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सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण क्यों? 

भारत एक कृषि प्रधान देश होने के नाते ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उन्नति के बिना देश का आर्थिक विकास संभव नहीं है। इस दिशा में राष्ट्रीयकृत बैंकों का अवदान सराहनीय है। — जीवानंद भट्टाचार्य


क्या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण से भारत बड़े पैमाने पर बैंक समेकन (consolidation) के लिए आगे बढ़ रहा है? 17 मई को वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने घोषणा की कि केन्द्र जल्द ही रणनीतिक क्षेत्र में केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के लिए नई नीति लेकर आएगा। वित्तमंत्री ने कहा कि इससे बैंकिंग उद्योग मे निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा और साथ में व्यर्थ प्रशासनिक लागत को कम करेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह आज भी राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा प्रदान की गई कुशल सेवाओं का मूल्यांकन करने में पूरी तरह से विफल रही है।

इस दिशा में एनडीए सरकार जिसे हम राष्ट्रवादी सरकार कहते है, वह निजीकरण कर सरकारी बैंकों की संख्या 12 से 5 करने जा रही है। सरकार की कुछ समितियों और रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्रालय को सुझाव दिया है कि देश में पांच से ज्यादा सरकारी क्षेत्र के बैंक की जरूरत नहीं है। देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति में यह निर्णय कहां तक सफल होंगे यह सोचने की आवश्यकता है। बताया जा रहा है कि नीति आयोग ने ऐसा एक प्रस्ताव सरकार को दिया है और यह प्रस्ताव वित्त मंत्रालय में विचाराधीन है। किसी भी समस्या का उचित समाधान निर्भर करता है उस समस्या के वास्तविक कारण ढूंढने पर। लगता है वित्तमंत्री उन कारणों को ढूँढ नहीं पा रही है। 

ऐसी क्या स्थिति उत्पन्न हो गया कि आज वित्तमंत्री को राष्ट्रीयकृत बैंक एक बोझ लग रहे हैं? बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। वर्ष 1969 में देश में बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया था? इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि व्यापारिक बैंकों द्वारा कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग, गांव और कस्बों की लगातार उपेक्षा की जा रही थी। ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों तथा देश की विकास के लिए राष्ट्रीयकरण जरूरी हो गया था। प्रश्न यह है कि क्या यह निर्णय आने वाले दिनों में देश की आर्थिक विकास में कारगर साबित हुआ या नहीं। निश्चित रूप से कारगर साबित हुआ है। तभी इस कदम का विस्तार करते हुए सरकार ने 1980 में और 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। 

भारत एक कृषि प्रधान देश होने के नाते ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उन्नति के बिना देश का आर्थिक विकास संभव नहीं है। इस दिशा में राष्ट्रीयकृत बैंकों का अवदान सराहनीय है। आप साल 2014 याद कीजिए। बैंकों के साथ देश की गरीब जनता को जोड़ने के लिए करीब 40 करोड़ जन धन खाते खोले गए थे। साथ में ‘रुपे’ कार्ड जोड़ने से देश में एक डिजिटल क्रांति लाना संभव हुआ है। क्या यह काम निजी क्षेत्र के बैंकों से हो सकता था? बिल्कुल नहीं।

भारत में बैंकिंग उद्योग 2008 तक मजबूत स्थिति में था। उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी के दौर से गुजर रही थी। इसी दौर को जारी रखने के लिए एवं भारत में कॉर्पोरेट सेक्टर को और अधिक मजबूत स्थिति में लाने के लिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने ऋण प्रदान किया था। और यह ऋण लंबी अवधि की परियोजनाओं जैसे बिजली, राजमार्ग निर्माण, लोहे व इस्पात और अन्य बुनियादी ढांचा (infrastructure) उद्योग को दिया गया था। 2009 के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के दौरान भारतीय उद्योग जगत बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था को भी इस मंदी ने प्रभावित करना शुरू कर दिया था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर  घोटाले हो रहे थे, जैसे कि 2जी, कोयला खदान घोटाला और सबसे बड़ा घोटाला तो तब हुआ था जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से करोड़ों रुपये की ऋण ऐसे लोगों को बाटे गये थे जो कि ऋण देने के लिए तीन मूलभूत सिद्धांत जैसे सुरक्षा, तरलता व लाभप्रदता को बिल्कुल अनदेखी किया गया था। और यह सारे लोन चार-पांच साल में एनपीए हो गया था, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बर्बाद हो गये। इनमें से ज्यादातर ऋण इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योग को दिए गए थे और ज्यादातर प्रोजेक्ट में काम पूरा नहीं हुआ, लेकिन राजनीतिक दबाव में लोन आवंटित हो गया था जबकि मुख्य रूप से राजमार्ग और बिजली क्षेत्र में बहुत सारी परियोजनाएं चालू नहीं हुई थी और पुनर्भुगतान शुरू नहीं हो सका। इनमें से कुछ ऋणों का पुनर्गठन किया गया और कुछ मामलों में दुबारा वित्त पोषण किया गया। ये सभी ऋण 2013 से एनपीए बनना शुरू हो गया था और इस तरह से बैंकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। बैंकों को इस स्थिति से अभी तक उबरना बाकी है।

समय-समय पर बैकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए कई आयोगों का गठन किया गया था व बैंकिंग प्रणाली को और ज्यादा सुदृढ़ बनाने के लिए इन आयोगों के सुझाव को स्वीकार किया गया है।

इस संदर्भ में 1997 की एशियाई वित्तीय संकट का विश्लेषण करना चाहिए। एशियाई वित्तीय संकट थाइलैंड से शुरू हुया था। देखते ही देखते पूर्व एशिया के अनेक देश इस संकट से प्रभावित हो गये थे। इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, हांगकांग, लाओस, मलेशिया व फिलीपींस जैसे देशों को भयंकर मंदी से चोट लगीं। इस संकट में सबसे ज्यादा प्रभावित हुया था उन देशों का बैंकिंग क्षेत्र। भारत में इस मंदी का प्रभाव तुलनात्मक रूप से नाममात्र देखने को मिला था। इसका एकमात्र कारण था एक मजबूत राष्ट्रीयकृत बैंकिंग प्रणाली। इन सभी देशों में बैंकों का मालिकाना निजी क्षेत्र के पास है और इस संकट के समय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे यह सारे बैंक।

लगता है वित्तमंत्री वास्तविक स्थिति का उचित रूप से मूल्यांकन नहीं कर पा रही हैं। दरअसल बात यह है कि जबसे राष्ट्रवादी सरकार केन्द्र में आयी है हमें देश को सही आर्थिक दिशा देने का एक अवसर प्राप्त हुआ है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अनेकों कदम उठाए गए हैं। लेकिन वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए हमें एक सार्थक निर्णय की आवश्यकता है जिससे हम सभी को साथ  लेकर आगे बढ़ सके। संयोग से हाल के वर्षों में दूरदृष्टि वाला वित्तमंत्री देश को नहीं मिला। इससे पहले अटल जी की सरकार में यशवंत सिन्हा और एनडीए-1 में स्वर्गीय अरूण जेटली दोनों ने कोशिश की पर संभावित परिणाम दिखाने में असफल रहें। उदाहरण के लिए 2016 में लिया गया विमुद्रीकरण का फैसला। इसके पीछे एक बहुत अच्छी मंशा थी और इसकी जरूरत भी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साहसिक कदम उठाया था, लेकिन तत्कालीन वित्तमंत्री स्थिति को संभाल नहीं पाए और परिणामस्वरूप यह देश के अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हुआ। अब आते है जीएसटी पर। उपयुक्त रूप से लागू नहीं करने के लिए शुरूआती दौर में देश के व्यापारिक समुदाय को गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा था।

कोरोना महामारी संकट के चलते यह समस्या और भी ज्यादा गंभीर हो गयी है। इस समय देश के सामने मौजूदा अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करना है और ऐसे समय में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका पहले की तुलना में और अधिक हो गयी है। ऐसी स्थिति में निजीकरण जैसे अव्यवहारिक मुद्दों पर विचार करने का यह उपयुक्त समय नहीं है। वित्तमंत्री के दृष्टिकोण इस देश की आर्थिक आवश्यकता के अनुसार होने चाहिए, न कि उनकी अपनी सोच के हिसाब से जो देश की हित में नहीं है.

(लेखक राष्ट्रीयकृत बैंक से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हैं और वर्तमान में प्रोजेक्ट फाइनेंस कंसल्टेंसी और प्रैक्टिसिंग कॉस्ट अकाउंटेंट में कार्यरत हैं।)

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