नदियों को दूषित कर रहा नालों का जाल
नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा या अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त करने में जितना योगदान उनमें गिरने वाले गंदे नालों को रोकने का है, उससे बड़ा योगदान नदियों के जल स्तर को बढ़ाने से हो सकता है। — डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्र
गंगा मात्र नदी नहीं अपितु भारतीय समाज एवं संस्कृति की जीवन रेखा है। गंगा जहां एक और भारतीय जनमानस को सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के पथ पर ले जाती है, वहीं दूसरी ओर मानव के लौकिक, पारलौकिक और आध्यात्मिक जीवन को भी सार्थक और सफल बनाती है। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का कार्य वर्ष 1985 में गंगा कार्य योजना के नाम से प्रारंभ हुआ था जिसके द्वारा दूषित कचरा एवं मल-जल लेकर गंगा में मिलने वाले नालों की पहचान कर उन पर जल उपचार संयत्र लगाने की योजना प्रारंभ की गई थी और मार्च 2000 में लगभग 451 करोड़ की धनराशि खर्च करने के बाद इस योजना को पूर्ण घोषित कर दिया गया था किंतु अब तक किए गए कार्य से कोई सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं हुआ। गंगा में गिरने वाले प्रदूषित मल जलयुक्त नाले अविरल कचरा युक्त प्रदूषित जल को गंगा में छोड़ रहे हैं, उनमें लगे हुए मलजल उपचार यंत्र हाथी के दांत की तरह ही दिखाई पड़ रहे हैं। उनका कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया। गंदे नालों के साथ ही गंगा में प्रदूषित जल की आपूर्ति उसकी सहायक नदियां भी निरंतर कर रही हैं, जिसे देखते हुए पिछले दिनों राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार ने 16 राज्यों में 34 नदियों की सफाई के लिए 5800 करोड़ रुपए की स्वीकृति दी थी और अपने हिस्से की 2500 करोड़ की धनराशि भी विभिन्न राज्यों को प्रदान किया था, जिससे गंगा में मिलने वाली उसकी सहायक नदियों की भी साफ-सफाई हो सके क्योंकि देश की नदियों की स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो चुकी है।
सरकार की 20 हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी नमामि गंगे योजना का लक्ष्य 2020 तक गंगा को निर्मल बनाकर उसे उसका मौलिक स्वरूप प्रदान करना रहा है किंतु अपेक्षित प्रगति न हो पाने के कारण उसका समय 2022 तक बढ़ा दिया गया है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने देश की 351 नदियों में बढ़ते प्रदूषण पर चिंता व्यक्त की है और नदियों की स्थिति को देखते हुए उसने उनकी निगरानी के लिए सेंट्रल मॉनिटरिंग कमेटी का गठन किया है। नदियों में गिर रहे सीवर गंदे नाले और उनमें घुले रसायन उसके प्रवाह और जल राशि को निरंतर सीमित कर रहे हैं।
नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा नदी को साफ करने का अभियान कुछ आशा जगा रहा है किंतु कार्य को संपन्न करने में निरंतर बढ़ते समय के कारण इंतजार का समय लंबा होता जा रहा है। वस्तुतः गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए हैं। वर्ष 1985 से गंगा की सफाई का कार्य निरंतर चल रहा है किंतु गंगा स्वच्छ हुई यह समाचार तो कभी सुनने को नहीं मिलता। वरन् उसके स्थान पर समय-समय पर गंगा के और अधिक प्रदूषित होने तथा उसका पानी प्रयोग में लाने योग्य न होने की सूचना प्राप्त होती रहती है। गंगा की न केवल सफाई का सवाल आज भी मुंह बाए खड़ा है बल्कि उसके लिए बहाए जाने वाले पैसे कहां और कैसे खर्च किए जा रहे हैं इसका किसी को पता नहीं चल रहा है। वर्षों से गंगा का सफाई का कार्य चलने के बावजूद उसका परिणाम तो कोई सामने आ नहीं रहा बल्कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को अब भी समय-समय पर इस संदर्भ में निर्देश जारी करने पड़ते हैं, जिससे गंगा में अपशिष्ट और औद्योगिक कचरा न प्रवाहित किया जाए। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड में उत्तर प्रदेश उत्तराखंड पश्चिम बंगाल और बिहार के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को यह निर्देशित किया है कि वह अपने क्षेत्र में गंगा को प्रदूषित करने वाले समस्त नदी नालों पर नियंत्रण करें तथा समय-समय पर उसका परीक्षण भी करें। गंगा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक कुछ स्थानों को छोड़कर गंगा का पानी पीने लायक तो दूर स्पर्श योग्य भी नहीं रह गया है। नदी में कोलीफॉर्म जीवाणु का स्तर इतना बढ़ गया है कि वह मनुष्य की सेहत के लिए खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है।
वस्तुतः गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की सर्वप्रथम योजना गंगा कार्य योजना अस्तित्व में आई उसके पश्चात् समय के साथ बदलती हुई अनेक योजनाओं की अनवरत यात्रा के पश्चात नाम परिवर्तन के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आई नमामि गंगे योजना सफेद हाथी बनकर रह गई हैं, जो सरकार द्वारा निर्गत भारी भरकम धनराशि को हजम कर जा रही हैं किंतु गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में कोई सार्थक परिणाम प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो रही हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने अपने स्तर से इस दिशा में प्रयास अवश्य कर रही हैं किंतु इस दिशा में कागजी काम तो अवश्य हो रहा है। गंगा की गोद में गिरने वाली गंदगी और जहर को रोकने के लिए जमीनी स्तर पर पूरा काम नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश के कानपुर और उन्नाव में इस दिशा में जो भी कार्य योजनाएं बनी उनको कभी अमल में नहीं लाया जा सका। उन्नाव के औद्योगिक इकाइयों से आने वाला कचरा कानपुर के गंदगी के साथ मिलकर गंगा में निरंतर आगे बढ़ते हुए देखा जा सकता है। कानपुर सीमा से बांगरमऊ सफीपुर आदि अनेक कस्बों तथा उनसे संटे छोटे 34 गांव का सीवेज और गंदा पानी सीधे गंगा में गिर रहा है। प्रयागराज में भी गंगा की स्थिति इससे अलग नहीं है। कागजों में भले ही उत्तर प्रदेश के कानपुर प्रयागराज आदि शहरों के नालों का गंदा पानी तथा उसका जहर गंगा में जाने से रोक दिया गया हो, व्यवहार में वह अब भी निरंतर गंगा में अपना जहर युक्त गंदा पानी डाल रहे हैं। कमोबेश यह स्थिति गंगा के समग्र प्रवाह पथ की है। उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल के गंगासागर तक गंगा में सफाई का कार्य एवं उसको प्रदूषण मुक्त किए जाने का का कार्य बमुश्किल कहीं दिखाई पड़ता है किंतु उसको प्रदूषण युक्त करने तथा उसमें जहर घोलने का कार्य करने वाले अनेकानेक गंदे नाले अपनी पूरी क्षमता के साथ गंगा से मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा या अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त करने में जितना योगदान उनमें गिरने वाले गंदे नालों को रोकने का है, उससे बड़ा योगदान नदियों के जल स्तर को बढ़ाने से हो सकता है। यदि गंदे नालों को रोक दिया जाए और नदियों में बहने वाले जल के स्तर को बढ़ा दिया जाए तो इस समस्या का समाधान शीघ्र प्राप्त हो सकता है किंतु नदियों में निरंतर हो रही जल की कमी प्रदूषण स्तर को निरंतर बढ़ाता ही जाता है जिसके लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ साथ सामान्य जनमानस को भी सोचने विचार करने की आवश्यकता है। जनमानस की सहभागिता के आधार पर ही किए गए कार्यों से नदियों की साफ सफाई हो सकती है तथा उनका जलस्तर बढ़ सकता है, किंतु अभी तक कहीं भी जनमानस का सहयोग दिखाई नहीं दे रहा। परिणामस्वरूप अपेक्षित परिणाम भी कही परिलक्षित नहीं हो रहा है।
नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा प्रदूषण में कोई कमी न आने के कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्णपीठ ने नमामि गंगा परियोजना के महानिदेशक, जल निगम उत्तर प्रदेश और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर कड़ी टिप्पणी करते हुए नमामि गंगा के मद में आवंटित धन और उत्तर प्रदेश को दिए गए धन तथा आवंटित धन के उपयोग पर जानकारी मांगी है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से प्राप्त जान प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रयागराज में जल को शुद्ध करने वाली कंपनी से किए गए करार में यह प्रावधान रखा गया है कि यदि निश्चित मात्रा से अधिक जल प्रवाहित होता है तो उसके शोधन की जिम्मेदारी की जिम्मेदारी संबंधित कंपनी की नहीं होगी परिणाम स्वरूप अधिक जल प्रवाहित होने के कारण प्रदूषित जल ही प्रवाहित होकर गंगा में जा रहा है। यह स्थिति केवल प्रयागराज की ही नहीं है, उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे 26 शहर बसे हुए हैं, इन 26 शहरों के साथ ही विभिन्न राज्यों में गंगा किनारे बसे शहरों की भी यही स्थिति है। किसी भी शहर के सीवेज के पानी और औद्योगिक कचरे का बिना शोधन किए उसे गंगा में प्रवाहित किया जा रहा है। परिणामस्वरुप करोडों रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा प्रदूषित ही बनी हुई है।
गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के उद्देश्य से भारी भरकम धनराशि की तो व्यवस्था कर दी गई है किंतु कार्य को समय से संपन्न करने एवं उसकी गुणवत्ता को बनाए रखते हुए धान के सदुपयोग का दायित्व निर्धारित नहीं किया गया जिसके कारण परियोजना के कार्य में न तो गति है और न ही समयबद्थता, अपितु धन का दुरुपयोग हो रहा है, जिस पर अंकुश लगाते हुए संबंधित संस्थाओं पर समयबद्ध ढंग से कार्य की गति तथा धन के उपयोग का दायित्व निर्धारित करते हुए ही लाया जा सकता है निर्धारित समय सीमा पर परियोजना को पूर्ण कर मां गंगा को प्रदूषण मुक्त कर स्वच्छ बनाया जा सकता है, अन्यथास्थिति में नमामि गंगे परियोजना व्यक्ति विशेषों के निरंतर आय का साधन ही बनी रहेगी।
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