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स्वदेशी से ही देश की समृद्धि संभव

दुनिया बदल रही है, लेकिन समृद्ध देशों की नीति नहीं बदली है। भारत को भी समृद्ध होना होगा और उसका रास्ता स्वदेशी से ही गुजरता है। — अनिल जवलेकर

 

कोरोना जब से हावी हुआ है, दुनिया को आत्मनिर्भरता की बात सुझ रही है। सभी राष्ट्र इस बात को महसूस कर रहे कि परावलम्बिता आज के असहायता का प्रमुख कारण है। कोरोना की वजह से जागृतिकरण और उससे जुड़ी आपूर्ति श्रृंखला टूट चुकी है और आर्थिक गतिविधियां रुक सी गई है। ऐसे समय में आत्मनिर्भरता यही एक मार्ग रह जाता है। भारत शतकों से अपनी राजकीय स्वतंत्रता खो चुका था। लेकिन उसके पीछे आर्थिक सर्वभौमत्व खो देना प्रमुख कारण रहा है। और यही बात समझने की जरूरत है। भारत जब तक आर्थिक दृष्टि से सार्वभौम नहीं हो जाता, तब तक राजकीय स्वतंत्र्यता धोखे में रहेगी। अभी तो भारत, आर्थिक परवलम्बिता से ही गुजर रहा है और जल्दी इससे छुटकारा पाना जरूरी है। 

आर्थिक सार्वभौमत्व को समझना जरूरी 

भारत एक समृद्ध देश था, यह तो सभी जानते ही है और बाहरी लोग इसे लूटते रहे है, यह भी सब जानते है। इस लूट के तरीके जरूर बदलते रहे है। पहले गजनी जैसे, जो भी हाथ लगा, वह लेके भाग लिया करते थे। मुगलों ने भारत का शासन संभाला तो लूट बाहर जाना बंद तो हुई, लेकिन वही ऐशोआराम के लिए जनता को लूटते रहे। ब्रिटिश इनसे आगे थे। वे आए तो थे व्यापार करने, लेकिन जल्दी ही समझ गए सिर्फ व्यापारी बनकर देश की संपत्ति लूटी नहीं जा सकती। तो उन्होंने सत्ता और शासन अपने हाथ में लेना शुरू किया और कामयाब भी रहे। हम न उनको सत्ता से दूर रख सके, न आर्थिक लूट से। उनका तरीका सीधा-साधा था। पहले तो राजाओं के दरबार में जगह बनाओ, फिर उनमें से कुछ को लालच दो और अपनी बात मनवाते रहो। आगे चलकर वे फौज रखने लगे और मनमानी करने लगे। इसमें आर्थिक लूट का मकसद स्पष्ट था। लेकिन हम इसे समझ नहीं पाये। देश की आर्थिक शक्तियों को नियंत्रित करके संपत्ति लूटना और फिर राजनैतिक सार्वभौमत्व भी हथियाना, यह तरकीब आज भी कामयाब रही है। दूसरे महायुद्ध के बाद आर्थिक कमजोरी को अपने फायदे के लिए उपयोग में लाना, यह अंतर्राष्ट्रीय नीति रही है और भारत इस बात को अभी भी नहीं समझ पाया है। 

आज चाईना भारत को शिकंजे में ले रहा है 

आज चाईना भारत का एक बड़ा व्यापारी पार्टनर है। भारत चाईना से अपने निर्यात (16 बिलियन डॉलर) के मुक़ाबले ज्यादा आयात (65 बिलियन डॉलर) करता है। इसलिए भारत नुकसान उठाता है और चाईना मुनाफा। आजकल तो हम कंजीवरम साड़ी, राजस्थानी ज्वैलरी से लेकर खिलौने तक सबकुछ चाईना से मँगवाते है। हमारी पूजा के लिए मूर्तियां भी चाईना से आने लगी है। इस साल हम फ़ेस्टिवल ही ज्यादा नहीं मना रहे है, इसलिए शायद बाजार में चाईना माल कम दिखाई दे रहा है। वरना हमारी नीति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। आज भारत में भी 75 प्रतिशत टेलिकॉम एक्विपमेंट चाईना से आते है। औषधि कंपनियों को लगने वाला 70-80 प्रतिशत कच्चा माल चाईना से आता है। हम तो यहा तक कह सकते है कि कुछ भारतीय छोटे उद्योग तो इस आयात से पूरी तरह बंद हो चुके है और हमारे उद्योगपति अब चाईना माल के व्यापारी भर रह गए है। चाईना का उद्योग बढ़ाने का मतलब भारत का उद्योग खोना है, यह बात ध्यान रखनी होगी। 

चाईना भारत को परावलंबी बना रहा है 

दुनिया बदल रही है, लेकिन उसके चाल-चलन में कोई बदलाव नहीं आया है। विस्तारवाद और धर्म के नाम पर मानव जाति को अपने कब्जे में करने की बात अब भी हो रही है। इसलिए सावधानी जरूरी है। जो ब्रिटिशों ने किया, वहीं चाईना करने जा रहा है। पहले व्यापार और बाद में पूरे देश को वश में करना, यही उसकी भी नीति है। पहले व्यापार, बाद में निवेश। फिर तकनीकी एवं उपभोक्ता पर नियंत्रण। और आखिर में भारतीय उद्योग का परावलंबित्व होना। चाईना भारतीय उद्योगां में निवेश भी कर रहा है, जैसे कि एल्क्ट्रोनिक, वेंचर कैपिटल, पावर, वित्तीय, टेलीकॉम आदि क्षेत्र। एक बार व्यापार और उद्योग पर नियंत्रण कर लिया तो भारत को राजनीतिक तौर पर असहाय करना बड़ा मुश्किल काम नहीं है। भारत को इस चाल को समझना चाहिए और व्यापार तथा भारतीय उद्योग चाईना के ऊपर किसी भी तरह से अवलंबित न हो, यह नीति अपनानी चाहिए। 

स्वदेशी नीति और स्वदेशी उद्योग जरूरी 

भारत को यह समझना जरूरी है की दुनिया के सभी राष्ट्र अपना हित देखते है और उपकार दिखावे की बात होती है। पूंजीवादी देश हो या फिर साम्यवादी, सभी का दूसरे राष्ट्र के प्रति धारणा एक जैसी होती है। अमरीका की पूंजी हो या तकनीकी, चाईना की पूंजी और तकनीकी से अलग नहीं होती।  निवेश हो या फिर तकनीकी की लेनदेन, सभी मुनाफा देखते है और मुनाफे के लिए ही सब करते है। कोई किसी पर उपकार नहीं करता। यह सही है कि व्यापार और लेनदेन में दोनों पार्टी कम अधिक प्रमाण में अपना हित साधती है। लेकिन इसमें संतुलन एक कसरत है, जिसमें कमजोर और सभी दृष्टि से परावलंबी देश अपने हित की बात ज्यादा नहीं कर सकता और बहुत सी बातें मान लेता है। जिसमें दीर्घकाल में नुकसान होता है। भारत हमेशा से इस बात में कमजोर रहा है। पेट्रोल तथा आधुनिक तकनीकी में भारत परावलंबी रहा है और बड़े देश इसका फायदा उठाते रहे है। और इसलिए स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की नीति महत्व की हो जाती है। 

स्वदेशी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विरोध नहीं करती 

स्वदेशी कल्पना, किसी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विरोध नहीं करती। व्यापार मानवी समाज का एक अभिन्न अंग है और समाज के आर्थिक व्यवहार चलाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सवाल तब खड़ा होता है, जब व्यापार शोषण का साधन बनता है। शुरु में सैन्य ताकत मुख्य थी और ताकत के बल पर व्यापार भी नियंत्रित किया जाता था। सैन्य ताकत आज भी महत्व रखती है। बाद में तकनीकी को महत्व प्राप्त हुआ और उसने प्रगत राष्ट्रों का साथ दिया। इन स्थितियों में आज भी बदलाव नहीं हुआ है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार में ताकतवर देशों ने कमजोर देशों का शोषण करके ही अपना हित साधा है। स्वदेशी नीति में यह ध्यान रखा जाता है कि व्यापार बराबरी के हिस्सेदारी में हो। व्यापार में वस्तु एवं सेवा की लागत और गुणात्मकता को महत्व मिले, न कि किसी की ताकत को। 

स्वदेशी नीति आयात निर्यात के परे देखें

स्वदेशी नीति अभी तक आयात निर्यात को ही ध्यान में रखकर की जाती रही है। इसके परे जाना होगा। निर्यात पर आधारित विकास यह एक झूठी कल्पना है। किसी का निर्यात, किसी का आयात होता है, इसलिए यह स्वदेशी को संकुचित करती है। स्वदेशी सभी देशों की अपने-अपने विकास के लिए सहायक होती है। विकास की कल्पना अपनी-अपनी संस्कृति और उससे संबधित समाज की जरूरतें पूरी कर उन्नति करना, माना जाना चाहिए। न कि एक जैसा विकास और एक जैसी जरूरतें निर्माण करना और उसकी पूर्ति करना। इसलिए जहां लोग चावल खाते है, वहां गेहूं का उत्पादन बढ़ाना और लोगों की खाने की आदतें बदलना, विकास नहीं है। स्वदेशी ऐसा विकास चाहती है, जिसमें जहां जैसी संस्कृति है, जैसा रहन-सहन है, जैसा जहां नैसर्गिक साधन सामग्री ने जीवन ढ़ाला है, उसी को पर्यावरण और साधनों को नुकसान पहुंचाए बिना समाज समृद्ध हो। हर देश ऐसी नीति अपना सकता है और एक दूसरे का सहयोग कर सकता है।

यह किया जा सकता है -
1.    निश्चित तौर से कृषि नीति इसमें महत्त्वपूर्ण है। वह जमीन, जो उगती है और उगा सकती है, उसे ही प्रोत्साहन देना चाहिए। एक ही फसल पूरे भारत वर्ष में उगाने की नीति बदलनी होगी। आज पंजाब चावल ले रहा है और पानी की कमी वाले प्रदेश गन्ना उगा रहे है। इससे सभी को नुकसान है। उसी तरह हर कृषि उत्पाद का उत्पादन और उसकी उत्पादकता को बढ़ाना होगा और उसी की नीति अपनानी होगी। कुछ ही फसलों को अहमियत देकर उन्हीं की एमसपी बढ़ाते रहना और उन्ही से सरकारी गोदाम भरते रहने से काम नहीं चलेगा। सभी प्रदेशों के सभी किसानों को समृद्धि की ओर ले जा सके, ऐसी नीति अपनानी होगी। 
2.    हमारे जो भी मूलभूत उद्योग है उसको भारतीय करना और भारतीय तकनीकी से स्वावलंबी करना, नीति का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। न कि उसको परदेशियों को बेचकर अपनी हाल पर छोड़ना। भारतीय सरकार का भारतीय उद्योगों पर नियंत्रण आवश्यक है, यह बात नहीं भुलनी चाहिए। 
3.    जो भी परदेसी चलन उपलब्ध है उसे ठीक ढंग से उत्पादन कार्य में लगाना चाहिए, न कि उपभोग पर। ग्रामीण उद्योगों को नई तकनीकी का फायदा हो, इस तरह से इसका उपयोग होने से फायदा होगा। इन्हीं उद्योगों का उत्पादन गुणात्मक व स्पर्धा कर सके, ऐसा होना जरूरी है। 
4.    भारतीय उद्योगों की पूंजी की समस्या का हल बहुत जरूरी है। इनकी असहायता परदेशियों को नियंत्रण करने में बढ़ावा देती है और मजबूरन यह उद्योग बाहरी लोगों के हाथ में जाते है। इसलिए ये जरूरी है कि भारतीय उद्योग भारतीयों के हाथ में रहे।  
5.    सबसे बड़ी बात है कि भारतीय उपभोक्ता को भारतीय वस्तु व सेवा का उपभोग करने के लिए प्रोत्साहित करना। इसलिए स्वदेशी आंदोलन खड़ा करना, आज की एक बड़ी जरूरत है। 

दुनिया बादल रही है, लेकिन समृद्ध देशों की नीति नहीं बदली है। भारत को भी समृद्ध होना होगा और उसका रास्ता स्वदेशी से ही गुजरता है।     

लेखक स्वदेशी पत्रिका में लिखते रहे है।

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