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राष्ट्रहित में नहीं - जनसंख्या असंतुलन

विस्फोटक रूप धारण करती जनसंख्या असंतुलन को नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार को ऐसी सार्वभौमिक जनसंख्या नीति बनाने की आवश्यकता है जो सभी धार्मिक समुदायों और भौगोलिक क्षेत्रों पर समान रूप से लागू हो। - अनुपमा अग्रवाल

 

2011 की जनगणना के अनुसार 121 करोड़ की जनसंख्या वाले देश भारत ने चीन को पीछे छोड़ते हुए पहले स्थान पर जगह बना ली है।जबकि 2024 तक यह जनसंख्या 144 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। भारत की आबादी को लेकर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने 167 देशों में बहुसंख्यक आबादी में आये परिवर्तन का अध्ययन करके पाया कि 1950 से 2015 के बीच भारत की कुल आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 7.82 प्रतिशत घट गई है जबकि इस बीच मुसलमानों की हिस्सेदारी में 43.25 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। वहीं मुस्लिम बहुल देशों में इसके विपरीत अल्पसंख्यक हिंदुओं की हिस्सेदारी में भारी गिरावट दर्ज की गई है वहीं भारत में ईसाई और सिख अल्पसंख्यक की हिस्सेदारी में क्रमशः 5.38 प्रतिशत और 6.58 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि पारसी और जैन अल्पसंख्यक हिस्सेदारी कम हुई है। यही नहीं लगभग सभी मुस्लिम राष्ट्रों में हिंदुओं की संख्या में पहले की अपेक्षा कमी देखी गई है। हिंदुत्व पर मंडरा रहे गहरे संकट को दर्शाते ये आंकड़े हिंदुओं की वृद्धि दर में गिरावट तथा मुस्लिमों की वृद्धि दर में बढ़ोतरी का परिणाम है।यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सदैव से भारत में समान नागरिक कानून लागू करने का पक्षधर रहा है। भारत में जनसंख्या का असंतुलन जिस गति से बढ़ रहा है शीघ्र ही यह भारत की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान पर संकट पैदा कर सकता है तथा बढ़ती मुस्लिम आबादी राष्ट्र के भविष्य और समाज के अस्तित्व के लिए घातक हो सकती है क्योंकि हमारे जिन पूर्वजों ने इस सभ्यता और संस्कृति को सींचा और बढ़ाया उस पर अब खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। सीमा पार से बड़ी संख्या में अवैध घुसपैठियों का देश में आगमन एवं धर्म परिवर्तन भी जनसंख्या असंतुलन का अहम कारण है। इसके अलावा आर्थिक रूप से देश के संसाधनों का दोहन करती ये आबादी न केवल देश पर अतिरिक्त भार डाल रही है बल्कि ज्यादा संख्या में होने के कारण मुस्लिम आबादी देश में अराजकता का माहौल पैदा करने में अहम भूमिका निभा रही है।

भारत में 1872 से जनगणना आरम्भ हुई, तभी से पंथानुसार आंकड़े एकत्र किए जाते रहे थे सामाजिक, आर्थिक विषयों का पंथ, शिक्षा, लिंग,आर्थिक व्यवसाय आदि के अनुसार विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता था परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पंथानुसार जनगणना को बंद कर दिया गया। 2001 में पुनः इस आधार पर जनगणना के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण कर व्यवसाय, लिंग, शिक्षा के अनुसार वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया। धर्माधारित जनगणना के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2001-2021 के बीच देश में मुस्लिम आबादी 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गई है। जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जहां बहुसंख्यक आबादी में कमी देखी गई वहीं अल्पसंख्यकों की संख्या में इजाफा हुआ है। 2001 की जनगणना में उत्तर प्रदेश में 80.61 फीसदी हिन्दू थे और 18.50 फीसदी मुसलमान थे लेकिन 2011 में हिंदुओं की आबादी घटकर 79.73 प्रतिशत और मुसलमानों की आबादी बढ़कर 19.26 प्रतिशत हो गई। जनगणना विभाग का कहना है कि उत्तर प्रदेश के 70 में से 57 जिलों में हिंदुओं की आबादी मुसलमानों के मुकाबले घटी है। 2011 की जनगणना के अनुसार यही स्थिति मिजोरम, नगालैण्ड, मेघालय, केरल, बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि राज्यों में है जहां हिन्दू अल्पसंख्यक है और यहां ईसाई या फिर मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ा है। अब सवाल यह उठता है कि मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी का उद्देश्य क्या है? इस उद्देश्य से हासिल क्या होने वाला है? जनसंख्या असंतुलन या जनसांख्यिक परिवर्तन किसी भी समाज में सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन का कारण बनने के साथ राष्ट्रीय पहचान पर संकट पैदा करने वाला साबित हो सकता है। इसके लिए किसी बाहरी उदाहरण की आवश्यकता नहीं, भारत स्वयं 1947 में जनसांख्यिक असंतुलन के कारण विभाजन की दुखद त्रासदी को झेल चुका है।

इतिहास साक्षी है कि जिन राज्यों में हिन्दू प्रबल बहुसंख्यक रहे वहां दंगे न के बराबर हुए जबकि मुस्लिम बहुलता वाली स्थानों पर अधिक दंगे देखे गए, जो कि इस्लामीकरण की जड़ हैं। देश के प्रमुख राज्यों में जनसंख्या वृद्धि के द्वारा अपनी जड़ें मजबूत कर रहा इस्लाम, न केवल देश में अराजकता का माहौल पैदा कर रहा है बल्कि देश की कानून व्यवस्था पर अविश्वास दर्शाकर मस्जिदों से फतवे व विभिन्न प्रकार के जिहाद चला कर देश को खण्डित करने का षड्यंत्र रच रहा है। 2020 में दिल्ली में हुए दंगे इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। बिखराव की स्थिति में कम्युनिस्टों के सहारे खड़ा देश का विपक्ष, वोट बैंक की राजनीति के तहत मुसलमानों को साधने के लिए न केवल उनका समर्थन करता है बल्कि केंद्र द्वारा राष्ट्रहित में जारी एनआरसी, सीएए व जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानून को देश में लागू करने का घोर विरोधी होने के साथ अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी घुसपैठियों का समर्थक भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री के.सी. सुदर्शन जी ने इस समस्या की गंभीरता को भांपते हुए कहा था कि हिंदुओं की घटती वृद्धि दर सम्पूर्ण भारत के भविष्य के लिए खतरा और आशंकाएं पैदा करती है इसलिए आवश्यक है कि जिन कारणों से राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसांख्यिक सन्तुलन पर हमला हो रहा है, उन पर गंभीरता से विचार कर समाधान खोजा जाए। सीमावर्ती जिलों में बांग्लादेश व म्यांमार से आने वाले घुसपैठियों की सघन आबादी का बढ़ना सभी राष्ट्र भक्तों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। यह मुद्दा राष्ट्र के भविष्य और उसके अस्तित्व के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। हिंदुओं की जनसंख्या कम होने का परिणाम आज तक देश के लिए घातक ही सिद्ध हुआ है। अगर हम अब भी नहीं संभले तो हजारों साल से अपने बल, पराक्रम और धैर्य से जिन पूर्वजों ने इस सभ्यता और संस्कृति को सींचा और बढ़ाया, उसका नामोनिशान अंततः मिट जाएगा। साथ ही उन्होंने हिंदुओं से आव्हान किया कि वे समान नागरिक कानून लागू करने की मांग करें। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत जी ने जनसंख्या असंतुलन की गम्भीरता को भांपते हुए एक “व्यापक जनसंख्या नियंत्रण नीति“ की आवश्यकता पर जोर दिया और यह सभी पर ’समान रूप से लागू हो’ व जनसंख्या असंतुलन पर नजर रखना राष्ट्रीय हित में बताया।

लगातार बढ़ती आबादी जहां संसाधनों पर बोझ बनती जा रही है वहीं इससे उत्पन्न बेरोजगारी के कारण गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याएं देश में पनप रही हैं। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों की मांग जिस तेजी से बढ़ रही है उसकी आपूर्ति हेतु उतनी ही तीव्रता से प्रकृति के नियमों की अनदेखी कर उनका अतिरिक्त दोहन हो रहा है। विकास की अंधी दौड़, रोजगार सृजन एवं आवास आपूर्ति के कारण खेतिहर भूमि कम हो रही है, जबकि अन्न की मांग बढ़ रही है।इसी तरह बढ़ती आबादी की प्यास बुझाने के लिए पेयजल की मांग बढ़ रही है परन्तु समरसेबल की अधिकता व जल के अत्यधिक दोहन ने धरती के जल को सुखा  दिया है। रही बात शुद्ध प्राणवायु की, तो पेडों के कटान एवं जंगलों के सफाए से जहां ऑक्सीजन कम और प्रदूषण में वृद्धि हो रही है वहीं ये सभी चीजें जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण बनकर सामने आ रही हैं जो वर्तमान में विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती ही नहीं, गंभीर समस्या भी बन चुकी है। अतः देश के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही बढ़ती आबादी को तत्काल नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है।

गृह मंत्रालय भारत में अवैध घुसपैठियों की बढ़ती संख्या से पैदा होने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा संकट पर गंभीर चिंता व्यक्त कर चुका है। अवैध घुसपैठिए बांग्लादेश के रास्ते असम, बंगाल, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, जम्मू आदि राज्यों में जहां इनका समर्थन करने वाली सरकार मौजूद है, बड़ी मात्रा में फैल कर न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा एवं संप्रभुता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं बल्कि जिन संसाधनों पर भारतवासियों का अधिकार है उनका अधिकाधिक लाभ ये लोग ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में इनकी संलिप्तता के सबूत भी समय समय पर मिलते रहते हैं। गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में दिए एक लिखित जवाब में बताया कि वर्ष 2018-2020 के बीच भारत में अवैध रूप से प्रवेश करने का प्रयास करने वाले तीन हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें सर्वाधिक संख्या पाकिस्तान व बंगलादेशी रोहिंग्या घुसपैठियों की थी। चौकाने वाली बात यह है कि बहुत से घुसपैठियों ने तो लेन देन और मिलीभगत से अपने राशनकार्ड, आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड भी बनवा लिए हैं जिससे इनकी पहचान करना अब और भी मुश्किल हो गया है।

विस्फोटक रूप धारण करती जनसंख्या असंतुलन को नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार को ऐसी सार्वभौमिक जनसंख्या नीति बनाने की आवश्यकता है जो सभी धार्मिक समुदायों और भौगोलिक क्षेत्रों पर समान रूप से लागू हो क्योंकि अतीत के उदाहरण बताते हैं कि जनसंख्या असंतुलन से देश की भौगोलिक स्थिति पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। देश के लगभग एक चौथाई राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं इसके क्या सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा व सामाजिक सौहार्द कैसे प्रभावित होंगे इन प्रश्नों पर आत्म मंथन तथा चर्चा की आवश्यकता है। इसके अलावा सरकार को जनसांख्यिक असंतुलन को कम करने व मतांतरण को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने होंगे तथा राष्ट्रहित में सीएए और एनआरसी जैसे कानून को अमली जामा पहनाकर अवैध रूप से रह रहे घुसपैठियों को बाहर का रास्ता दिखाना होगा ताकि भारत को 1947 में जनसांख्यिकी के असंतुलन के कारण हुए विभाजन जैसी त्रासदी पुनः न झेलनी पड़े।

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