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बेरोज़गारीः आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?

रोज़गार समस्या की गंभीरता मुख्यतः पढ़े लिखे युवाओं की है। इसलिए सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में उपयोगी कृषि तथा उद्योग प्रधान बुनियादी ढांचा निर्माण करने से रोज़गार बढ़ाने में लाभ होगा और इसी से बेरोज़गार समस्या की गंभीरता कम होगी। - अनिल जवलेकर

 

आजकल भारत की रोज़गार समस्या पर बहस जोरो पर है, विशेष करके विरोधी दलों का यह बड़ा एजेंडा बना हुआ है और यह कहने की कोशिश हो रही है कि यह समस्या मोदी सरकार की नीतियों का नतीजा है। भारत में ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसी समस्या हमेशा से रही है। वैसे ऐतिहासिक तौर पर यह समस्या औद्योगिक युग की देन कही जा सकती है। पहले तो लोग अपने-अपने गांवों मे अपनी खेती या फिर संलग्न उद्योगों में काम करते थे और अपना जीवन निर्वाह करते थे। जो भी उत्पन्न होता उसी से सबका गुजारा हो जाता था। हाँ, यह बात सही है कि एक व्यक्ति के काम या फिर उसके निजी उत्पादन की गिनती नहीं की जाती थी और काम पर या उत्पादन पर किसी एक का निजी आधिकार नहीं होता था। उत्पादन सभी का होता और सभी उसका उपभोग करते। तब ‘बेरोज़गारी’ ऐसी कोई कल्पना नहीं थी। लेकिन औद्योगीकरण ने सब कुछ बदल दिया। जीवन निर्वाह से जीवन अलग हुआ और निर्वाह के लिए रोजगार जरूरी हो गया। कुटुंब व्यवस्था कमजोर हुई और हर एक को अपना जीवन निर्वाह साधन अपने आप ढूँढने की ज़रूरत महसूस हुई। जीवन निर्वाह के लिए रोज़गार और उसके लिए गांव-गांव भटकना भी शुरू हुआ और यही से इस रोजगार या बेरोजगार समस्या की बात होने लगी। अब तो सभी जगह यही एक समस्या दिखती है। 

क्या है यह रोज़गार और बेरोज़गार 

सही देखा जाएं तो यह सीधा-साधा प्रश्न है और इसका सीधा-साधा उत्तर है। लेकिन इसको कई मिथकों के साथ चर्चा करने से यह समस्या जटिल हुई है। पहले परिवार के कई सदस्य होते थे। कुछ काम में हाथ बटाते थे तो कुछ आलसी होकर दूसरे की कमाई पर मौज़ उड़ाते थे। लेकिन किसी को बेरोज़गार नहीं गिना जाता था। वैसे शरीर और मन से सक्षम व्यक्ति को अपने और अपने परिवार के जीवन निर्वाह के लिए कुछ न कुछ काम करना पड़ता है और वह अपनी शारीरिक और मानसिक कुशलता से वह यह काम करने की कोशिश करता है। पहले कृषि मुख्य थी और उसी संबंध में आस-पास अपने श्रम शक्ति का उपयोग करके जीवन निर्वाह होता था। यह भी सही है कि पहले युद्ध या लड़ाइयाँ बहुत होती थी तो वह भी निर्वाह का एक जरियां था। बहुत सारे समाज को अन्य कुछ ज़रूरी वस्तु एवं सेवा देकर अपने कौशल का उपयोग कर अपने गांव में ही जीवन निर्वाह करते थे। लेकिन अब यह सब बदल गया है। श्रम और कौशल अब भी व्यक्ति के पास है लेकिन जीवन निर्वाह हो सके ऐसा साधन या तो नहीं है या फिर उससे जीवन निर्वाह हो इतनी आय नहीं होती। और अब व्यक्ति की सोच भी एकांतिक स्वतन्त्रता की हुई है। वह अब परिवार के साथ अपना श्रम या कौशल से  प्राप्त उत्पन्न मिल-बाट कर खाना नहीं चाहता। कौशल भी अब अलग-अलग शैक्षणिक पदवी से जुड़ गया है जिससे उसे रोज़गार मिल सकता है। जीवन निर्वाह की बात भी परिवार से अलग होकर अब व्यक्तिगत रोज़गार और उससे होने वाली पैसों की व्यक्तिगत आय प्राप्ति से जुड़ गई है। उसे अपने गांव में रहकर पारिवारिक रूप पर चले आ रहे साधन और कौशल से जीवन निर्वाह करने की ज़रूरत नहीं रही। इसलिए उसे गांव छोड़कर रोज़गार तलाशना पड़ रहा है ताकि अपनी आय बढ़ा सके और अपने तथा अपने सीमित परिवार के लिए अच्छा सुखमय जीवन प्राप्त कर सके। ऐसे में हर सक्षम व्यक्ति समाधान कारक रोज़गार की तलाश में है। निश्चित ही रोज़गार की तलाश में ज़्यादा लोग है और उस मुक़ाबले रोज़गार कम उपलब्ध है। बस यहीं बेरोज़गार समस्या की जड़ है। 

रोज़गार की तलाश भारी पड़ रही है 

भारतीय समाज की एक बड़ी समस्या यह भी है कि हर कोई सरकारी नौकरी की तलाश में है। सरकारी नौकरी में काम कम और सुख-सुविधा ज़्यादा होती है। पेंशन वगैरह अलग। लेकिन आजकल सरकार अपनी दुकानदारी बंद कर रही है और ज़्यादातर खर्च लोक कल्याण पर कर रही है। सरकारी कारख़ाने और सरकारी ज्यायदाद का निजीकरण हो रहा है। तो ज़ाहिर है सरकारी नौकरी न के बराबर है। हाँ यह सही है कि सरकारी अधिकारी और मंत्रियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन वहाँ स्पर्धा है और वहाँ पहुँचना मुश्किल हो रहा है। इसलिए भारतीय युवा अपने आप को असुरक्षित और बेरोज़गार महसूस कर रहे है। यह वास्तविकता है। निजी क्षेत्र का हाल इससे अलग नहीं है। नया तंत्र ज्ञान रोज़गार कम कर रहा है। परिणाम यह है कि बहुत कम आय देने वाले असंगठित क्षेत्र में ही रोज़गार उपलब्ध है। कहा जाता है कि क़रीब 60 प्रतिशत रोज़गार व्यक्ति को 20 हज़ार रुपये महावर से भी कम वेतन/आय देते है। तो ऐसी स्थिति में रोज़गार मिलने पर भी युवा अपने आपको बेरोज़गार समझते है। 

रोज़गार की कल्पना और उसका आयाम बदलना होगा 

बेरोज़गार और उपलब्ध रोज़गार का मेल बिठाना शायद एक मुश्किल काम है। इसके कई पहलू हैं। साधारणतः जो कुछ काम नहीं करता और काम करने के लिए उपलब्ध है ऐसे को बेरोज़गार कहते है। सबसे बड़ी बात है कि 15 साल के बाद ही बहुतों को बेरोज़गार कहा जाता है। वैसे यह भी भारत जैसे देश को लागू नहीं होता क्योंकि यहा ँकि ग़रीबी बचपन में ही रोज़गार ढूँढने को मजबूर करती है। यह भी है कि आजकल कौशल के हिसाब से भी रोज़गार नहीं मिलता। मजबूरी में कम आय पर भी लोग कोई भी काम करते नज़र आते है। और वे भी अपने आप को बेरोज़गार समझते है। पहले के मुक़ाबले महिला भी बड़ी संख्या में  रोज़गार क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। शैक्षणिक प्रसार से पदवी धारकों की संख्या भी बड़ी हुई है और वे अब श्रम के काम करना नहीं चाहते। आकड़ों से तो यह साफ़ है कि जितने रोज़गार उपलब्ध हो रहे है उससे ज़्यादा लोग रोज़गार माँगने के लाइन में खड़े है। तो बेरोज़गार की समस्या को आसानी से हल नहीं किया जा सकता। यह एक बड़ी समस्या है यह मानकर ही इस समस्या की बात करनी होगी। स्वयं रोज़गार बढ़ाना होगा और परिवार को इकाई बनाकर पूरे परिवार को अच्छा जीवन स्तर मिले ऐसी आय की व्यवस्था करनी होगी तभी कुछ हल निकलेगा। वैसे आज भी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में परिवार के कम से कम एक सदस्य को साल के कुछ दिन तो रोज़गार देने की बात है।

उद्यमशीलता में ही बेरोज़गार समस्या का हल

हर सक्षम व्यक्ति अपने कौशल का उपयोग कर अपने परिवार के अन्य सदयों के साथ मिलकर अच्छा और खुशहाल जीवन व्यतीत करे ऐसी समाज-आर्थिक व्यवस्था ही इस समस्या की गंभीरता कम कर सकती है। आज कृषि करने योग्य साधन होने के बाद भी लोग कृषि नहीं करना चाहते और इसका मुख्य कारण कृषि से मिलने वाला उत्पन्न फ़ायदेमंद नहीं है। इसलिए आर्थिक नीति का पहला उद्देश्य कृषि को संपन्न कर किसानों के लिए कृषि एक निश्चित आय का स्रोत बने यह होना ज़रूरी है। कृषि के साथ ग्रामीण युवकों में कौशल और उद्यमशीलता बढ़ाने से ही स्व रोज़गार का निर्माण किया जा सकता है। उसके लिए सिर्फ़ पदवी देने वाली शैक्षणिक व्यवस्था को बढ़ाने से काम नहीं होगा। उसे उद्यमशीलता में आवश्यक कौशल निर्माण करने वाली तथा उद्योग में सहयोग देने वाली व्यवस्था में परिवर्तित करना होगा। इसमें यह ध्यान देना आवश्यक है कि जो अपने ख़ुद के भरोसे से कौशल हासिल कर स्पर्धा में  उतरकर अपने लिए रोज़गार ढूँढने में सक्षम है उनकी चिंता करने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं है। उनको आवश्यक सहायता मिले ऐसी व्यवस्था काफ़ी होगी। लेकिन जो युवा पिछड़ गये है और स्पर्धात्मक दुनिया में संभल नहीं पा रहे है, जिनकी संख्या बहुत ज़्यादा है, ऐसों के लिए रोज़गार साधन निर्माण करने होंगे और जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक आय की व्यवस्था करनी होगी। छोटे उद्योग एवं सामान्य सेवा का निर्माण ही इसमें सहायक हो सकते है। देखा गया है कि श्रम-शक्ति का उपयोग कर रोज़गार ढूँढने वालों को को सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना चला रखी है और उससे लाभ भी हुआ है। रोज़गार समस्या की गंभीरता मुख्यतः पढ़े लिखे युवाओं की है। इसलिए सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में उपयोगी कृषि तथा उद्योग प्रधान बुनियादी ढांचा निर्माण करने से रोज़गार बढ़ाने में लाभ होगा और इसी से बेरोज़गार समस्या की गंभीरता कम होगी।         

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