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बहुराष्ट्रीय कृषि व खाद्य कंपनियों से सावधानी जरूरी!

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अपने प्रचार-प्रसार के व भ्रष्टाचार के लिए असीमित धन उपलब्ध है। अतः खाद्य व कृषि को नियंत्रित करने के उनके कुप्रयास के विरुद्ध बहुत व्यापक स्तर पर एकता बनाकर उन्हें रोकने का सतत् प्रयास करना बहुत जरूरी है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमारी खेती, किसानी, हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य की बहुत गंभीर क्षति होगी। — भारत डोगरा

 

पिछले पांच-छः दशकों में किसानों की आत्म-निर्भरता और स्वावलंबिता में भारी गिरावट आई है तथा वे कृषि की नई तकनीकों को अपनाने के साथ रासायनिक कीटनाशक दवा, रासायनिक खाद, बाहरी बीजों व उपकरणों पर बहुत निर्भर हो गये हैं। उन्होनें यह निर्भरता स्वीकार तो उस उम्मीद से की थी कि यह उन्हें आर्थिक समृद्धि की ओर ले जायेगी, पर आरंभिक कुछ वर्षों की सफलता के बावजूद कुछ ही वर्षों में भूमि के उपजाऊपन पर इन रसायनों का प्रतिकूल असर नजर आने लगा व महंगी तकनीक का बोझ परेशान करने लगा। विशेषकर छोटे किसान तो कर्ज की मार से परेशान रहने लगे। फसलों की नई किस्मों को लगने वाली नई तरह की बीमारियों व कीड़ों ने विशेष रूप से परेशान किया। अपनी परंपरागत फसलों की तो खूब समझ किसानों को थी किंतु इन नई किस्मों को जो नये तरह के रोग लग रहे थे, उसके उपचार के लिए वे क्या करें उन्हें पता नहीं था। कभी कोई महंगी रासायनिक दवा का नाम उन्हें बता दिया जाता था, कभी किसी दूसरी का। इस चक्कर में तो वे ऐसे फंसे कि कितना ही पैसा खर्च डाला पर फिर भी बीमारियों व कीड़ों के प्रकोप को संतोषजनक ढंग से कम नहीं कर सके।

जहां जमीनी स्तर पर किसान इन अनुभवों से गुजर रहे थे, वहां बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्तर पर ऐसे प्रयास चल रहे थे कि किसानों पर अपना नियंत्रण और बढ़ा लिया जाए। इस नियंत्रण को बढ़ाने का प्रमुख साधन बीज को बनाया गया क्योंकि बीज पर नियंत्रण होने से पूरी खेती-किसानी पर नियंत्रण हो सकता है।

अतः बड़ी कंपनियों ने बीज क्षेत्र में अपने पैर फैलाने आरंभ किये। पहले बीज के क्षेत्र में छोटी कंपनियां ही अधिक नजर आती थी, पर अब विश्व स्तर की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने छोटी-छोटी कंपनियों को खरीदना आरंभ किया। जो बड़ी कंपनियां इस क्षेत्र में आई, वे पहले से कृषि रसायनों व विशेषकर कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों आदि के उत्पादन में लगी हुई थी। इस तरह बीज उद्योग व कृषि रसायन उद्योग एक ही तरह की कंपनी के हाथ में केन्द्रीकृत होने लगा। इससे यह खतरा उत्पन्न हुआ कि ये कंपनियां ऐसा बीज तैयार करेंगी जो उनके रसायनों के अनुकूल हो अथवा बीज को वे अपने रसायन की बिक्री का माध्यम बनायेंगी। इस तरह बीज उद्योग का अपना जितना मूल्य था, उससे कहीं अधिक बिक्री उसके माध्यम से हो सकती थी व इस कारण अनेक बड़ी रासायनिक कंपनियां इस उद्योग की ओर आकर्षित हुई।

इसके साथ ही कृषि अनुसंधान भी सार्वजनिक क्षेत्र से निकलकर निजी क्षेत्र में अधिक पहुंचने लगा। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र के कृषि अनुसंधान संस्थान भी पहले की तरह चलते रहे, पर उनसे अधिक आर्थिक संसाधनों वाले अनुसंधान कार्यक्रम बड़ी कंपनियों ने विकसित कर लिए। अपनी आथि्र्ाक शक्ति के बल पर बड़ी कंपनियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के कृषि संस्थानों में दखलंदाजी करनी आरंभ की व उनके अनेक वैज्ञानिको को अपनी ओर आकर्षित भी कर लिया। 

जिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े-बड़े जीन बैंक बने हुए थे व जहां विभिन्न फसलों की तरह-तरह की किस्मों के बीज एकत्र किए गये थे, वहां भी बड़ी निजी कंपनियों का दखल बढ़ गया। यहां से वे अपने अनुसंधान व उत्पाद विकसित करने के लिए बहुत ही विविध प्रकार की पौध संपदा प्राप्त करने लगे। इसके अतिरिक्त उन्हांने विभिन्न उपायों से अपने विस्तृत जीन बैंक भी विकसित कर लिये। एक समय केले की विभिन्न उपलब्ध किस्मों के बारे में यह स्थिति थी कि केवल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के पास इसका दो तिहाई जनन द्रव्य केन्द्रीकृत था।

इसके बाद अगला कदम यह था कि पौधे की किसी किस्म के लिए पेटेंट के अधिकार की मांग की जाए ताकि अपने विशिष्ट बीजों के आधार पर ये बड़ी कंपनियां भारी मुनाफा कमा सकें। जीवन के किसी रूप का भी क्या पेटेंट हो सकता है, यह बात आज से मात्र दो दशक पहले तक बहुत अजीब और विकृत लगती थी। पर इसके लिए दबाव इतना जबरदस्त डाला गया कि जो असहनीय लगता था वह कुछ ही वर्षार्ें में स्वीकृत होने लगा। 

अगला कदम यह था कि विश्व के अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों द्वारा जीएम (जेनेटिकली मोडीफाईड) फसलों के खतरों के विरुद्ध चेतावनी देने के बावजूद इनमें से अनेक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जीएम फसलों के प्रसार में जुट गईं।

अनेक वैज्ञानिकों की इस तरह की स्पष्ट राय के बावजूद चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों डालर इन जीएम फसलों के प्रचार-प्रसार पर क्यों लगा रही हैं? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उनका उद्देश्य मूलतः कृषि के पर्यावरण को सुधारने या खाद्य सुरक्षा को मजबूत करना है ही नहीं अपितु उनका मूल उद्देश्य तो विश्व स्तर पर कृषि व खाद्य पर अपना नियंत्रण दृढ़ करना है। 

यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो जेनेटिक इंजीनियरिंग उनके लिए बेहतर है क्योंकि इसे बड़े संसाधनों वाली कुछ कंपनियां ही अपना सकती हैं। इसके लिए पेटेंट प्राप्त करना भी इन कंपनियों ने कानूनी बदलाव करवाकर आसान करवा लिया है व इस तरह ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर ली है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग कंपनियां जीएम बीजों के माध्यम से इस विश्व में बीज क्षेत्र को बहुत हद तक नियंत्रित कर लें। इस तरह वे बहुत मुनाफा तो कमा सकती हैं साथ ही बीज के माध्यम से कृषि व खाद्य व्यवस्था को नियंत्रित करने से उनका व अमेरिका का राजनीतिक दबदबा भी बढ़ जाएगा।

यह इन कंपनियों की योजना रही है पर आरंभ से ही यह योजना कुछ गंभीर कठिनाईयों में फंस गई है। विश्व के अनेक विख्यात व प्रतिष्ठित वैज्ञानिक आरंभ से ही इस बारे में गंभीर सवाल उठाते रहे हैं कि जेनेटिक इंजीनियरिंग को कृषि व खाद्य क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान देने के गंभीर खतरे हैं। अनेक प्रयोगों व अनुसंधान से यह गंभीर दुष्परिणाम सामने भी आने लगे। इस स्थिति में इस तकनीक को अपनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक विकल्प यह था कि वे आरंभिक समय में ही अपनी गलती स्वीकार कर इस खतरनाक तकनीक को त्याग देतीं। इससे उन्हें कुछ आर्थिक क्षति तो अवश्य होती पर वे दीर्घकालीन स्तर पर एक बेहद हानिकारक तकनीक को फैलाने के खतरों से बच जातीं।

इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस विकल्प को नहीं अपनाया अपितु जीएम फसलों के गंभीर खतरों संबंधी जानकारी को दबाने के लिए करोड़ों डालर झोंक दिए व इसके साथ ही अपने जीएम उत्पादों के लिए जल्दबाजी में अनेक महत्त्वपूर्ण विकासशील देशों (विशेषकर भारत) में स्वीकृति प्राप्त करने के प्रयास बहुत तेज कर दिए। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि एक बार यह फसलें दुनिया के बड़े क्षेत्र विशेषकर भारत व चीन में फैल गईं तो फिर शेष विश्व को भी मजबूरी में उन्हें तमाम खतरों के बावजूद स्वीकार करना ही होगा।

जीएम फसलों की विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह समय बहुत संवेदनशील है। यदि जीएम फसलों संबंधी सही जानकारी दुनिया के अधिकांश लोगों व सरकारों तक पहुंच गई तो उनका अब तक का अरबों डालर का निवेश भी खतरे में पड़ जाएगा व पर्यावरण, खेती व स्वास्थ्य क्षतिग्रस्त करने का बहुत सा मुआवजा भी देना पड़ सकता है। दूसरी ओर यदि जल्दबाजी में उन्होंने भारत जैसे कुछ बड़े देशां में जीएम फसलें फैलाने में सफलता प्राप्त कर ली तो कम से कम कुछ वर्षों के लिए उनका विश्व कृषि पर नियंत्रण हो जाएगा। चाहे बाद में इससे कितनी भी क्षति हो, पर कुछ समय के लिए मनमाने मुनाफे व अन्य लाभ प्राप्त करने के लिए उनकी स्थिति बहुत मजबूत हो जाएगी।

इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अपने प्रचार-प्रसार के व भ्रष्टाचार के लिए असीमित धन उपलब्ध है। अतः खाद्य व कृषि को नियंत्रित करने के उनके कुप्रयास के विरुद्ध बहुत व्यापक स्तर पर एकता बनाकर उन्हें रोकने का सतत् प्रयास करना बहुत जरूरी है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमारी खेती किसानी, हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य की बहुत गंभीर क्षति होगी।   

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