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उतार-चढ़ाव से गुजरता रहा कोविड के उद्गम का विवाद

लोग यह जानना चाहेंगे कि यदि कोविड-19 प्राकृतिक प्रसार प्रक्रियाओं के स्थान पर प्रयोगषाला में निर्मित या जेनेटिक आधार पर बदले गए वायरस से लीक होने पर फैला है तो इसके प्रसार, उपचार, बचाव आदि पर क्या असर पड़ सकता है। इस बारे में यदि पूरी तरह वैज्ञानिक आधार पर रिपोर्ट तैयार की जा सके तो यह उपयोगी होगी। — भरत डोगरा

 

जब कोविड-19 के प्रसार के समाचार सामने आए तो पहले दौर में बहुत से लोगों ने शक किया कि इसका उद्गम वुहान (चीन) की एक प्रयोगषाला में हुई दुर्घटना के लीक से जुड़ा है। चूंकि वुहान में यह महामारी आरंभ हुई व वहीं ऐसी प्रयोगषाला स्थित थी जहां कृत्रिम व खतरनाक ढंग से बदले गए कोरोना वायरस पर कार्य हो रहा था, अतः  ऐसी संभावना व्यक्त की गई।

इस संदेह के जोर पकड़ने का एक अन्य वजह यह थी कि चीन के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाली लॉबी अमेरिका व कुछ पष्चिमी देषों में पहले से मजबूत है और उन्हें अपने प्रचार के लिए बहुत मसाला मिल गया। इस स्थिति में कुछ लोगों को हैरानी हुई जब शीघ्र ही अमेरिका व पष्चिमी देशों के कुछ बड़े वैज्ञानिकों ने यह बयान जारी किए कि प्रयोगषाला से वायरस लीक होने के संदेह में काई दम नहीं हे। उन्होंने कहा यह वायरस तो प्राकृतिक रूप से किसी पशु पक्षी से मनुष्य में आया है संभवतः चमगादड़ से यह किसी अन्य जीव में गया व उससे मनुष्य में आया।

प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के इस बयान से प्रयोगषाला से लीक वाला संदेह कुछ कुंद हो गया। फिर बड़ी हलचल तब हुई जब मीडिया में यह खबर आई कि वुहान की प्रयोगशाला का जो प्रोजेक्ट विवाद के घेरे में आया था, उसके लिए बड़ा अनुदान संयुक्त राज्य अमेरिका से ही मिला था। अमेरिका के प्रमुख सरकारी स्वास्थ्य संस्थान ने यह धनराशि न्यूयार्क स्थित एक संस्था को दी थी तथा वहां से वह आगे वुहान की कार्यषाला में भेजी गई थी। इतना ही नहीं, ऐसे अनुसंधान बहुत खतरनाक होने के बारे में, चेतावनियां पहले दी जा चुकी थीं, इसके बावजूद यह अनुदान दिया गया। यह खबर बहुत चर्चित हुई, बहुत हल्ला मचा। इसका एक कम चर्चित आश्चर्यजनक पक्ष यह भी था कि मीडिया में जो खबर इतनी प्रमुखता से आई, उसकी जानकारी महीनों से अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिकों को थी पर वे चुप रहे। खैर, इसका एक अन्य असर यह हुआ कि जो चीन की आलोचना में अधिक दिलचस्पी रखते थे, उनकी सक्रियता इस मामले में और कम हो गई क्योंकि उन्हें यह कहने में मजा नहीं आता था कि विवादग्रस्त प्रोजेक्ट चल तो चीन में रहा था पर इसका पैसा संयुक्त राज्य अमेरिका दे रहा था।

कुछ समय तो मुख्य धारणा यही बनी कि संभवतः चमगादड़ से किसी माध्यम बने जीव में व उससे मनुष्य में कोविड के वायरस का प्रवेश हुआ। पर माध्यम कौन सा जीव बना, यह जानकारी व अन्य जरूरी जानकारियां जुट नहीं पा रही थीं अतः नए सिरे से प्रयोगशाला की लीक की संभावना पर ध्यान दिया गया।

इस अनुसंधान के अधिक नजदीकी अध्ययन से पता चला कि इसमें कितनी खतरनाक संभावनाएं निहित थीं। इस आधार पर इस समय प्रयेगशाला लीक की संभावना को अधिक मान्यता मिलने लगी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाईडेन व विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख अधिकारी ने भी इसकी आगे जांच के निर्देश अपने-अपने स्तर पर दिए हैं।

फिलहाल इस समय एक बड़ा सवाल हमारे सामने यह है कि इन दो अलग तरह की संभावनाओं का कोविड-19 के बचाव व उपचार पर क्या असर पड़ता है। जनसाधारण के लिए तो यही सवाल सबसे बड़ा है।

लोग यह जानना चाहेंगे कि यदि कोविड-19 प्राकृतिक प्रसार प्रक्रियाओं के स्थान पर प्रयोगषाला में निर्मित या जेनेटिक आधार पर बदले गए वायरस से लीक होने पर फैला है तो इसके प्रसार, उपचार, बचाव आदि पर क्या असर पड़ सकता है। इस बारे में यदि पूरी तरह वैज्ञानिक आधार पर रिपोर्ट तैयार की जा सके तो यह उपयोगी होगी।

एक अन्य सवाल यह है कि क्या वुहान स्थित प्रयोगशाला में इस अनुसंधान के जो वास्तविक रिकार्ड हैं, वे पूर्णरूप से विश्व के वैज्ञानिकों को उपलब्ध हो सकते हैं ताकि वे अपने उपचार व बचाव के अनुसंधान में इसका लाभ प्राप्त करें। सबसे पूर्ण रिकार्ड तो वुहान या चीन से ही मिल सकते हैं पर इससे कुछ कम रिकार्ड संयुक्त राज्य अमेरिका की उन संस्थानों के पास भी हैं जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष स्तर पर इस अनुसंधान की फंडिग कर रहे थे। क्या कम से कम संयुक्त राज्य अमेरिका अपने पास उपलब्ध पूरे रिकार्ड को विश्व के सभी देशों के वैज्ञानिकों को उपलब्ध करवाएंगे ताकि उनके उपचार व बचाव उपायों के अनुसंधान में मदद मिल सके।

इस तरह का खतरनाक अनुसंधान विश्व में अनेकोनेक देशां में ही रहे हैं जिनमें प्रकृति में मौजूद वायरस से ज्यादा खतरनाक वायरस प्रयोगशालाओं में कृत्रिम ढंग से या जेनेटिक स्तर पर बदलाव द्वारा तैयार किए जाते हैं। इस तरह के अनुसंधान से जुड़े खतरों पर वैज्ञानिकों में पहले भी बहुत बहस होती रही है और कुछ समय के लिए ऐसे कुछ अनुसंधान पर रोक लगी भी थी (2014-15 से 2017- के दौरान)। अब समय आ गया है कि विश्व स्तर पर इस विषय पर नई बहस हो जिसमें सुरक्षा को उच्च प्राथमिकता दी जाए। 

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