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भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी और विदेशी ऋण का बढ़ता दबाव

विकसित भारत का स्वरूप स्वदेशी और स्वावलंबन के आधार पर ही होना चाहिये। विदेशी पूँजी और विदेशी तकनीक का उतना ही व्यवहार होना चाहिये जिससे हमारी जीवन शैली उपभोक्तावादी न होकर संयमी और त्यागमय बने। - डॉ. धनपत राम अग्रवाल

 

भारत@2047 के विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास में हम विश्व की सर्वश्रेष्ठ आर्थिक शक्ति बनने का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे हैं। 2023-24 के वित्तीय वर्ष में हमारी आर्थिक वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है और वर्तमान समय में यह सारे विश्व की लगभग अधिकतम मानी जा सकती है। आर्थिक वृद्धि, विनियोग और पूँजी के कुशल उपयोग पर आधारित होती है। इस समय हमारा पूँजी विनियोग (आईसीओआर - वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपाल) की उत्पादकता लगभग 4 (चार) है और 8 प्रतिशत की वृद्धि दर के लिये हमें इन दोनों के गुणनफल अर्थात् 32 प्रतिशत के पूँजी विनियोग की आवश्यकता है। कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि नई डिजिटल तकनीकों तथा कानूनी सुधारों से हमारी वर्तमान आईसीओआर में सुधार हुआ है और यह घटकर 3.5 हो गई है और इस कारण से कम विनियोग से ज़्यादा उत्पादकता लाई जा सकती है। 

विनियोग और बचत का आपसी संबंध है। बचत अगर विनियोग से ज़्यादा हो तो साधारणतः यह माना जाता है कि आर्थिक वृद्धि दर एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँच गई है कि पूँजी की उत्पादकता में कमी आ गई है और विनियोग के लिये कहीं दूसरे देश में जाना होगा। ऐसे देश आज के दिन यूरोप, जापान आदि हैं, जो विकसित हो चुके हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि राजनीतिक अथवा सामाजिक कारणों से विनियोग लाभदायक नहीं है, जैसा कि एक लंबे समय तक चीन में होता था। फिर 1978 के आर्थिक सुधारों से उनके नागरिक, जो बाहर दूसरे देशों में चले गये थे, उन्होंने अपने देश में विनियोग आरंभ किया। हमारे देश के भीतर भी ऐसी स्थिति कुछ राज्यों की है और उदाहरण के लिये बंगाल में संचय या बचत वहाँ के विनियोग से ज़्यादा है और जब वातावरण अनुकूल होगा, वहाँ भी चीन की भाँति पूँजी का पलायन रुक सकता है और विनियोग बढ़ सकता है। 

अतः इस विनियोग के लिये हमें देशी बचत (डोमेस्टिक सेविंग) और विदेशी बचत (फोरिन सेविंग या केपिटल) की आवश्यकता होती है। देशी पूँजी घरेलू व्यक्तिगत बचत और कंपनियों की बचत (हाउसहोल्ड सेविंग या कॉरपोरेट सेविंग) पर आधारित है। अभी पिछले कई वर्षों से उपभोक्तावाद के बढ़ने से तथा अन्य कुछ कारणों से हमारी घरेलू बचत में काफ़ी कमी आयी है। भारत सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार पिछले तीन वर्षों में यह कमी लगभग 9 लाख करोड़ रुपये पाई गई है और यह घटकर 2023 के अंत में सिर्फ़ 14.6 लाख करोड़ रुपये रह गई है। आँकड़े बताते हैं कि घरेलू बचत में गिरावट के कारण यह हमारी राष्ट्रीय आय के 2021 के 22.7 प्रतिशत से घटकर 2023 में सिर्फ़ 18.4 प्रतिशत रह गई है। यह चिंतन का विषय है, क्योंकि कुछ अर्थशास्त्री इसे आधुनिक अर्थनीति में उपभोग- आधारित विकास को अच्छा मानते हैं। प्रश्न यह है कि क्या हमें उपभोग आधारित विकास चाहिये अथवा विनियोग आधारित विकास? यहीं से यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या हम विदेशों में बने पदार्थों का उपभोग बढ़ाएं और इससे हमारी बचत में आयी कमी की भरपायी विदेशी पूँजी द्वारा पूरी करें?

हमें यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि क्या हमें स्वदेशी तकनीक और स्वदेशी पूँजी पर आधारित विकास करना है या विदेशी पूँजी द्वारा, जिसके मुख्य रूप से तीन स्रोत होते हैं- विदेशी ऋण, विदेशी निवेश (एफडीआई), जो व्यापार या उद्योग में विनियोग होता है और एफपीआई, जो शेयर बाज़ार में विनियोग होता है। वर्तमान समय में इन तीनों स्रोतों की कुल विदेशी पूँजी के तथ्यों के आधार पर एक मोटे तौर पर पाया गया है कि भारत में 1991 के आर्थिक सुधारों एवं नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के बाद अभी पिछले 33 वर्षों में प्रायः 2 ट्रिलियन अमेरिकी डालर हमारे देश में आये हैं, जिसका इन तीनों मदों में ब्यौरेवार विश्लेषण संक्षेप में हम करेंगे। अभी सिर्फ़ इतना जानना आवश्यक है कि विदेशी पूँजी के आयात के तीन मुख्य कारण होते हैं- पहला कारण है बचत और विनियोग की असमानता (सेविंग इन्वेस्टमेंट गैप), दूसरा कारण है आयात-निर्यात का घाटा (ट्रेड गैप और करंट एकाउंट डेफिसिट-सीएडी) और तीसरा कारण है तकनीकी आवश्यकता (टैक्नॉलोजी गैप) और इस प्रकार मेक इन इंडिया तथा आत्मनिर्भर भारत में सामंजस्य की आवश्यकता है जिससे हमारी संप्रभुता से कोई समझौता न करना पड़े। 

अगर हम विदेशी पूँजी के तीनों स्रोतों के दिसंबर 2023 तक की कुल राशि को देखते हैं तो निम्न दृश्य सामने आता है। (स्रोतः आरबीआई बुलेटिन मार्च 2024)

-    विदेशी ऋण (दिंसबर 2023) - 648.5 बिलियन अमरीकी डालर
-    विदेशी विनियोजन (वर्ष 2000 से 2023 तक) - 990 बिलियन अमरीकी डालर। 
-    विदेशी निवेश पूँजी अथवा शेयर बाज़ार (अप्रैल 2000 से मार्च 2024 तक) - 678 बिलियन अमरीकी डालर।

यानि भारत में विदेशी पूँजी का बोझ 2316.5 बिलियन अमरीकी डालर, अर्थात् 2.3 ट्रिलियन अमेरिकी डालर है। जिस रफ़्तार से विदेशी पूँजी निवेश हो रहा है और ऐसी स्थिति में जबकि हमारे उपरोक्त तीनों मापदंडों में हमें नकारात्मक असमानता दिख रही है तो ऐसा स्पष्ट रूप से हमारी अर्थव्यवस्था पर एक गहरा ख़तरा है। 

भारत सरकार को एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिये और एक दूरदर्शी दिशा निर्देश तैयार करना चाहिये। सिर्फ़ आर्थिक उन्नति के आँकड़ों से अपनी पीठ थपथपाने का समय नहीं है। वैसे भी महंगाई, बेकारी और ग़रीबी की समस्या बड़ी विकट है। हमारे छोटे घरेलू उद्योग वैश्वीकरण की चपेट से ध्वस्त हो रहे हैं। उद्यमिता हमारे खून में है किंतु वर्तमान तकनीक और नवाचार के युग में हमें अनुसंधान तथा बौद्धिक क्षमता का विकास करना होगा। कृषि और लघु उद्योगों को हर प्रकार से प्रोत्साहित करना होगा। तभी हम समृद्ध और वैभवशाली भारत का निर्माण कर सकेंगे। स्वदेशी को पूर्ण रूप से अपनाना होगा। स्थानीय वस्तुओं का उपयोग तथा इसके लिये स्थानीय उद्यमियों को वित्त, आधुनिक तकनीक तथा उनके उत्पाद के विपणन की पूर्ण, सरल तथा लचीली व्यवस्था का निर्माण करना होगा। उनके सहयोग के लिये अच्छी कामगार टीम का स्थानीय स्तर पर गठन करना होगा, जो उन्हें समय-समय पर मदद कर सके तथा सरकारी एजेंसियों से उनका सही तालमेल बैठा सके। स्वदेशी का आधार ही स्वावलंबन का पथ है। 

विकसित भारत का स्वरूप स्वदेशी और स्वावलंबन के आधार पर ही होना चाहिये। विदेशी पूँजी और विदेशी तकनीक का उतना ही व्यवहार होना चाहिये जिससे हमारी जीवन शैली उपभोक्तावादी न होकर संयमी और त्यागमय बने। पर्यावरण का ध्यान रखते हुए समाज में समरसता बनाये रखकर ग्रामोन्नयन का ख्याल रखते हुए विश्व बंधुत्व के आधार पर एकात्म मानव दर्शन की दिशा में हम आगे बढ़ें ताकि अन्य विकासशील देश भी हमारे मार्ग दर्शन पर भरोसा कर सकें। बाज़ारवादी अर्थतंत्र से सारी दुनिया को मुक्त करना है और इसके लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में फँसने से बचना होगा। यह तभी संभव होगा जब हम भारतीय मेधा और प्रवासी भारतीयों की पूँजी और उनकी बौद्धिक क्षमता का कुशलतापूर्वक लाभ लेते हुए विज्ञान और तकनीक का विकास करें। भारत/2047 हमारी खोई हुई गरिमा को वापस लाये और हम पूरे विश्व में अपनी पताका को फैलाते हुए वसुधैव कुटुम्बकम की स्थापना कर सकें। धर्म के साथ अर्थ का अर्जन करते हुए निःश्रेयस अभ्युदय के हम अनुगामी बनें।

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