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तलाशने होंगे परीक्षा के वैकल्पिक माध्यम

संकट की इस घड़ी में छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को भी दृष्टिगत रखते हुए माता-पिता अपने बच्चों को सार्थक और सकारात्मक सोच की ओर अग्रसर करें। कई छात्रा परीक्षा होने या न होने की संभावना के कारण अनिर्णय की स्थिति में थे। जिसके कारण उन्हें मानसिक तनाव था। — दुलीचंद कालीरमन

 

देश की भावी पीढ़ी के कर्णधार 2.60 करोड बच्चों को अब बोर्ड की परीक्षा नहीं देनी होगी। महामारी के इस दौर में बच्चों के जीवन को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा परीक्षाओं को रद्द करने का निर्णय लिया गया है। अब विद्यालयों में उपलब्ध विद्यार्थियों के आंतरिक मूल्यांकन तथा अन्य जानकारियों के आधार पर परीक्षा परिणाम घोषित होंगे। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि अगर कोई विद्यार्थी अपने परीक्षा परिणाम से संतुष्ट नहीं है तो परिस्थितियां सामान्य होने पर बोर्ड परीक्षा में बैठने का विकल्प बना रहेगा। यह वर्तमान परिस्थितियों में सबसे व्यवहारिक, सार्थक और स्वीकार्य कदम है। लेकिन इस निर्णय के बाद हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि एक वर्ष परीक्षा नहीं होने से देश की शिक्षा और छात्रों के भविष्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा और इसकी पूर्ति कैसे होगी? इस विषय पर मंथन करना आवश्यक है। 

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा राज्यों के शिक्षा बोर्डों के इस निर्णय के साथ एक नई चिंता सामने आ गई है कि बिना बोर्ड परीक्षा के अंक/ग्रेड कैसे दिए जाएंगे? विभिन्न संस्थानों में उनकी स्वीकार्यता कितनी होगी? दरअसल लोगों की आशंकाएं निर्मूल नहीं है। किसी भी छात्र के जीवन में 12वीं की परीक्षा की बहुत अहमियत होती है। इसे छात्रों के जीवन का ‘टर्निंग-प्वाइंट’ कहा जा सकता है। इसी परीक्षा के अंकों के आधार पर वे अपने आगे के जीवन में  प्रोफेशनल कोर्सेज की तरफ रुख करते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कक्षा 12वीं में आंतरिक मूल्यांकन की एक वैध और सर्वमान्य व्यवस्था सुनिश्चित करना कठिन कार्य होगा।  इसमें अंकस्फीति की संभावनाएं भी रहेंगी। जैसे की हाल ही में हरियाणा में दसवीं की परीक्षा परिणाम में देखने में आया है जिसमें अधिकतर छात्रों के अंक 90 प्रतिशत से अधिक आये हैं। ऐसे में अगर प्रतिभावान और कमजोर छात्र को एक ही मूल्यांकन पद्धति से प्रोन्नत किया जाएगा तो  जिस भारतीय मेधा का लोहा दुनिया मानती है, उसकी साख पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है। यह भी चिंता व्यक्त की जा रही है कि कक्षा 12वीं के जिन विद्यार्थियों ने कठिन परिश्रम किया अब वह व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए परीक्षा का स्वैच्छिक विकल्प ही इसकी भरपाई कर सकता है। 

बहुत समय से शिक्षाविद परीक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की बातें करते आ रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद गठित तमाम शिक्षा आयोगों ने हमारी परीक्षा प्रणाली पर गहन चिंता व्यक्त की है और इसमें सुधार हेतु अनेक अनुशंसायें की हैं। कोरोना के  इस संकट काल में अब समय आ गया है कि परीक्षा की दृष्टि से विद्यालयों को स्वायत्तता दी जाए और इस संबंध में नवाचार के लिए विद्यालयों को चिन्हित करें। ऐसे विद्यालयों की अपनी आतंरिक मूल्यांकन विधि हो जो बोर्ड द्वारा प्रशिक्षित एवं मान्य हो। 

बोर्ड की परीक्षा के साथ-साथ वर्ष भर रचनात्मक व सहभागिता पर आधारित सतत मूल्यांकन के आधार पर परीक्षा फल घोषित किया जाए। जिसमें रिपोर्ट, समूह गतिविधि, केस स्टडीज, प्रोजेक्ट रिपोर्ट, रिसर्च आधारित गतिविधियां, ओपन बुक परीक्षा का प्रयोग किया जा सकता है, जिसमें छात्रों का समग्र मूल्यांकन हो सके। यदि इस वर्ष की भांति भविष्य में कभी परिस्थितियां पैदा होती है तो हमारे पास मूल्यांकन संबंधी आंकड़ों उपलब्धता रहे। जिससे परीक्षा परिणाम घोषित करने में किसी भी प्रकार की समस्या पैदा ना हो।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्वीकार किया गया है कि वर्तमान में बोर्ड की परीक्षाओं से छात्रों पर बोझ एवं तनाव निर्माण होता है इसलिए इसमें लचीलापन लाना होगा छात्रों का मूल्यांकन मात्र तीन घंटे की ‘रटंत-पद्धति’ पर आधारित सीमित अवधि के स्थान पर न होकर वर्षभर की विभिन्न गतिविधियों में सहभागिता, आचार-व्यवहार, प्रैक्टिकल कार्य, मौखिक परीक्षा इत्यादि के आधार पर होना चाहिए।

कोरोना काल में वर्षभर ई-लर्निंग तथा ऑनलाइन शिक्षा पर ही कार्य हुआ है। लेकिन इसके साथ-साथ डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का भी प्रश्न उठता है। कहीं पर डाटा कनेक्टिविटी की समस्या है तो कहीं पर मोबाइल-लैपटॉप की उपलब्धता नहीं है। लेकिन बदलते समय में राष्ट्रीय स्तर पर कई परीक्षाएं कंप्यूटर आधारित भी हो रही है। इस दिशा में केंद्रीकृत सॉफ्टवेयर विकास के प्रयास किए जा सकते हैं ताकि तकनीकी नवाचार का लाभ शिक्षा व परीक्षा में लिया जा सके।

परीक्षा रद्द करने के फैसले के बाद विश्वविद्यालयों को स्नातक स्तर पर प्रवेश के नियमों का सूक्ष्म विवेचन करना होगा ताकि सारे प्रवेश पारदर्शी प्रक्रिया से हों। जो विद्यार्थी प्रवेश न पा सकें वे भी पारदर्शिता से संतुष्ट हो। यह कार्य कठिन है मगर विद्यार्थियों को और अभिभावकों को देश की संस्थाओं पर विश्वास करना चाहिए। छात्रों को डर है कि आंतरिक परीक्षा के मूल्यांकन के आधार पर आया नतीजा उनकी आगे की राह में बाधित होगा। बहुत से अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश की प्रक्रिया शुरू होने वाली है ऐसे में कुछ महीने बाद लिखित परीक्षा देकर अंक सुधार लेने का उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पाएगा।

विश्व के अनेक डॉक्टर और वैज्ञानिक लगातार कहते रहे हैं कि यह महामारी तुरंत जाने वाली नहीं है। इसके लिए हमें कोरोना के साथ-साथ जीने के लिए अभ्यस्त होना होगा। यह सही है कि कोरोना की दूसरी लहर खत्म होने के कगार पर है। लेकिन अब ये चिंता का विषय यह है कि क्या तीसरी लहर आएगी और इसका बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? हमें इस प्रकार की स्थितियों में सुरक्षित और स्वस्थ रहकर आवश्यक व्यवस्थाएं निर्माण करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाने होंगे। इसमें सरकार, अध्यापक वर्ग एवं अभिभावक आदि सभी की जिम्मेदारी है। संकट की इस घड़ी में छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को भी दृष्टिगत रखते हुए माता-पिता अपने बच्चों को सार्थक और सकारात्मक सोच की ओर अग्रसर करें। कई छात्र परीक्षा होने या ना होने की संभावना के कारण अनिर्णय की स्थिति में थे। जिसके कारण उन्हें मानसिक तनाव था। यह अनिश्चितता की स्थिति उनके मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल रही थी। परीक्षा रद्द करने का फैसला आना इन्हें सुकून ही दिलाएगा।

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