जलवायु प्रवासन और शरणार्थी
जलवायु प्रवास के इस बड़े संकट को देखते हुए दुनिया के सभी देश खासकर आमिर मुल्कों को आगे आकर मानवता की रक्षा के लिए अपना सबसे अच्छा योगदान सुनिश्चित करना चाहिए। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन से बढ़ते तापमान समुद्री जलस्तर एवं अन्य मौसमी चरम घटनाओं के कारण जलवायु प्रवासन में भी तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि अभी तक किसी भी वैश्विक संस्था द्वारा ऐसे किसी प्रवासन और जलवायु शरणार्थियों के लिए कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अभी तक प्रवासन के मुख्य कारकों में सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक और धार्मिक कारणों को ही परिभाषित किया जाता रहा है।
जलवायु प्रवासन से तात्पर्य पर्यावरण में परिवर्तन के कारण (जो उनके रहने की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है) लोगों के बड़े पैमाने पर विस्थापन से है। वर्तमान में मानव प्रवासन और विस्थापन के लिए जलवायु परिवर्तन को एक महत्वपूर्ण चालक के रूप में पहचान गया है उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सूचकांक का अनुमान है कि हर वर्ष मौसम संबंधी घटनाओं के कारण दुनिया भर के देशों में औसतन 20 मिलियन लोग अन्य क्षेत्रों में विस्थापित होते हैं। यूएनएचसीआर के अनुसार जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव तेज हो रहे हैं, अधिक से अधिक लोग सुरक्षित और अधिक टिकाऊ जीवन स्थितियों की तलाश में अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर होते रहे हैं। हालांकि इससे पूर्व भी पर्यावरणीय चालकों से जुड़ी मानव गतिशीलता देखी जाती रही है, लेकिन वर्तमान में वैश्विक जलवायु परिवर्तन और प्रभाव अधिक आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय प्रवासन और विस्थापन को गति दे रहा है।
कभी-कभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी प्रत्यक्ष होते हैं। भारत में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कुछ क्षेत्रों में सुखा के कारण वहां के लोग रोजी-रोटी अर्जित करने के लिए प्रदेश से बाहर का रास्ता अपनाते रहे हैं। आज से एक दो दशक पहले इन क्षेत्रों से जो लोग उर्वर क्षेत्र में गए उनमें से अधिकांश वहीं रह गए। हालांकि अब स्थितियों में थोड़ा बदलाव आया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई की नदी जोड़ो योजना के बदौलत वहां की छोटे नदियों में भी बरसात का पानी जमा होने लगा है जिससे पानी की समस्या का दिन प्रतिदिन सकारात्मक हल निकल रहा है। कमोबेस यही स्थिति महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के कुछ क्षेत्रों की है। वहां के निवासियों को भी पानी के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। वहां के कई दुर्गम गांव में लोग अपनी बच्चियों का शादी विवाह करने से भी कतराते हैं क्योंकि उन्हें पता है की पानी का संकट उन्हें कभी भी प्रवासन के लिए मजबूर कर सकता है। पूरी दुनिया ने देखा कि 2022 में सूखा के कारण एक मिलियन से अधिक सोमालियावासी अपने निवास स्थान से सुरक्षित स्थानों की ओर विस्थापित हुए थे।
हालांकि कई बार यह प्रभाव अप्रत्यक्ष भी होता है जिसमें यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कैसे बढ़ता वैश्विक तापमान नौकरियां और आजीविका को खतरे में डालता है, जो लोगों को प्रवासन के लिए मजबूर करता है।
ज्ञात हो कि जलवायु परिवर्तन के कारण हुए प्रवासन में भी जटिलताएं पैदा होती हैं। उदाहरण के लिए किसी देश या क्षेत्र से उत्पीड़न संघर्ष और हिंसा के कारण जबरन विस्थापित किए गए अधिकांश लोग जब दूसरे देशों में या अन्य क्षेत्रों में प्रवास करने के लिए जाते हैं तो उन्हें अक्सर दूर दराज के स्थान, भीड़भाड़ वाले शिविरों या अनौपचारिक बस्तियों में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। ऐसी जगह पर बुनियादी सेवाओं या बुनियादी ढांचे तक उनकी बहुत ही सीमित पहुंच होती है, जहां वे बाढ़, सूखा, तूफान और हीट वेव जैसे जलवायु खतरों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
प्रोफेसर मायर्स ने अपने एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि 2050 तक जलवायु प्रवासियों की अनुमानित संख्या 200 मिलियन तक हो सकती है। यह अनुमान दुनिया भर में वर्तमान में एक स्वीकृत आंकड़ा बन गया है क्योंकि इसे आईसीसी से लेकर स्टर्न रिव्यू तक के प्रकाशनों में उद्धृत किया जा चुका है। यह भविष्य का आंकड़ा इसलिए भी अधिक परेशान करने वाला है क्योंकि अब वर्तमान के संपूर्ण प्रलेखित शरणार्थी और आंतरिक रूप से विस्थापित आबादी की तुलना में 10 गुना वृद्धि को दर्शाता है। यदि यह आंकड़ा सही साबित होता है तो 2050 तक दुनिया में प्रत्येक 45 लोगों में से 12 लोग जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित होंगे। यह आंकड़ा वर्तमान वैश्विक प्रवासी आबादी से अधिक है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन के अनुसार लगभग 192 मिलियन लोग या यूं कहें कि दुनिया की आबादी का तीन प्रतिशत अब भी अपने जन्म स्थान से बाहर रहते हैं।
आईपीसी की रिपोर्ट के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन से वर्ष 2099 तक दुनिया आज की तुलना में औसतन 1.8 डिग्री सेंटीग्रेड से चार डिग्री सेंटीग्रेड तक अधिक गर्म होने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से 21 बड़े क्षेत्र के शुष्क होने का अनुमान है। इसके साथ ही वर्ष 2050 तक निरंतर सूखा वाली भूमि दो प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत होने की उम्मीद है।
21वीं सदी के मध्य तक मध्य और दक्षिण एशिया में फसल की पैदावार 30 प्रतिशत तक गिर सकती है वर्षा पैटर्न पर प्रभाव होगा कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन बढ़ेगा जल विज्ञान चक्र भी बदलेगा। इससे कुछ स्थानों पर अत्यधिक वर्षा और कुछ स्थानों पर सूखे जैसी समस्या उत्पन्न हो सकती है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि दक्षिण एशियाई मानसून वर्ष 2050 तक लगभग 20 प्रतिशत तक मजबूत हो जाएगा। पूर्वी भारत और बांग्लादेश में अपने वर्तमान से एक प्रतिशत तक अधिक बारिश हो सकती है। इसके उलट निम्न से मध्य अक्षांशों पर कम बारिश की उम्मीद है। उप सहारा अफ्रीका के आंतरिक भागों में वार्षिक वर्षा 10 प्रतिशत तक कम हो सकती है कम वर्षा का विशेष रूप से अफ्रीकी कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा जो कि बड़े पैमाने पर वर्षा पर ही आधारित है।
इसके साथ ही 2050 के दशक तक प्रतिवर्ष बाढ़ से प्रभावित लोगों की संख्या 10 से बढ़कर 25 मिलियन प्रतिवर्ष हो सकती है। रिपोर्ट के अनुसार समुद्र स्तर में वर्ष 2030 तक 8 सेंटीमीटर से 13 सेंटीमीटर के बीच वर्ष 2050 तक 17 सेंटीमीटर से 29 सेंटीमीटर के बीच और वर्ष 2100 तक 35 सेंटीमीटर से 82 सेंटीमीटर के बीच वृद्धि हो सकती है। इस बढ़े हुए समुद्र के स्तर में वृद्धि के परिणाम स्वरुप तटीय आर्द्र भूमि का क्षेत्र घटने का अनुमान किया गया है इससे आर्द्र भूमि का नुकसान 2050 और 2021 के दशक तक दुनिया के मौजूदा तटीय आर्द्र भूमि का क्रमशः 25 प्रतिशत और 42 प्रतिशत तक हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन का प्रवासन पर प्रभाव के संबंध में वर्ष 1990 में ही इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने आगाह किया था कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव मानव प्रवास पर हो सकता है। इसके प्रमुख कारणों में तट रेखा कटाव, तटीय बाढ़ और कृषि व्यवधान से लाखों लोग अपने मूल निवास क्षेत्र से विस्थापित हो सकते हैं।
जलवायु प्रवासन कोई नई बात नहीं है। साक्ष्यों से पता चलता है कि मानव बस्ती के पैटर्न ने जलवायु में परिवर्तनों के प्रति बार-बार प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पहले भी बड़े शहरी सभ्यताओं का उद्भव जलवायु और पर्यावरणीय शुष्कता के संयोजन से प्रेरित था। मिस्त्र और मेसोपोटामिया के जटिल समाजों का उदय तब हुआ जब लोग शुष्क वन भूमि से दूर नदी क्षेत्र की ओर पलायन करने लगे। चौथी शताब्दी के दौरान बढ़ती स्वच्छता और ठंडा तापमान में लंबे समय तक ठंडी हवा के कारण जर्मनी के लोगों की भीड़ बोल्गा की ओर बढ़ गई और अंततः बीसीगोथ्स द्वारा रोम पर कब्जा कर लिया गया। इसी तरह आठवीं शताब्दी में भूमध्य सागर और दक्षिणी यूरोप में मुस्लिम विस्तार को आकार मिला। मध्य पूर्व में अत्यंत सुखा के कारण वहां के लोगों ने विस्थापन किया। उसी दौर में विभिन्न कारणों से मुस्लिम आबादी भारत आई और धीरे-धीरे यहां की निवासी बनती गई।
1951 का जेनेवा कन्वेंशन शरणार्थियों की कानूनी परिभाषा देता है लेकिन इसमें शरण मांगने के आधार के रूप में जलवायु आपदाएं शामिल नहीं है। पहली बार 1985 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम में पर्यावरणीय प्रावधान के कारण अपना निवास छोड़ने वाले लोगों को शरणार्थी के रूप में परिभाषित किया। वर्ष 2011 के नार्वे में जलवायु परिवर्तन और विस्थापन पर नामसेन सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन और सीमा पर विस्थापन पर 10 सिद्धांत तैयार किए गए। वर्ष 2018 में शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कंपैक्ट में जलवायु शरणार्थियों का संदर्भ है लेकिन देश की ओर से करवाई योग्य प्रतिबद्धताओं का अभाव है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया और तूआलू ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए हैं जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित तूआलू के कुछ लोगों को ऑस्ट्रेलिया में प्रवास करने और वहां काम करने की अनुमति देता है। जलवायु प्रवासन निश्चित रूप से एक गंभीर समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। जलवायु शरणार्थियों के लिए अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा अथवा उनके जीवनयापन विषयक कोई रोड मैप तैयार नहीं हुआ है। यहां तक की कोई भी वैश्विक संस्था इस समस्या को चिन्हित करने और फिर उसका सम्यक हल निकालने के लिए आगे नहीं आई है। लेकिन इस बड़े संकट को देखते हुए दुनिया के सभी देश खासकर आमिर मुल्कों को आगे आकर मानवता की रक्षा के लिए अपना सबसे अच्छा योगदान सुनिश्चित करना चाहिए।
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