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ई-कॉमर्सः भाव, भय और भर्त्सना

ई-कॉमर्स प्लेटफार्म पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बड़ी पूंजी, तकनीकी वर्चस्व और उनके विशाल आकार को देखते हुए उनकी प्रतिस्पर्धा विरोधी, नियामक विरोधी प्रथाओं से सावधान रहने की आवश्यकता है, वरना उनके द्वारा छोटे, असंगठित क्षेत्र के ऑफलाइन खुदरा व्यापार को शिकार बनाए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।  - के.के श्रीवास्तव

 

तुलसी बाबा ने 400 साल पहले एक सबक सूत्र दिया था “दुई न होंहि एक संग भुआलू, हंसब ठठाई फुलाइब गालू“ यानी एक समय में ही हंसना और रोना दोनों साथ-साथ नहीं हो सकता। लेकिन उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय ने इसे नकारते हुए ई-कॉमर्स प्लेटफार्म पर मौजूद बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शातिराना ढंग से काम करने की आलोचना करते हुए अपने बयान में इसके खतरों के प्रति संकेत तो किया है, लेकिन लगे हाथों पूंजी के बड़े खिलाड़ियों से सजे-धजे ई-कॉमर्स को उपभोक्ताओं के लिए आवश्यक जरूरत भी बताया है।

हाल ही में केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने अमेज़न जैसे वैश्विक ई-कॉमर्स दिग्गजों की व्यावसायिक कारोबारी पद्धति की आलोचना की। उन्होंने उनके भारतीय नियमों के पालन पर सवाल उठाया। इसके अलावा उन्होंने उन पर प्रतिस्पर्धा विरोधी मूल्य निर्धारण का सहारा लेने का आरोप लगाया। भर्त्सना मूल्य निर्धारण में कम कीमतों पर बिक्री करना, जानबूझकर भारी नुकसान को अवशोषित करना शामिल है, लेकिन प्रतिस्पर्धा को खत्म करके अंततः बाजार प्रभुत्व स्थापित करने की दृष्टि से या कम से कम छोटे खुदरा विक्रेताओं की कीमत पर कम कीमतों की पेशकश करना (जो इन कम कीमतों से मेल नहीं खा सकते हैं) उचित व्यापार व्यवहार नहीं है। इस दृष्टि से परिधान और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स, विशेषकर मोबाइल में रियायती दरें विशेष रूप से प्रासंगिक हैं। गोयल के अनुसार इस तरह की भर्त्सना प्रथाओं के कारण एक करोड़ से अधिक छोटे वेंडिंग स्टोर और लगभग 10 करोड़ छोटे-छोटे स्टोर (परिवार द्वारा संचालित व्यवसाय, जिसे हम भारत में किराना स्टोर भी कहते हैं) के खतरे में पड़ने की संभावना है। प्रारंभ में ऐसा लगा कि उन्होंने बड़े ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों के खिलाफ मत दिया है, विशेष रूप से ज्यादा पूंजी वाले बड़े प्लेटफॉर्मों के खिलाफ, लेकिन बाद में उन्होंने अपने बयान में बदलाव करते हुए कहा कि ई-कॉमर्स बुरा नहीं है, क्योंकि यह उपभोक्ताओं को भारी लाभ प्रदान करता है (खरीदने में आसानी, विस्तृत चयन, पहुंच)। वह निष्पक्ष व्यवहार के अभाव को लेकर दुःखी था। गोयल के अनुसार, सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, यहां वास्तव में छोटे और मध्यम व्यवसायों को अपने उत्पाद बेचने में मदद करने के लिए नहीं आए हैं। विशेष रूप से ये ई-कॉमर्स दिग्गज बहुत आकर्षक आकार के बाज़ार के कारण भारत आते हैं।

ई-कॉमर्स एक तकनीकी मंच है जो खरीदारों और विक्रेताओं को एक जगह पर एकत्रित करता है। पारिभाषिक दृष्टि से कहें तो यह एक विक्रेता भी है। यह अमेरिका के उस मॉडल से अलग है जहां वॉलमार्ट और अमेज़न इन प्लेटफार्मों पर सीधे अपने स्वामित्व वाले उत्पाद बेचते हैं। भारतीय कानून तथाकथित इन्वेंट्री संचालित मॉडल के अभ्यासों की अनुमति नहीं देते हैं। भारत में अमेज़न और फ्लिपकार्ट (वॉलमार्ट की पर्याप्त हिस्सेदारी के साथ) सीधे बिक्री नहीं कर सकते हैं। वे केवल बाज़ार की पेशकश कर सकते हैं। यह विनियमन इन बड़े प्लेटफार्मों को बड़े विक्रेताओं के एकाधिकार शक्ति रोकने के लिए पेश किया गया था, जो संभावित रूप से विशाल असंगठित (छोटे) विक्रेताओं को बिना किसी प्रभाव के बाजार से बाहर कर सकते हैं। विशेष रूप से 2020 में भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग ने भारी छूट और सिर्फ कुछ विक्रेताओं को ही वरीयता देने के अभ्यास के आरोपों पर इन दिग्गजों के खिलाफ जांच शुरू की थी। ओला, शॉपी जैसी कुछ कंपनियों के खिलाफ भर्त्सना मूल्य निर्धारण के आरोप भी लगाए गए, लेकिन आरोपों को लेकर कोई पुख्ता आधार न होने के कारण मामले को खारिज कर दिया गया।

लुटेरी कीमतों का निर्धारण एक प्रतिस्पर्धा-विरोधी प्रथा है जो निश्चित रूप से छोटे प्रतिस्पर्धियों के नुकसान के लिए काम करती है। इसके अलावा, यह संभावित नए प्रवेशकों को प्रवेश करने से रोकता है। यह प्रतिस्पर्धा को कम करता है, और इसलिए, उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी प्रथाओं (गुणवत्ता वाले उत्पाद, कम कीमतों को बनाए रखना, व्यापक विकल्प) के लाभों से वंचित करता है। जबकि उपभोक्ताओं को कम कीमतों के माध्यम से अल्पावधि में लाभ होता दिख रहा है। दीर्घकालिक परिणाम यह होगा कि कम प्रतिस्पर्धा होगी, खरीदारों के लिए कम विकल्प, और इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि बाद में  (सबसे खतरनाक) प्रमुख फर्म एकाधिकार मूल्यों में परिवर्तन कर दे जिससे कि उपभोक्ताओं को क्षति पहुँचने की संभावना है।

ई-कॉमर्स कंपनियां वस्तुओं पर भारी रियायतें देती है और फिर विक्रेताओं के सामने बिक्री करती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ग्रेट इंडिया फेस्टिवल, बिग बिलीयन डेज, इंडिपेंडेंस-डे, के नाम पर लगने वाली सेल है। हालांकि ई-कॉमर्स प्लेटफार्म  खरीदारों के साथ इस तरह की रियायत पेश नहीं कर सकते क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से बिक्री नहीं कर रहे हैं और कानूनी रूप से ये गलत है। लेकिन आज इस तरह की बिक्री बहुत ज्यादा बढ़ रही है और इसके बदले में यह कहा जाता है कि बाहरी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को लाभ होता है। इसलिए इसे कानूनी रूप से अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन अगर हम गहराई से देखें तो हमें पता चलता है कि इस तरह की गतिविधियों से खुदरा विक्रेताओं को खत्म करने की कोशिश की जाती है और यह स्पष्ट रूप से व्यापार के नैतिकता के खिलाफ है और बहुत सारी समस्याएं पैदा करता है। इसलिए ईसीआई द्वारा पारित किए गए एक आदेश में बाहरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रतिस्पर्धा विरोधी कारक के रूप में चिन्हित किया गया है।

हालांकि ऐसे कई नियम पहले से मौजूद है जिसमें यह साफ कहा गया है कि एक विक्रेता एक ही बार कुल बिक्री के एक चौथाई से अधिक का स्वामित्व नहीं ले सकता। इसी प्रकार किसी भी समूह की कंपनियों के माध्यम से किसी भी बिक्री में मार्केटप्लस की  भागीदारी शून्य रखी गई है। यदि किसी विक्रेता के 25 प्रतिशत से अधिक खरीदार प्लेटफार्म समूह कंपनियों से हैं तो उस विक्रेता की माल सूची को ई-कॉमर्स प्लेटफार्म द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इस प्रकार कोई भी विक्रेता अपने उत्पाद को विशेष रूप से एक ही जगह पर नहीं बेच सकता। विक्रेताओं के मध्य वित्त पोषण, भुगतान, विज्ञापन, भंडारण आदि जैसी सेवाएं प्रदान करने में कोई भी भेदभाव ना हो, इसलिए सभी विक्रेताओं का निष्पक्ष न्यायसंगत व्यवहार करना जरूरी है।

पीयूष गोयल कहते हैं कि अमेजॉन और उसके जैसी बड़ी कंपनियां अपने खाता में भारी घाटा दर्ज करते हैं। कानूनी रूप से समान होने के बाद भी ऑनलाइन खुदरा विक्रेता अपने बैलेंस शीट पर भारी छूट दिखाते हैं और इन्हें विक्रेताओं द्वारा प्रदान की गई छूट के रूप में पेश करने का प्रयास करते हैं। आज जब ई-कॉमर्स वास्तव में तेज गति से बढ़ रहा है। एक गणना के अनुसार यह देखा गया है कि 2022 में कुल खुदरा बिक्री में ई-कॉमर्स की हिस्सेदारी मात्र 8 प्रतिशत थी। लगभग 1.76 मिलियन खुदरा उद्योग ई-कॉमर्स गतिविधि में भाग लेते हैं । लेकिन यहां सवाल निष्पक्ष रूप से लाभ और हानि का आकलन करने का है। ई-कॉमर्स का सकारात्मक पक्ष यही कहता है कि उपभोक्ता सुविधा, एकत्रीकरण, क्षमताएं, उदार छूट और विक्रेताओं तक बाजार की पहुंच है लेकिन दूसरी ओर इसका नकारात्मक पक्ष यह  है कि ऑफलाइन रिटेल में जो नौकरियां जा चुकी है उसकी भरपाई ई-कॉमर्स द्वारा कैसे किया जाता है। किसी भी ठोस प्रमाण के अभाव में यह सारे सवाल अभी अनसुलझे हैं।

आज देखा जाए तो भारत में ई-कॉमर्स बाजार तेजी से बढ़ता हुआ क्षेत्र है, लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि इस बाजार की निगरानी के लिए नियामक और संस्थागत ढांचे की अनुपस्थिति है। यदि प्रतिस्पर्धा नियामक  इस विषय में समय रहते कोई कार्यवाही नहीं कर पाता तो असमान रूप से बढ़ते हुए मूल्य निर्धारण को नियंत्रित करना और कठिन हो जाएगा। आज भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग को यह सुनिश्चित करना होगा कि ये कंपनियां गैर और अनुचित प्रथाओं में शामिल न हो। सबको निष्पक्ष और समान अवसर मिले, यह सुनिश्चित करना चाहिए। मूल्य निर्धारण में अधिक पारदर्शिता होनी चाहिए और सूचना विषमता कम होनी चाहिए। 

आज ई-कॉमर्स साइट केवल विक्रेता और खरीददार के एग्रीगेटर होने की बजाय स्वयं के उत्पादों को आगे बढ़ा रही है। ऐसे में नीतियों को प्रतिस्पर्धा की सुरक्षा के उद्देश्य से निर्देशित किया जाना चाहिए और इसकी सख्त रूप से जांच होनी चाहिए। इसके साथ ही डेटा संरक्षण कानून के शीघ्र क्रियान्वयन के साथ डाटा उत्पादन का समाधान करने की भी आवश्यकता है।

हालांकि चार साल पहले ई-कॉमर्स पर एक मसौदा नीति तैयार की गई थी पर कभी भी उस पर विचार विमर्श नहीं हुआ। आज ई-कॉमर्स कंपनियों की स्थिति, उनके गहरे संसाधन और तकनीकी कौशल को देखते हुए  सरकार भी उनकी गतिविधियों के आगे मजबूर है और एक स्पष्ट कार्यवाही नहीं कर पा रही। लेकिन अब समय आ गया है कि इस मसौदे पर चर्चा की जाए और प्रभावकारी नीतियों के साथ ही शीघ्र सख्त कदम उठाया जाए।ु

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