान सभा में फाड़कर विरोध की नौटंकी कर रहे हैं। एक तरह से सभी दलों के नेताओं ने समय-समय पर कृषि में ऐसे सुधारों की वकालत की थी।

इसके बावजूद किसान नेताओं का कहना है कि यह तीनों कानून किसानों की गर्दन पूंजीपतियों के हाथ में देने की है। धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म होती चली जाएगी, मंडियां उजड़ जाएगी और आढ़ती घर बैठ जाएगे और किसान हाथ मलते रह जाएंगे।

किसानों की मांग

किसानों की मांग है कि केंद्र की मोदी सरकार उनको गारंटी दे कि आने वाले कल में उनकी फसल चाहे कोई भी खरीदे एमएसपी या उससे अधिक दाम पर ही खरीदें।

सरकार का आश्वासन 

सरकार कह रही है कि जैसे हम कल एमएसपी सिस्टम चला रहे थे, वैसे ही आज चला रहे हैं और आगे भी चलाते रहेंगे। यह एमएसपी सिस्टम बना रहेगा और हम इसको लिखित में भी देने को तैयार हैं।

समस्या व समाधान

सरकार एमएसपी के मौजूदा सिस्टम को जारी रखने की बात कर रही है, जबकि किसान एमएसपी का नया सिस्टम चाहते हैं। क्योंकि एमएसपी के मौजूदा सिस्टम में दिक्कत यह है कि केंद्र सरकार एमएसपी तो कुल 23 फसलों की घोषित करती है, लेकिन खरीदती मुख्य रूप से दो फसल ही है- गेहूं और धान।

दरअसल सरकार हर साल अपने खरीद के लक्ष्य को संशोधित करती रहती है। किसानों को डर है कि अगर यह कानून पास हो गया तो प्राइवेट प्लेयर के पक्ष में सरकार खरीद के लक्ष्य को धीरे-धीरे कम करती जाएगी। हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इसके विरोध में खुलकर आगे इसलिए हैं कि अभी एमएसपी के तहत उनकी अधिकारिक फसल की खरीद होती है। उन्हें डर है कि देश के अन्य हिस्सों की तरह उनकी फसलें भी अब औने पौने दाम पर व्यापारी खरीदेंगे और वह बेचने के लिए बाध्य होंगे।

स्वदेषी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने भी मांग की है कि सरकार ऐसा कानून बनाए कि किसान की फसल एमएसपी पर ही खरीदी जाए, किसानों को एमएसपी की गारंटी देनी ही चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी किसी फसल की वह कीमत जो सरकार के हिसाब से न्यायोचित और तार्किक हो। स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से भी फसल की लागत का डेढ़ गुना है और केंद्र की मोदी सरकार किसान को उसकी फसल का डेढ़ गुना दाम देने के लिए वैसे भी प्रतिबं़़द्व है। किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने का सरकार का वादा है। ऐसे में किसानों की एमएसपी विषयक मांग को सरकार को मान लेना चाहिए और यही इस समस्या का उचित समाधान भी है।

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