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क्या-क्या बदलने वाला है इस चुनाव परिणाम के बाद?

किसी भी देश को एक ऐसे नेता की जरूरत होती है, जो समय और ऊर्जा देश के सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास में लगा सके। उस पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं होना चाहिए और वह अपने परिवार के लिए धन संचय करता हुआ भी नहीं दिखाई देना चाहिए। इस लिहाज से नरेंद्र मोदी लगभग खरे उतरते हैं। - विक्रम उपाध्याय

 

किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के बाद यह कयास लगाया जा रहा है कि अब देश में बहुत कुछ बदल जाना है। 10 साल के बाद फिर से गठबंधन की सरकार जब चलेगी, तो फैसले उस तरह से नहीं हो पाएंगे, जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी लिया करते थे।

त्वरित फैसलों से होने वाले बदलाव को लेकर अलग अलग राय हो सकती है, लेकिन कोई यह नहीं कह रहा था कि भारत में कोई पॉलिसी पैरालिसिस था। उन्हीं फैसलों की बदौलत एनडीए 10 साल लगातार यह दावा करता रहा कि उसने देश का कायापलट कर दिया है। जैसे भारत की अर्थव्यवस्था अब तीसरे पायदान पर पहुँचने वाली है। जर्मनी और जापान को पीछे छोड़ते हुए भारत अब केवल चीन व अमेरिका से ही कुछ दूरी पर रहेगा। कहा यह भी जाने लगा था कि जिस तरह से चीन की हालिया आर्थिक परेशानियां बढ़ी हैं और उसका पतन जिस तेजी से हो रहा है, उसमें भारत का ऊपर की ओर बढ़ना और निश्चित हो गया है और वह 2030 तक चीन के काफी करीब भी पहुँच सकता है।

यह सच है कि भारत की अर्थव्यवस्था अधिक मजबूत और संरचनात्मक रूप से ठोस नजर आ रही है। पिछले कुछ सालों में कानून प्रणाली को भी मजबूत किया गया है। कोई बड़ा भ्रष्टाचार सतह पर नहीं आया और इतनी बड़ी आबादी को राशन, पानी, बिजली और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए संघर्ष करते नहीं देखा गया। हालांकि चुनाव परिणाम यह नहीं बताते कि जनता पूरी तरह से सरकार से संतुष्ट थी। यही कारण है कि भारतीय लोकतंत्र में मिले अवसर का लोगों ने देश की परंपरा के अनुसार अहिंसक बदलावों के लिए इस्तेमाल किया और अब एक अंकुश के साथ सरकार बनाने या चलाने का जनादेश दिया। स्पष्ट है कि इस चुनाव के बाद सरकार के काम काज के तरीके में बदलाव दिखेगा ही। हालांकि चुनावी विफलताओं के लिए केवल नेतृत्व को दोषी नहीं ठहरा सकते।

वर्तमान वैश्विक परिस्थियों में किसी कमजोर सरकार का होना आंतरिक और बाहरी दुनिया में भारत की संभावनाओं को सीमित ही करेगा। आर्थिक नीतियों में कोई भी विचलन आशाजनक परिस्थितियों को निराशा में बदल सकता है, खास कर इस नजरिए से कि कई देश गहरी मंदी में हैं। आज भारत को विश्व अर्थव्यवस्था के तेज़ विकास के जरिए विकासशील देशों में अपने नंबर ऊपर कर के विकसित देश होने की ओर अपनी बढ़त बनाए रखने की जरूरत है। यह तभी संभव है कि भारत के निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाए। पर पहले से ही कुछ घरानों के लिए काम करने के विपक्ष के आरोप के बाद सब कुछ वैसे ही चलता रहेगा या फिर उसमें बदलाव होगा। चुनाव में राहुल गांधी द्वारा अदानी-अंबानी के मुद्दे उठाए गए और इन मुद्दों पर तालियाँ मिलीं भी। क्या सरकार फिर से उन्हीं मुद्दों के आगे निर्भीक रह सकेगी?

भारत की सेना दुनिया में इस समय चौथी सबसे मजबूत सेना है। इसको और आगे ले जाने के लिए वित्तीय संसाधन के साथ सेना के प्रति लोगों में विश्वास और युवाओं में इससे जुडने की ललक भी जरूरी है, क्योंकि सेना भी जनसांख्यिकी प्रभावों से अछूती नहीं रह सकती। 2025 तक भारत अपनी सैन्य शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि करने का ब्लू प्रिन्ट तैयार कर चुका है। लेकिन सेना में नियुक्ति को लेकर एक अनिश्चितता का माहौल इन दिनों तैयार करने की कोशिश की गई। 

अग्निवीरों के बारे में जिस तरह के दावे किये गए और इंडिया गठबंधन के नेता जिस तरह से खुलेआम कहते रहे कि सत्ता में आएंगे तो अग्निवीर की योजना निरस्त कर देंगे, उससे युवाओं में असमंजस का भाव घर कर गया है। चूंकि मोदी की निवर्तमान सरकार ने अग्निवीरों में से ही नियमित सेना के जवानों की नियुक्ति का प्रावधान किया है, तो बहुत हद तक संभव है कि सैन्य नियुक्ति नियमों में भी कुछ बदलाव हो। अग्निवीरों की अभी यह शुरुआती खेप है। भारत को अपने सैन्य आधार को मजबूत करने के लिए इस योजना के प्रति युवाओं में विश्वास बहाल करना ही होगा। किसी भी संदेह की गुंजाइश भारत के लिए कुशल सैन्य शक्ति बनाने में देरी या कमजोरी का कारण बन सकती है। केवल विशिष्ट प्रौद्योगिकी विकास से ही सेना मजबूत नहीं हो सकती।

किसी भी देश को एक ऐसे नेता की जरूरत होती है, जो समय और ऊर्जा देश के सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास में लगा सके। उस पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं होना चाहिए और वह अपने परिवार के लिए धन संचय करता हुआ भी नहीं दिखाई देना चाहिए। इस लिहाज से नरेंद्र मोदी लगभग खरे उतरते हैं। लेकिन उन्हीं पर विपक्ष ने यह तोहमत लगाया है कि उन्होने गरीबों के उत्थान के लिए कोई काम नहीं किया और अपनी छवि को ज्यादा महत्व दिया। 

कहा गया कि मोदी ने खुद को ऐसा प्रोजेक्ट किया कि उनके जैसे एक मजबूत नेतृत्व के रूप में खड़े होने के बाद देश को अब और मजबूत नेताओं की जरूरत ही नहीं है। उनका आत्म केंद्रित अवतार ही उनकी कमजोरी का कारण बन गया। हालांकि उन पर निहित स्वार्थों के लिए काम करने का कोई आरोप नहीं लगा। पर समूहों के बीच नफरत और आंतरिक संघर्षों को कम करने के प्रति उनकी भूमिका पर लोगों ने सवाल जरूर उठाया। मशहूर मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर की यह उक्ति है कि- “प्रभावी नेतृत्व का मतलब भाषण देना या पसंद किया जाना नहीं है; बल्कि परिणामों से होता है।“ 

चुनाव में काँग्रेस को जो भी सफलता मिली, उसे उस पार्टी के नेता जनता से मिली सहानुभूति और करुणा का प्रतिफल बता रहे हैं। अलग-अलग संस्कृति, धर्म और भाषाओं के बीच सेतु बनने के प्रयास को इसका श्रेय देते हैं। वे देश को एक सूत्र में पिरोकर सबको आगे बढ़ाने की भी बात करते हैं। काँग्रेस के नेता राहुल गांधी देश के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने की पहल का दावा करते हैं। क्या इससे भारत की राजनीति में कुछ बदलाव होगा। ये सारी बातें बनावटी भी हो सकती हैं, लेकिन इस बार इसके साथ सफलता, चुंबक में लोहे जैसी चिपक गई है, तो संभावना है कि कुछ दिन के लिए पोलिटिकल नैरेटिव भी बदल जाए। सबका साथ, सबका विकास का कोई नया शोधन शब्द सामने आ जाए और अब लोगों में दोष खोजने के बजाय, व्यवस्था में सुधार परिलक्षित हो।

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