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बजट की सकारात्मक दिशा

निश्चित ही सरकार योजनाओं पर खर्च करते समय यह कोशिश करती है कि जन-सामान्यों की समस्या का हल निकले और यही कोशिश इस साल के बजट में भी दिखती है। - अनिल जवलेकर

 

भारत एक अजीब देश है। यहाँ सरकार की तरफ मदद से ज्यादा राहत की अपेक्षा रहती है। भारत सरकार भी मदद या तो संकट समय में करती है या फिर बहुत गरीब या बहुत अमीर होने पर। लेकिन भारत सामान्य नागरिकों से भरा देश है और सारा देश चलाने की जिम्मेवारी भी इन्हीं पर रहती है। सरकार के सारे खर्चो का बढ़ता बोझ इन्हीं के कंधों पर होता और शायद इसीलिए यह सामान्य जन सरकार से बोझ में थोड़ी राहत की उम्मीद लगाए रहते है। राहत का समय भी साल में एक बार आता है जब सरकार अपने खर्चो का लेखा-जोखा पेश करती है और नए बजट के साथ नए खर्चे और नए कर वसूलने के तौर तरीकों की बात करती है। इस साल के बजट से भी सामान्य जन यही राहत की उम्मीद लगाए बैठे थे लेकिन बहुत ज्यादा कुछ नहीं मिला। सरकार का कहना है कि बढ़ते सरकारी खर्चो का ताल-मेल बिठाना मुश्किल होता जा रहा है। यह भी सही है कि बजट में सरकार कुछ लाभकारी योजनाएँ जाहिर करती है जो कुछ हद तक सामान्यों को उपयोगी होती है और राहत का काम करती है। इस साल का बजट भी कुछ ऐसी ही राहत देता दिखता है।

बजट के खर्चे और उसका मिलान 

वैसे बजट भारतीय जनता के लिए कोई नयी बात नहीं है। अंग्रेज़ जो बाते छोड़ कर गए है उसमें से बजट भी एक है। बजट की जो खास बात होती है वह यह की बजट पहले खर्चे की बात करता है और बाद में उस खर्चे को पूरा करने के लिए वसूले जाने वाले आय की। इस साल के बजट की बात करें तो खर्चे का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 75 प्रतिशत) सरकारी वेतन, पेंशन, पहले लिए हुए कर्जे के ब्याज और राज्यों को दिये जाने वाले हिस्से, सबसिडी तथा रक्षा पर खर्च होजाता है। बचे हुए खर्चे में ही विकास योजना वगैरे की बात होती है। आने वाले साल में पूरे 48.21 लाख करोड रुपए खर्च होने है जिसमें से 20.22 लाख करोड से भी कम योजनाओं पर खर्च होने है। बाकी सरकार अपने कामकाज पर खर्च करेगी। इसे वसूलने के लिए जो तरीके है उसमें से एक है करों का जाल (जिससे 25.84 लाख करोड़ रुपये जमा होने है) और दूसरा है कर्जे (16.91 लाख करोड़ रुपये)। करों में जीएसटी, आय कर, और कार्पोरेशन कर मुख्य है। खास बात यह है कि जीएसटी तो सभी सामान्य जन देते है पर आय कर और कारपोरेट बहुत कम। सरकार को कर्जे देने वाले में भी सामान्य पीछे नहीं है। वे अपनी पूंजी पोस्टल सेविंग्स, प्रव्हिडेंट फंड, वगैरे (4.50 लाख करोड़ रुपये) में रखते है, जो सरकार कर्जे के रूप में उपयोग में लाती है। बाकी बचा कर्जा (11.63 लाख करोड़ रुपये) बाजार से लेने की बात है। यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि भारत सरकार अपने आप पर याने सरकारी कामकाज पर जो खर्चा करती है वह उसकी आय से ज्यादा है। मतलब कमाई कम और खर्चा ज्यादा वाली बात है। बजट में राजस्व घाटा है और उसे पूरा करने के लिए भी उधार लेना पड़ता है जो कि अच्छी बात नहीं है। यह सही है कि सरकार बचे कर्ज की रकम से विकास करने की कोशिश करती है। 

रोजगार समस्या का हल ढूँढने की कोशिश 

निश्चित ही सरकार योजनाओं पर खर्च करते समय यह कोशिश करती है कि जन-सामान्यों की समस्या का हल निकले और यही कोशिश इस साल के बजट में भी दिखती है। भारतीय जन सामान्य की मुख्य समस्याओं में से एक है बेरोजगारी। ऐसा नहीं है कि यह भाजपा के शासनकाल में उभरी है। वह हमेशा से रही है और जबसे स्कूल-कॉलेज बढ़े है, पढे-लिखे लोग भी बढ़ रहे है और शिक्षित लोगों की बेरोजगार समस्या गंभीर होती जा रही है। नए तंत्र ज्ञान का उपयोग होने से बड़े उद्योग जरूरी रोजगार उपलब्ध नहीं कर पा रहे है। सर्विस उद्योग जो भारत का सबसे बड़ा उद्योग है उसमें रोजगार अवसर भी कम है। जो भी रोजगार निर्माण हो रहे है वे असंघटित क्षेत्र में हो रहे है। इसलिए सरकार की कोशिश रोजगार अवसर बढ़ाने की है और इस बजट में रोजगार बढ़ाने के लिए कुछ अनुदान देने की बात की गई है। जो उद्योग रोजगार देगा उसको और रोजगार मिलने वाले युवक को अब मदद मिलेगी। पहली बार रोजगार मिलने पर वेतन का कुछ हिस्सा सरकार देगी। उद्योगों को सरकार नए रोजगार देने पर प्रोविडेंट फंड का कुछ हिस्सा कुछ साल तक देगी यह भी एक अच्छी बात है। दूसरी ओर बेरोजगारों का कौशल बढ़ाने की बात भी बजट करता है जिसमें उद्योग भी शामिल होंगे। यह कितना कारीगर साबित होगा यह देखने वाली बात होगी। कौशल बढ़ाने के लिए कर्ज मुहैया करने की बात भी इस बजट ने की है। मुद्रा लोन को बढ़ाने की भी एक बात है। यह योजनाएँ रोजगार निर्माण करने में सहायक हुई तो निश्चित ही रोजगार समस्या की गंभीरता कम होगी। 

कृषि को संवारने की योजना 

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है और पर्यावरण बदलाव का असर कृषि पर सबसे ज्यादा है। पर्यावरण बदल रहा है इसमें अब शंका लेने का कोई कारण नहीं है। होने वाले बदलाव को रोकने की कोशिश जरूर करनी चाहिए। सरकार ने अपने बजट में इस ओर कदम बढ़ाए है, यह अच्छी बात है। यह सभी जानते है कि कृषि अनुसंधान की दिशा अब भी संकरीत बीजों और जहरीले कीटकनाशक के निर्माण पर टिकी हुई है। बजट में इस बार इस तरह के अनुसंधान व्यवस्था की समीक्षा करने एवं पर्यावरण अनुकूल कृषि संशोधन पर ध्यान देने की बात की है। कृषि के लिए उपयोगी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की बात भी इस बजट की एक उल्लेखनीय बात है। यह जरूर है कि कृषि अनुसंधान में निजी कंपनियों के सहयोग पर भारतीय किसान संघ ने आपत्ति जताई है। नैसर्गिक कृषि को बढ़ावा देने की बात भी उपयोगी कहलाएगी। 

समान्यों को राहत भी देनी होगी 

भारत में करों का बहुत बड़ा जाल है और वह जटिल भी है उसे कम करने की बात इस बजट की विशेषता कह सकते है। यही एक सामान्यों को बड़ी राहत है। करों में कटौती से ज्यादा परेशानी करों की जटिल व्यवस्था के कारण होती है। वैसे छूट कम होने से सामान्यजन दुखी है। कीमतें बढ़ रही है और उसका रिश्ता कही न कही करों के स्लैब, दर और छूट की आय से होना चाहिए। लेकिन बजट की भी अपनी मर्यादा है। जब खर्च ही ज्यादा है तो क्या करें। 

बजट की दिशा तो सही लेकिन काँटों का ध्यान जरूरी 

बजट में घोषित नई योजनाएं जो चल रही है वे सारी योजनाएँ तो अच्छी है, जो भारतीय व्यवस्था को विकसित भारत बनाने में मदद करेंगी। लेकिन यह भी सही है कि इतने से काम नहीं होगा। कौशल प्राप्ति में मदद और पहले रोजगार मिलने पर वेतन वगैरे से  रोजगार समस्या हल नहीं होगी। भारतीय उत्पादन और सर्विस क्षेत्रों में बढ़ोतरी और उसमें अधिक रोजगार उपलब्ध करने से ही बात बनेगी। ग्रामीण उद्योगों को भी नए नजरिये से देखना होगा और उसमें ज्यादा पूंजी लगानी होगी तभी कुछ हद तक हल निकलेगा। शैक्षणिक अभ्यास क्रम में कौशल निर्माण विषय लाना होगा और कंपनियों में एप्रेंटिसशिप का उसको मिलाना होगा तभी युवा में पदवी के साथ आत्मविश्वास आयेगा। कृषि में भी अनुसंधान के साथ बहुत सी नीतियाँ बदलनी होगी, चाहे वह आधारभूत कीमती की नीति हो या फिर खाद सब्सिडी की। पर्यावरण का मुक़ाबला कांटों भरा है यह नहीं भूलना चाहिए। अंत में यही कहा जा सकता है बजट ने दिशा तो बतलाई है लेकिन उस पर अमल बहुत सी बातें तय करेगा।

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