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हम किनारे तो अब भी हैं, पर वो करीबी नहीं रही

भारतीय संस्कृति में नदियां

हम किनारे तो अब भी हैं, पर वो करीबी नहीं रही

आज आवश्यकता है कि नदियों के प्रति जनसामान्य में सम्मान एवं आराधना की भावना उदित हो तथा नदियों के विकास एवं उनके अविरल प्रवाह को सुनिश्चित किया जा सके, जिससे वह सच्चे अर्थों में मां के पद को हासिल कर पुनः मां की भांति संपूर्ण जीव जगत एवं प्रकृति के लिए कल्याणकारी बन सकें। — डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्र

 

मानव सभ्यता और संस्कृति का विकास सदानीरा नदियों के तट पर ही संभव हुआ है। जहां तक भारतीय संस्कृति का प्रश्न है, नदियां मानव शरीर में नाड़ी तंत्र की भांति समायी हुई हैं। जिस प्रकार नाड़ी तंत्र की सक्रियता के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती उसी तरह से नदियों के अभाव में भारतीय संस्कृति की भी कल्पना असंभव सी है। नदियां एवं भारतीय संस्कृति एक दूसरे की पूरक ही नहीं, अपितु एक दूसरे की संवाहक भी हैं।

यद्यपि भारतीय संस्कृति के आधारस्तम्भ गौ, गंगा, गायत्री, गुरु और गीता हैं, जिनमें श्रद्धा और आस्था रख, हम भारतीय जीवन, समाज, सभ्यता और संस्कृति का संवर्धन करते हैं, उसे शारीरिक, वैचारिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टता प्रदान करते हैं तथा उसमें मौलिक गुणों का सृजन कर अन्य संस्कृतियों से मौलिक रूप से अलग करते हुए समस्त जीव-जंतुओं एवं जड़ चेतन में जीवन की उपस्थिति को स्वीकार करने वाला आदर्श मानव का निर्माण करते है। वहीं दूसरी ओर, गंगा अपनी अविरल धारा से समस्त जीव-जगत, जड़-जंगम को जीवन प्रदान करने वाली मां बनकर उसे संवर्धित करने में सहयोग प्रदान करती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में गंगा को तो मां का स्थान प्राप्त ही हुआ है, उसके साथ ही साथ समस्त नदियों को भी भारतीय संस्कृति में मां के समान ही आदर एवं सम्मान प्राप्त है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति आराध्य है, पेड़ पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जड़-जंगम में भी आत्मा बसती है। प्रकृति के सभी तत्व भारतीय संस्कृति में पूज्य है, आराध्य है, यहां तक कि अत्यंत जहरीले सर्प भी पूज्य है और उनकी भी आराधना की जाती है। नाग पंचमी के दिन पूरे देश में नाग देवता की पूजा की जाती है।

वैदिक वांग्मय में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और संवर्धन हेतु निरंतर कार्य करने के निर्देश मिलते हैं। हमारे पूर्वज ऋषि मुनि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है, इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है ”वृक्षाद् वर्षति पर्जन्यः, पर्जन्यादन्न सम्भवः,“ अर्थात वृक्षों जंगलों के सहयोग से बादल वर्षा करते हैं और बादलों की वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। शास्त्रों में अन्न को प्राण बताया गया है। स्पष्ट है कि जल से जीवन उत्पन्न होकर संरक्षित एवं संवर्धित होता है। जल से जंगल उत्पन्न होता है तथा जंगल से जल वृष्टि में वृद्धि होती है, जिससे नदियां संवर्धित होती हैं। जीवन में नदियों के महत्व को देखते हुए जन्म से मृत्यु तक के लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्कार या तो नदियों के किनारे संपन्न होते रहे हैं, या उन संस्कारों के संपन्न होने के बाद नदी तट पर जाकर धन्यवाद ज्ञापित करने की प्रथा है। सामाजिक जीवन को रसमय बनाए रखने के लिए प्रायः हर छोटी-बड़ी नदी के किनारे समय-समय पर मेले एवं उत्सवों का भी आयोजन किया जाता रहा है।

संस्कृति एवं सभ्यता के विकास में नदियां अपना योगदान निरंतर दे रही हैं, किंतु हम उनके प्रति अपने दायित्व को भूल गए हैं। आज हम नदियों के किनारे जरूर हैं, किंतु नदियों के करीब नहीं रह गए हैं। अपनी सामाजिक मान्यताओं के निर्वहन के लिए भले हम नदियों के किनारे पहुंचकर उनकी पूजा-अर्चना करते हुए अपने दायित्वों के निर्वहन का ढकोसला कर उसका औपचारिक प्रदर्शन करते हैं। किंतु मूल रूप से अब हम उनसे दूर जा चुके हैं। सामाजिक एवं औद्योगिक विकास ने जहां एक ओर नदियों के जल का भरपूर शोषण कर उन्हें जलविहीन करने का कार्य किया है, वहीं दूसरी ओर नदियों में नाना प्रकार से प्रदूषण फैलाकर तथा उनके प्रवाह पथ को ही बाधित कर नदियों के जीवन को भी समाप्त करने का कार्य किया है। आज नदियां शहरों के मल, जल एवं औद्योगिक कचरा ढ़ोने वाला साधन बनकर रह गई है, जबकि नदियों का प्रवाह संस्कृति का प्रवाह है। संस्कृति के अविरल प्रवाह के लिए नदियों का अविरल प्रवाहित होना अत्यंत आवश्यक है। वैदिक काल से मां के रूप में पूज्य नदियां मात्र जल धाराएं बनकर रह गई हैं, वह भी गंदगी से परिपूर्ण। समाज में न तो उन्हें मां समझने वाले लोग बचे हैं और न ही मां मानकर उनके संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में कार्य करने वाले लोग।

अंधाधुंध विकास के नाम पर निरंतर बन रहे नए-नए बांध, जल विद्युत परियोजनाएं तथा सिंचाई एवं औद्योगिक विकास के लिए असीमित मात्रा में जल के शोषण कर नदियों को समाप्त करने का प्रयास किया गया है। नदियां अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। अनेक वर्ष से गंगा को निर्मल करने की महत्वपूर्ण परियोजना भी असीमित धनराशि व्यय करने के बाद भी मूर्तरूप  नहीं ले सकी है, तो अन्य नदियों एवं उनकी योजनाओं के संदर्भ में क्या कहा जाए। नदियों के समीप विद्यमान सभ्यता और संस्कृति की ही भांति नदियों के गर्भ में भी एक संस्कृति बसती, पलती है। नदियों में पलने वाले नाना प्रकार के जीवों तथा पाई जाने वाली वनस्पतियों का भी अपना संसार है, किंतु नदियों के समक्ष संकट उत्पन्न हो जाने से उसके गर्भ में विद्यमान जीव जगत के समक्ष भी जीवन का संकट उत्पन्न हो गया है। वस्तुतः नदियों का भी एक इको सिस्टम होता है, जिसे बनाए रखने के लिए उसमें पर्याप्त जल की उपलब्धता तथा उसमें निरंतर प्रवाह आवश्यक है। प्रवाह के बिना नदी मर जाती है।

नदियों में हो रहे मानवीय हस्तक्षेप के चलते उनकी पारिस्थितिकी में भयंकर परिवर्तन हो रहा है, हिमालय क्षेत्र की मुख्य और सहायक नदियों की मत्स्य जैव विविधता पर संकट मंडरा रहा है। चार दशकों में इस क्षेत्र की विभिन्न नदियों में मछलियों की 33 महत्वपूर्ण प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। अनेक शोधों में यह आशंका व्यक्त की गई है कि यह प्रजातियां अपना व्यवसायिक व आखेटक स्वरूप खो सकती हैं। गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के स्वामी रामतीर्थ परिसर के जंतु विज्ञान के वैज्ञानिकों की जांच रिपोर्ट के अनुसार बदलते जलीय पर्यावरण पारिस्थितिकी एवं बांधों के निर्माण से नदियों की बाधित अविरलता और अवैज्ञानिक ढंग से जल एवं खनिज के अनियंत्रित दोहन के कारण सिर्फ भागीरथी और उसकी सहायक नदियों में मछलियों की कम से कम 15 प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं तथा 33 प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर है। इनमें से 3 प्रजातियां रायमस बोला, बार बस, कोनिरास्ट्ररिस, लुप्त प्रायः 8 असुरक्षित प्रजातियों में मुख्यतः साइजोथोरेक्स, रिचाडसोनी, टौरटौर ,साइजहोथोरेक्वीस़, प्रोजेस्टस तथा 7 प्रजातियां यथा डिप्टीकसमैकुलेटस, साइजहोपागोपसिस, स्टोलजिस्की, साइजों थोरोक्वीस, इसोसाइनस, ग्लिप्टोथोरैक्स, रैटिकुलेटस को दुर्लभ समूह में रखा गया है। शोध के अनुसार बदलते जलीय पर्यावरण पारिस्थितिकी, बांधों के निर्माण से नदियों के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो रही है, जिसके कारण जलीय जीवन अस्तव्यस्त हो चुका है। शोध में पाया गया है कि 80 के दशक में जहां भागीरथी नदी में मत्स्य संपदा की 39 प्रजातियां पाई जाती थी, वह अब घटकर 24 रह गई हैं। इसी प्रकार भिलंगना, अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों में भी अनेक मत्स्य जातियां समाप्त हो गई हैं। शोध में बताया गया है कि भागीरथी नदी के 65 किलोमीटर लंबाई वाले क्षेत्र में एक के बाद एक मनेरी भाली परियोजना, टिहरी और कोटेश्वर जल विद्युत परियोजना से नदी जलाशयों की जलीय पारिस्थितिकी परिवर्तित हो गई हैं। इस कारण पर्वतीय नदियों के तेज प्रवाह एवं नदी पर्यावरण की अभ्यस्त मत्स्य प्रजातियां अपने को गहरे पानी की झील में नहीं ढ़ाल पाने के कारण यहां से विलुप्त हो गई हैं। बांध बनने से पहले इस क्षेत्र की नदियों में रनो ट्राउट, गर्रा क्रूसो, विलस सहित कई मछलियां नदी के तेज बहाव के साथ अभ्यस्त थी और नदी के तल पर पत्थरों के मध्य स्थित शैवाल और सूक्ष्म जलीय कीटों को खाकर जीवित रहती थी। लेकिन नदियों के तल एवं जल प्रवाह में  परिवर्तन हो जाने के कारण उनके रहने के स्थान समाप्त हो जाने से वह भी लगभग समाप्त हो गई हैं। साठ के दशक तक यहां के जल स्रोतों में बड़े आकार की महाशीर मछलियां सहज रूप में ही प्राप्त हो जाती थी। भीमताल झील से 22 किलोग्राम की महाशीर, यमुना नदी से 15-17 किलोग्राम की महाशीर एवं सरयू नदी से 30 से 35 किलोग्राम की महाशीर आराम से मिल जाती थी, लेकिन समय के साथ इस मछली का आकार एवं भार घटता ही चला गया।

प्रधानमंत्री की मुख्य परियोजनाओं में आने के बाद भी गंगा में प्रदूषण मुक्त प्रभूत जल राशि की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। अनेक स्थानों पर अब भी उसका पानी स्नान योग्य नहीं है। माघ मेले में इकट्ठा होने वाले लोगों के स्नान के लिए प्रतिवर्ष बांधों के द्वारा पानी छोड़ा जाता है, यदि बांधों के द्वारा समय से पानी उपलब्ध न कराया जाए तो स्नान के लिए पानी की समस्या खड़ी हो सकती है। प्रधानमंत्री जी की महत्वपूर्ण योजनाओं में शामिल धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मां गंगा की जब यह स्थिति है, अन्य नदियों के संदर्भ में कहना ही क्या है?

आज आवश्यकता है कि नदियों के प्रति जनसामान्य में सम्मान एवं आराधना की भावना उदित हो तथा नदियों के विकास एवं उनके अविरल प्रवाह को सुनिश्चित किया जा सके, जिससे वह सच्चे अर्थों में मां के पद को हासिल कर पुनः मां की भांति संपूर्ण जीव जगत एवं प्रकृति के लिए कल्याणकारी बन सकें। अन्यथा निरंतर हो रहे क्षरण तथा जलाभाव की स्थिति भारतीय संस्कृति के भी क्षरण एवं लोप का कारण बनेगी। नदिया बचेंगी, संस्कृति बचेगी। नदियां रहेंगी तो संस्कृति रहेगी।  

(लेखक जल एवं पर्यावरण मामलों के जानकार है।)

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