swadeshi jagran manch logo

स्वदेशी-संस्कृति-स्वधर्म के लिए संघर्ष

जनजातीय हुतात्माओं के रक्तरंजित इतिहास की गाथा है मानगढ़ बलिदान

स्वदेशी-संस्कृति-स्वधर्म के लिए संघर्ष

जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर नर संहार की दिल दहला देने वाली घटना का साक्षी मानगढ़ धाम भले ही इतिहास में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया हो मगर राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के इस सरहदी दक्षिणांचल के लाखों लोगों के हृदय पटल पर यह श्रद्धा तीर्थ आज भी अमिट रहकर पीढ़ियों से लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरु के प्रति गुरुत्व, आदर और अगाध आस्था बनाए हुए है। — प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा

 

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राजस्थान, मध्य प्रदेश व गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र में श्री गोविन्द गुरू ने भील जनजाति बहुल क्षेत्र में ईसाई मतांतरण एवं विदेशी वस्तुओं के विरूद्ध एक व्यापक जन जागरण अभियान चलाया था। स्वदेशी, स्वधर्म व स्वदेशी संस्कृति की रक्षार्थ लाखों जनजातीय एवं शेष संपूर्ण ग्रामीण समाज की जागृति के लिए बनजारा जाति में जन्में श्री गोविन्द गुरू ने उस संपूर्ण क्षेत्र के गाँवों में हजारों ‘‘सम्प सभाओं’’ का निर्माण कर हजारों लोगों को भगत दीक्षा देकर जन जागरण में सक्रिय कर लिया था। ईसाई मतांतरण के विरूद्ध स्वदेशी वस्तुओं को  अपनाने और बेगार व बन्धुआ श्रम उन्मूलन सहित शराबबंदी और अन्य व्यवसन छुड़ाने के लिए गाँव-गाँव में यज्ञ कुण्ड प्रज्वलित कराये थे। यज्ञ कुण्ड के रूप में धूणी कहलाने वाले ऐसे अखण्ड अग्नि कुण्डों की स्थापना कर उनमें नारियल की आहुति के साथ स्वधर्म व स्वदेशी अभियान के प्रेरक श्री गोविन्द गुरू के तब लाखों शिष्य बन गये थे। पूरे क्षेत्र 20-25 लाख जनजातीय व ग्रामीण समाज में आयी जागृति से अंग्रज अधिकारी व मेवाड़ स्थित ब्रिटिश पालिटिकल एजेण्ट भयभीत होने लगे थे। इसलिए 1913 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा के अवसर पर 17 नवम्बर को गोविन्द गुरू के सानिध्य में मानगढ़ धाम स्थित 5 लाख के जन समूह पर अंग्रेज सेना ने तोपखाने के साथ आक्रमण कर दिया। उसमे 1500 से अधिक लोगों के प्राण गये व हजारों अन्य घायल हुए थे। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
वर्ष 1818 में अंग्रेजों के साथ मेवाड़ ने एक मैत्री संधि की थी। उसके उपरान्त मेवाड़ में अंग्रेज रेजिडेण्ट का नियुक्त होने और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष की विफलता के बाद तो पूर्वोत्तर से लेकर राजस्थान के जनजाति अंचल तक विदेशी मिशनरी धर्मान्तरणकर्त्ताओं द्वारा जनजातियों में अपने धर्म व संस्कृति के प्रति अनास्था उत्पन्न करने एवं विविध प्रलोभन देकर स्वधर्म छोड़कर ईसाईयत स्वीकारने के लिये दबाव बढ़ने लगा था। इस मिशनरी धर्मान्तरण रूपी आक्रमण के प्रतिकार में दक्षिण राजस्थान के वाग्वर अर्थात् वागड़ क्षेत्र में श्री गोविन्द गुरू ने जनजाति समाज के सामाजिक पुनरूत्थान एवं जनजाति समाज के सनातन संस्कारों की रक्षार्थ एक अत्यन्त प्रभावी अभियान छेड़ दिया। स्वधर्म व स्वसंस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धावश राजस्थान, मध्य प्रदेश व गुजरात के संयुक्त सीमावर्ती क्षेत्र में बसा, सम्पूर्ण जनजाति समाज गोविन्द गुरू की प्रेरणा से मिशनरी धर्मान्तरणकर्त्ताओं और अंगेज सरकार दोनों के विरूद्ध संगठित होने लग गया था। श्री गोविन्द गुरू द्वारा धुणियों में नारियल के हवन द्वारा यज्ञों में माध्यम से एवं कुरीतियों के उन्मूलन के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार व स्वदेशी भाव जागरण अभियान छेड़ दिया था। जनजातियों की पारम्परिक आस्था एवं सम्पूर्ण जनजाति समाज में परम्परा से चले आ रहे सनातन धर्म की परम्पराओं के पुनर्जीवन के साथ ही उन्हें एकजुट किये जाने से इस क्षेत्र के समग्र जनजाति समाज, देश व धर्म के नाम पर मर मिटने को तैयार हो गया था। 

जलियाँवाला के पूर्व उससे बड़ा नरसंहारः
धर्मान्तरण के विरूद्ध एकता और स्वदेशी का आग्रह अंग्रेज सरकार के लिए खतरे की घण्टी बन गई। बेगार व बन्धुआ मजदूरी का विरोध भी अंग्रेजों को खटकने लगा। जनजातियों ने अंग्रेज अधिकारियों द्वारा ली जाने वाली बेगार व बन्धुआ मजदूरी के विरूद्ध तो आर-पार का संघर्ष ही छेड़ दिया था। अपने पारंपरिक व सनातन धर्म और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये कटिबद्ध वीर जनजाति समाज को एक जुट होता देखकर अंग्रजों ने नवंबर 1913 में जालियाँवाला बाग काण्ड के बहुत पहले (6 वर्ष पूर्व) मानगढ़ धाम पर, अपनी धार्मिक आस्था से एकत्र हुए 5 लाख जनजाति समाज पर चारों ओर से घेरा डालकर तोपखाने के साथ आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप 1500 जनजाति वीर हताहत हो गये हजारों घायल हुये और श्री गोविन्द गुरू भी गोली से घायल होने पर गिरफ्तार कर लिये गये। इसी मानगढ़ धाम का यह शताब्दी वर्ष है और उसी की स्मृति में पूज्य गोविन्द गुरू के धर्म जागरण से राष्ट्र रक्षा के इस पावन सामाजिक यज्ञ का इतिवृत संक्षेप में प्रस्तुत पुस्तक में संकलित हैं।     

भौगोलिक स्थिति : 
डूंगरपुर, बाँसवाड़ा दाहोद व झाबुओं का जनजातीय क्षेत्र वस्तुतः राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश की लोक संस्कृतियों का त्रिवेणी संगम वागड़ लोक परम्पराओं, और जनजातीय जन जीवन के इन्द्रधनुषी रंगां से भरा-पूरा वह अंचल रहा है। मेवाड़ के भील समाज ने तो अरबों व मुगलों आदि के आक्रमणों का भी वीरता से विरोध किया था। 

आर्थिक व आधुनिक शिक्षा की दृष्टि में कई इस जनजाति बहुल दक्षिणाँचल को पिछड़ा माना जाता रहा हो मगर आत्म स्वाभिमान व आत्म गौरव की रक्षा के निमित्त प्राणोत्सर्ग करने का भाव इस क्षेत्र में हमेशा से रहा है। मेवाड़ के राज चिन्ह में तो बीच सूर्य व उसके एक ओर महाराणा प्रताप व दूसरी ओर भीलूराणा हैं। 

राजस्थान और गुजरात की सरहद पर पर्वतीय उपत्यकाओं में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप मानगढ़ धाम सामाजिक जागृति और स्वातंत्र्य चेतना के लिए लोक क्रांति का बिगुल बजाने वाला मानगढ़ धाम रहा है जहाँ के प्रत्येक गाँव में  क्रांतिचेता गोविन्द गुरु का सन्देश आज भी सजीव है। उनकी शिष्य परम्परा के भगत अग्नि कुण्ड रूपी घूणियाँ एवं लाखों ग्रामीण आज भी घर-घर में श्री गोविन्द गुरू की पूजा करते हैं। 

जलियाँवाला बाग काण्ड से भी वीभत्स 1913 का नरसंहार :
यहां पर 20 वीं सदी के आरंभिक दौर में बनजारा जाति में जन्में एवं लोक श्रृद्धा के महानायक गोविन्द गुरु के नेतृत्व में आयोजित सम्प सभा जिसे संस्कार सभा कहा जा सकता है में जमा हजारां श्रृद्धालु आदिवासियों पर रियासती व अंग्रेजी फौजों ने तोप, बन्दूकों और मशीनगनों से कहर बरपाते हुए इस घटना में 1500 से अधिक जनजाति देश-भक्तों को मौत के घाट उतार दिया था और कई हजार लोग घायल हुए थे।  

जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर इस नर संहार की दिल दहला देने वाली घटना का साक्षी मानगढ़ धाम भले ही इतिहास में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया हो मगर राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के इस सरहदी दक्षिणांचल के लाखों लोगों के हृदय पटल पर यह श्रद्धा तीर्थ आज भी अमिट रहकर पीढ़ियों से लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरु के प्रति गुरुत्व, आदर और अगाध आस्था बनाए हुए है।

 

गोविन्द गुरू 

गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर 1858 में डूँगरपुर जिले के बांसिया (बेड़सा) गांव में बंजारा परिवार में हुआ। बचपन से ही गोविन्द गुरु ने पढ़ाई-लिखाई के साथ ही सात्विक- आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात किया। घुमन्तु बंजारा जाति में जन्में गोविन्द गुरू ने पारम्परिक व्यापार में निर्लिप्त रह कर जन जागरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती व अन्य संत महापुरुषों के सान्निध्य में रहे गोविन्द गुरु ने सम्पूर्ण जीवन लोक जागरण और सेवा के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे समाज को उबारने के लिए राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश के सरहदी दक्षिणाँचल वागड़ को कर्म स्थल बनाया और लोकचेतना का शंख फूंका । 

इसके लिए उन्होंने 1903 में ’सम्प सभा’ नामक संगठन बनाया। इसके माध्यम से ’सम्प’ अर्थात सह संस्कारों के संवर्द्धन पूर्व मेल-मिलाप व एकता स्थापित करने, व्यसनों, बुराइयों व कुप्रथाओं के परित्याग, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, शिक्षा, सदाचार, सादगी व सरल-सहज जीवन अपनाने, अपराधों से दूर रहने के प्रति लोगों को जागृत किया गया। इस संगठन ने आपसी विवादों का निपटारा पंचायत स्तर पर ही करने में विश्वास रखा तथा समाज सुधार की गतिविधियों को बल दिया। मेल-मिलाप का अर्थ ध्वनित करने वाला यह संगठन सामाजिक सौहार्द स्थापित करने के साथ ही सदाचारी जीवन अपनाने की प्रेरणा आदिवासी समाज में भरने लगा। परिणामस्वरूप उनके अनुयायियों की तादाद लाखों में पहुँच गई। गोविन्द गुरु की अगुवाई में मानगढ़ धाम इन गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना।

मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन होने वाले मेले के क्रम में इसी मानगढ़ पहाड़ी पर 3 से 5 लाख जनजातीय भगत कहलाने वाले भक्तों का महीने भर से मेला जमा था जहाँ ये सामाजिक सुधार गतिविधियों और धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे। चारों तरफ श्रद्धा और आस्था का ज्वार फैला हुआ था। अंग्रेजी सेना इस समाज सुधार और आजादी पाने के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन को कुचलने के लिए लगातार दमन भरे प्रयासों में जुटे हुए थे। इतनी बड़ी संख्या में जनजाति भक्तों का जमावड़ा देख पहले तो तितर-बितर करने की कोशिश की मगर गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और अपने मकसद को पाने के लिए पूरे जज़्बे के साथ जुटे इन दीवानों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। 

इसी बीच अंग्रेजी सेना के नायक कर्नल शटन के आदेश पर अंग्रेजी सेना ने पूरी मानगढ़ पहाड़ी को घेर लिया और फायरिंग के आदेश दे दिए। तोप, मशीनगन और बन्दूकें गरजनें लगी और देखते ही देखते आदिवासी भक्तों की लाशें बिछ गई। जिस बर्बरता और क्रूरता के साथ अंग्रेजी फौज ने यह सब कुछ किया उसके आगे जलियांवाला बाग काण्ड की भीषणता भी फीकी पड़ गई। गोरे लोगां द्वारा ढाए गए जुल्म के इतिहास में मानगढ़ नरसंहार काले पन्ने की तरह है। 

इस भीषण नरसंहार में शहीद होने वाले भगतों की संख्या 1500 बताई गई है। गोविन्द गुरु भी पाँव में गोली लगने से घायल हो गए। यहीं उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अहमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया। जनसमूह को इकट्ठा करने, आगजनी तथा हत्या का आरोप मढ़ते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनायी गई। बाद में इस सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। फिर सजा को कम करते हुए 12 जुलाई 1923 को उन्हें संतरामपुर जेल से इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे कुशलगढ़, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर तथा संतरामपुर रियासत में प्रवेश नहीं करेंगे। गोविन्द गुरु सन 1923  से 1931 तक भील सेवा सदन झालोद के माध्यम से लोक जागरण, भगत दीक्षा व आध्यात्मिक विचार क्रांति का कार्य करते रहे। 30 अक्टूबर 1931 को लाखों भक्तों को अलविदा कह यह महान शख़्सियत महाप्रयाण कर गई। 

गोविन्द गुरु यद्यपि आज नहीं है। लेकिन, उनके घूणी रूपी यज्ञकुण्ड, उनके अनुयायी भगत, उनकें लाखों भक्तों में समाज जागरण से नई ऊर्जा और प्रेरणा संचरित कर रहे हैं। आज भी इस जनजातीय क्षेत्र में असंख्य अनुयायी हैं। जो उनके बताए व्रत का पालन करते है।

Share This

Click to Subscribe