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भारतीय लोकतंत्र में विरोध 

आजकल सभी राजनीतिक दल सरकारी पैसा मुफ्त बाटने में  लगे हुए है, जो आज नहीं तो कल देश पर भरी पड़ेगा। इसलिये विरोधी दल का यह कर्तव्य बनता है कि वे सभी नीतियों के आधार ढूंढे और देशहित में नीतियों की चर्चा करें। - अनिल जवलेकर

 

भारतीय लोकतंत्र का एक चुनावी महोत्सव समाप्त हो गया है और नई सरकार भी बन गई है। जनता ने तो अपना ‘मत’ व्यक्त किया है लेकिन उसके अर्थ विद्वान लगा रहे है और आगे भी लगाते रहेंगे। किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला, यह बात स्वीकार करके ही आगे बढ़ना होगा। वैसे जो भी प्रतिनिधि जिस भी चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीत कर आए है आगे भी उसी से बंधे रहेंगे, यह कह नहीं सकते। इसलिए सरकार अस्थिर करने की कोशिशें जैसे होंगी वैसे ही उसे स्थिर रखने के भी प्रयास होते रहेंगे, और शायद यही राजनीति देश के हित में नहीं होगी। सरकार पाँच वर्ष चले और देश हित में काम करती रहे, यही देश के हित में है। निश्चित ही जो सरकार में नहीं है या विरोध में है उन्होंने भी देश हित हो ध्यान में रखकर बात की तो भारत सभी दृष्टि से विकास की ओर बढ़ता रहेगा, इसमें शंका नहीं है। 

लोकतंत्र में विरोध का स्थान 

लोकतंत्र की पहचान ही सभी से विचार विमर्श कर निर्णय लेने की प्रक्रिया से होती है। ‘सबका साथ सबका विश्वास’ भाजपा का भी नीति वाक्य रहा है। विरोध में होते हुए भी भाजपा देशहित ध्यान में रखकर ही सरकार और उनकी नीतियों का समर्थन या विरोध करती थी। आज के विरोधी दलों का भी यही कर्तव्य बनता है। लेकिन लगता है अब यह बात पुरानी हो चुकी है। नई लोकसभा का जिस तरह संसद अधिवेशन चला, उससे यह संशय उत्पन्न होता है। सरकार की नीतियों और सरकार के चाल-चलन का विरोध लोकतंत्र की आत्मा है और विरोधी दल का यही काम है कि जनहित विरोधी नीतियों का तथा उसकी अमल में हो रही त्रुटि या भ्रष्टाचार का विरोध करें। लेकिन अकारण और तमाशाई विरोध लोकतंत्र को कमजोर करता है, यह भी ध्यान रखना होगा।

बाहरी ताकतों का अजंडा चलाना गलत

नई लोकसभा में विरोधी दल चुनावी राजनीति संसद में लेकर आ रहे दिखते है जो कि चिंता का विषय है। बाहरी देश, जो देशविरोधी नेरेटिव तथा तत्सम कहानी चलाते है उसी कहानी को यहाँ के विरोधी दल के नेता अगर अपना एजेंडा बना लेते है तो वह  देश हित में नहीं होगा। आज के विरोधी दल ऐसा एजेंडा सामने रख रहे है और उससे खुश होते दिख रहे है यह बात दुर्भाग्य पूर्ण है। वैसे यह बात नई नहीं है कि बाहरी देश भारत को छिन्न-भिन्न और बिखरी हुई अवस्था में देखना चाहते है। यहां की कौमी एकता को छिन्न-भिन्न लगाना चाहते है और भारत को एक कंगाल और भीखमंगा देश बनाना चाहते है। उसके लिए जो भी बन पड़ता है वे करते आए है और करेंगे भी। यह भी सही है कि कोई भी देश दूसरे देश को समर्थ नहीं होने देना चाहता। यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का एक हिस्सा रहता आया है और आगे भी रहेगा। यहाँ के राजनेता इससे अनभिज्ञ है ऐसा नहीं है। फिर भी अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु विरोधी दल ऐसा करते है तो देश के भविष्य के लिए खतरनाक होगा। 

विरोधी दल विचारधारा स्पष्ट करें तो अच्छा 

सरकार का विरोध यानी उसकी नीतियों का विरोध होना चाहिए। लेकिन आजकल विरोधी दल देश का ही विरोध करते नजर आ रहे है जो चिंता का विषय है। भाजपा कई दशकों तक सरकार से कोसों दूर थी लेकिन उसकी एक निश्चित विचारधारा थी और उसके आधार पर सरकार की नीतियों का विरोध होता था। उनकी विचार धारा भी किसी बाहरी सामर्थ्य से या विचारधारा से प्रभावित नहीं थी, यह बात भी स्पष्ट है। उनकी विचारधारा से उभरकर उनकी नीतियाँ भी स्पष्ट थी और उनका विरोध भी स्पष्ट था। आज के विरोधी दल किसी भी नीतियों के प्रति स्पष्ट नहीं दिखते। इसलिए उनका विरोध भी चुनावी राजनीति का हिस्सा लगता है। उनके घोषणा पत्र भी उनकी कोई नीति स्पष्ट नहीं करते, न ही उसके पीछे कोई मूल्याधारित विचारधारा है। सिर्फ ‘खटा-खट’ और ‘फटा-फट’ कहने से कोई समस्या स्पष्ट नहीं होती, न ही उसका कोई समाधान सामने आता है। इससे कोई विचारधारा भी स्पष्ट नहीं होती है और न नीति स्पष्ट होती है। विरोधी दल को चाहिए कि भारतीय समस्याओं के प्रति अपना दृष्टिकोण रखे और स्पष्ट विचारधारा से उभरी नीतियाँ स्पष्ट करें। उसी के आधार पर सरकारी नीतियों का विरोध करें तो देश को लाभ होगा।

संसद में नीतियों पर बहस हो 

भारत की संसद में नीतियों पर सैद्धांतिक बहस कम ही होती है। इसका एक कारण यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिक दलों की सामाजिक विषयों पर भूमिका एक जैसी है। आर्थिक नीतियों में जरूर थोड़ा बहुत फर्क है लेकिन भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद आर्थिक नीतियों में मूलभूत परिवर्तन नहीं किया है। हालांकि दुनिया भर में साम्यवादी विचारधारा पराभूत होने के बाद जो उदारीकरण अपनाया गया। लेकिन वह भी सारी समस्याओं का समाधान नहीं दे सका। आज सारी दुनिया असमंजस में है। भारतीय दर्शन में दिया हुआ और स्वदेशी जागरण मंच जिसका पुरस्कार करता आया है, उस ‘तीसरे रास्ते’ पर चर्चा होना जरूरी है। सरकार की विकास में भूमिका और सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप की मर्यादा भी समझनी जरूरी हो गई है। आजकल सभी राजनीतिक दल सरकारी पैसा मुफ्त बाटने में  लगे हुए है, जो आज नहीं तो कल देश पर भरी पड़ेगा। इसलिये विरोधी दल का यह कर्तव्य बनता है कि वे सभी नीतियों के आधार ढूंढे और देशहित में नीतियों की चर्चा करें। नीतियों के पीछे की विचारधारा जितनी स्पष्ट होगी, नीति उतनी स्पष्ट होगी, यह बात नहीं भूलनी चाहिए। 

रचनात्मक सहयोग देश हित में 

आज भारत दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में गिना जाने लगा है। एक जमाना था जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था और दूर-दूर के रहवासी व्यापार हेतु यहाँ आते थे। कुछ यहाँ की संपत्ति लूटने के बहाने भी आए। कुछ तो यही बस गए तो कुछ लूटकर चले गए। बीच के कई सौ वर्षों तक भारत में लूटपाट होती रही और इसी लूट की वजह से भारत ने अपनी यह पहचान भी गवाई, फिर भी भारत समृद्ध रहा और आज फिर अपनी वहीं पहचान बना रहा है। ऐसे समय में यहाँ की सरकार स्थिर रहे और भारत के विकास और समृद्धि के लिए काम करें यह जरूरी है। विरोधी दलों को भी यह बात ध्यान में रखकर काम करना चाहिए। 

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