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शासन की नई वास्तविकताएं

एक स्वस्थ लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना की एक सक्षम सरकार। - के.के. श्रीवास्तव

 

कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता चलता है। पूरे 10 साल बाद केंद्र में एक बार फिर गठबंधन सरकार के पक्ष में परिस्थितियां निर्मित हुई है। भाजपा अपने दम पर साधारण बहुमत प्राप्त करने से 32 सीटें कम पर रुक गई है। बावजूद तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल (यू) के समर्थन से केंद्र में एनडीए की सरकार बन गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा कर अगले 100 दिनों का लक्ष्य भी तय कर दिया है। लेकिन लोगों में इस बात को लेकर आम चर्चा है कि क्या देश एक बार फिर लगभग तीन दशक पुराने गठबंधन युग की ओर लौट चला है और इसके साथ ही पिछले 10 वर्षों से देश में चल रही विकासवादी कार्यक्रमों के राह रूकावटो की भी आशंका व्यक्त की जा रही है।

वर्ष 2014 के चुनाव में देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनने लायक बहुमत देकर गठबंधन की सरकारों से मुंह मोड़ लिया था। 2019 के आम चुनाव में भाजपा को 303 सीटों पर जीता कर जनता ने मजबूत सरकार के लिए सहमति जताई थी। इस बीच विरोधी पार्टियों ने भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज पर उंगली उठाते हुए देश भर में यह प्रचारित किया कि भारत की राजनीति एकध्रुवीय दिशा में बढ़ रही है जो कि लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

मौजूदा 2024 के चुनाव में विपक्षी दलों ने जातीय जनगणना और सरकार द्वारा संविधान बदलने की बात को जोर शोर से प्रचारित कर मतदाताओं के एक बड़े तबके को अपने पाले में करने की कोशिश की। चुनाव परिणाम में पूर्व के यूपीए गठबंधन का विस्तारित संस्करण इंडिया ब्लॉक एक मजबूत विपक्ष के रूप में उभर कर आया तथा 235 सांसदों को अपने पक्ष में कर लिया। इंडिया गठबंधन के बैनर तले 235 सांसद चुनाव जीतने में सफल हुए। इस तरह तीन दशक बाद संसद को एक मजबूत विपक्ष भी मिल गया। अब संसद की राजनीति द्विध्रुवीय हो गई है। मतदाता अपने-अपने हिसाब से दोनों गठबंधनों का समर्थन कर रहे हैं लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इस चुनाव में जिन राजनीतिक दलों ने इन दोनों गठबंधनों से बाहर रहने का विकल्प चुना वे चुनाव में कोई प्रभाव नहीं डाल सके। बहुजन समाज पार्टी को पूरे देश में एक भी सीट प्राप्त नहीं हुई वहीं उड़ीसा में बीजू जनता दल के हाथ से राज्य की राजनीति निकल गई। हालांकि दोनों गठबंधनों के कांटे के संघर्ष के बीच 16 निर्दलीयों ने चुनाव में बजी मार ली है लेकिन ढेर सारे दलों के समक्ष अब आगे अस्तित्व बनाए रखने का संकट भी बढ़ता जा रहा है।

वर्ष 2014 का चुनाव अनिवार्य रूप से तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में बदलाव के लिए था। 2019 में पुलवामा और बालाकोट के बाद राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बीजेपी और अधिक मजबूत होकर उभरी थी। लेकिन मौजूदा चुनाव सामान्य चुनाव कहा जा सकता है, क्योंकि इस चुनाव में भावनात्मक मुद्दे गायब थे। यहां तक की धारा 370 और राम मंदिर का मुद्दा भी मतदाताओं को रिझाने में नाकामयाब रहा। अबकी चुनाव में मतदाताओं ने अपने रोज-रोज की रोजी-रोटी की समस्याओं अत्यंत स्थानीय मुद्दों को आगे रखा। यही कारण है कि आत्मविश्वास से लबालब और चुनाव से 4 महीना पहले ही 400 पार का दावा करने वाली भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और 2019 की तुलना में कम सीटों पर संतोष करना पड़ा। लेकिन यहां उल्लेखनीय है कि भाजपा के नेतृत्व वाले दल के लिए यह तीसरा चुनाव था और अंततोगत्वा राजग गठबंधन सरकार बनाने में भी सफल हुआ।

परिस्थितियां गठबंधन सरकारों के पक्ष में है। 11 राज्यों में क्षेत्रीय दलों की अच्छी खासी उपस्थिति है। इन राज्यों में 347 लोकसभा सीटें हैं। ऐसे 10 राज्य हैं जहां स्थानीय पार्टियों का या तो कभी दबदबा नहीं रहा या फिर उनका पतन हुआ है। इन राज्यों का 169 सीटों पर प्रतिनिधित्व है। यह कुल 21 राज्य मिलकर लोकसभा की 500 से ज्यादा सीटों पर मायने रखते हैं। इससे पहले 2014 और 2019 में कांग्रेस का प्रदर्शन इन जगहों पर बहुत कमजोर था, जिससे भाजपा को बढ़त मिल गई थी। लेकिन इस बार कांग्रेस पार्टी ने अपने गठबंधन के साथ लगातार मिलकर काम किया। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्यों में एकता बनाए रखी। तात्पर्य है कि कांग्रेस ने अपने सहयोगी क्षेत्रीय दलों के बीच महत्वपूर्ण विश्वास नेता हासिल की है और इसे हासिल करने के लिए पर्याप्त संख्या मेंसहयोगी दलों को जगह देने को भी तैयार हुई है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान परिदृश्य गठबंधन के पक्ष में है।

अब दूसरी तरफ देखें तो अगर टीडीपी और जनता दल (यू) राजग गठबंधन के बचाव में आगे नहीं आए होते तो केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनाने में तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी होती। इसे देखते हुए लगता है कि भाजपा को 10 साल बाद फिर से गठबंधन की राजनीति और समझौतो को अपनाने की नीति स्वीकार करनी होगी। इसी के चलते जाहिर तौर पर हितधारक नौकरशाह वित्तीय बाजारों और अर्थशास्त्रियों के बीच चिंताएं हैं कि अब आगे सुधारों की गति प्रभावित हो सकती है। हालांकि गठबंधन शासन का पिछला रिकॉर्ड (नरसिम्हा राव अटल बिहारी वाजपेई, मनमोहन सिंह) इसके विपरीत इशारा करता है। यह सभी जानते हैं कि गठबंधन सरकारों का सुधारों को लागू करने का रिकॉर्ड बहुत ही अच्छा रहा है। सुधार के बहुत सारे बड़े कार्य नरसिंह राव, एचडी देवगौड़ा, अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए। उनकी सुधारवादी नीतियों के कारण देश की अर्थव्यवस्था को प्रगति के पंख भी लगे। ऐसे में अब सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि नयी एनडीए सरकार कैसे आगे बढ़ती है और उतना ही महत्वपूर्ण यह भी होगा कि एक मजबूत विपक्ष कितनी जिम्मेवारी के साथ व्यवहार करता है। हालांकि यह कार्य बहुत आसान नहीं है लेकिन एक युग के लौटने के कारण उम्मीद की जा सकती है।

संभव है कि गठबंधन के सहयोगी बार-बार अपनी पसंद की चीजों की मांग करें तथा उसके लिए हठ भी कर सकते हैं लेकिन यह भी तय है कि वह अपनी सीमाएं जानते हैं। गठबंधन को टूटने की स्थिति तक वह भी नहीं पहुंचाना चाहेंगे क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल रोज-रोज महंगा होते जा रहे चुनाव में बार-बार लड़ना नहीं चाहता है। चुनाव महंगा भी हो गया है और चुनाव में अनिश्चितताएं भी बहुत है। प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक बिस्मार्क के अनुसार “राजनीति संभव करने की कला है“। वैसे भी राजनेता केवल राष्ट्रहित और सेवा के बारे में ही नहीं सोचते कई बार राष्ट्रहित से पहले उनका व्यक्तिगत अस्तित्व आगे आ जाता है।

मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए हालांकि विपक्षी इंडिया गठबंधन फिलहाल सरकार बनने से दूरी बना लिया है क्योंकि राजनीतिक माहौल उसके अनुकूल नहीं था लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं लगाया जाना चाहिए की इंडिया गठबंधन आगे राजनीति नहीं करेगा। इंडिया गठबंधन तब तक इंतजार कर सकता है जब तक उसके पक्ष में परिस्थितियां निर्मित नहीं होती लेकिन जिस दिन उसे लगेगा कि उसका पलड़ा भारी हो रहा है वह फिर खुलकर राजनीति करने लगेगा। इंडिया गठबंधन आगे भी टीड़ीपी और जदयू को लुभाने का भी काम जारी रखेगा। दोनों पार्टियों के भीतर असंतोष के बीज बोने की कोशिश करेगा। वैसे भी भाजपा का टीडीपी और जदयू के साथ पहले से ही ‘कभी प्यार, कभी नफरत’ वाला रिश्ता रहा है। देशकाल परिस्थिति के हिसाब से दोनों दलों के नेताओं का आना-जाना भी लग रहा है। मौके की तलाश इस तरफ भी रहेगी।

लेकिन नई सरकार के बनने के बाद यह माना जा रहा है कि इसका सकारात्मक परिणाम यह होगा कि मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अब बहुसंख्यकवादी लाइन पर उस तरह नहीं चल पाएगी जैसे पहले के दो कार्यकालों में चलकर दिखाया था। भाजपा को अपने बुनियादी आधारों से भी समझौता करना पड़ सकता है जिसे आगे कर पार्टी ने चुनाव लड़ा था। मसलन समान नागरिक संहिता, मुसलमान के लिए कोटा जैसे मुद्दे बीजेपी के लिए निराशाजनक हो सकते हैं।

कुल मिलाकर एक स्वस्थ लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना की एक सक्षम सरकार। प्रचंड बहुमत अहंकार को जन्म दे सकता है। वर्ष 2024 के चुनाव में भाजपा के बहुसंख्यकवाद को चोट पहुंची है। आत्मविश्वास से लबालब पार्टी लोगों के आर्थिक दुखों और स्थानीय मुद्दों को समझने में विफल रही है। लोकतंत्र में जिम्मेदार विपक्ष को रचनात्मक आलोचना करनी चाहिए और विश्वसनीय व्यवहार विकल्प पेश करना चाहिए।यह देखना होगा कि विपक्षी भारतीय गुट आगे भी क्या एक साथ रहेगा और सरकार के लिए अनावश्यक बाधाएं पैदा करने के बजाय देश की आर्थिक समृद्धि के लिए सरकार के साथ खड़ा होगा और रचनात्मक आलोचना के साथ  संसदीय भूमिका को चतुराई से निभाएगा या नहीं? जाहिर है इसके लिए हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।            

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