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यूपीएस: सरकार ने कदम नहीं खींचे, सुधार के साथ सहयोग के लिए बढ़ाया हाथ

असल में सरकार ने अपने नए फैसले से नई पेंशन योजना को यूनिफाइड पेंशन योजना के जरिए कुछ और अधिक बेहतर बनाने का प्रयास किया है। - अनिल तिवारी

 

विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस पार्टी द्वारा भारत में पेंशन को बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश लगातार की जा रही है। इंडिया ब्लॉक के नेता राहुल गांधी लगभग हर चुनावी मौके पर कहते आ रहे हैं कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में वापस लौटी है तो वर्ष 2004 में लाई गई नयी पेंशन योजना (एनपीएस) को खत्म कर देंगे और पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) फिर से बाहाल की जाएगी। इसीलिए पिछले दिनों जब रजग सरकार ने एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) की घोषणा की तो विरोधी दल की तरफ से आरोप लगाया गया कि भाजपा को अब खुद की नीतियों पर भरोसा नहीं रहा क्योंकि भाजपा लोकसभा चुनाव में खुद के दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी है, इसलिए भाजपा दबाव में आकर अपनी ही नीतियों में परिवर्तन कर रही है। कांग्रेस द्वारा यह भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि भाजपा अब पहले की तरह अपनी नीतियों पर अधिक स्थिर नहीं रह सकती, इसी वजह से उसे बारी-बारी से मुद्दों पर अपने कदम वापस लेने पड़ रहे हैं।

यह ठीक है कि वर्तमान सरकार ने एनपीएस की जगह यूपीएस की घोषणा की है। लेकिन 100 टके की सच्चाई यह है कि इस एनपीएस के सबसे बड़े विरोधी राहुल गांधी की जीत बताना न सिर्फ राजनीतिक बड़बोलापन है बल्कि नीतिगत तौर पर भी गलती होगी। क्योंकि एनपीएस में जो बुनियादी बातें थी उन्हें जस का तस यूपीएस में भी बरकरार रखा गया है। यूपीएस में सिर्फ इस बात की गारंटी की गई है की आखिरी पगार की कम से कम 50 प्रतिशत पेंशन दी जाएगी। यह एक तरीके से पेंशन योजना में अच्छा सुधार है। इसे अच्छी नीति कहना ज्यादा समीचीन होगा क्योंकि इसके होने से श्रमिकों के बीच अपने फायदे के हिसाब से बांटी जाने वाली रेवड़ी संस्कृति की एक तरह से हार होगी।

पुरानी पेंशन योजना में सरकारी कर्मचारियों को उनके आखिरी तनख्वाह की 50 प्रतिशत राशि पेंशन के रूप में दी जाती थी। इसे महंगाई दर से मिलान करके समय के साथ बढ़ाया जाता था। लेकिन दुनिया भर में इस तरह की योजना लंबे वक्त में सरकारों के दिवालिया होने का कारण बनती गई। इस योजना में वक्त के साथ पेंशन का खर्च बहुत ज्यादा बढ़ जाता है जिससे सरकारों के लिए सभी नागरिकों की खातिर दूसरी कल्याणकारी योजनाएं लाने में बहुत तरह की परेशानी खड़ी होती है।

पुरानी पेंशन योजना जैसी गारंटीशुदा पेंशन योजना में भविष्य में इसके भुगतान के लिए फंड इकट्ठा करना टेढ़ी खीर हो जाती है। इसमें एक तरह से वर्तमान कर दाताओं को भविष्य के पेंशन याफ्ता लोगों के लिए प्रारंभ से ही भुगतान करना पड़ता है। ऐसी योजना तभी टिकाऊ हो सकती है जब अवकाश प्राप्त कर रहे लोगों के बदले बड़ी संख्या में हर जगह युवाओं की बहाली हो। लेकिन आज दुनिया के पैमाने पर शिशु जन्म दर में लगातार गिरावट आ रही है। इसलिए फिलहाल यह असंभव सा है। 

मालूम हो कि वर्ष 1990-91 में भारत सरकार का पेंशन पर खर्च 3272 करोड रुपए और राज्यों का 3131 करोड़ था। लेकिन वर्ष 2020-21 तक केंद्र के लिए यह रकम 58 गुना बढ़कर 190886 करोड़ और राज्यों के लिए 125 गुना बढ़कर 386001 करोड रुपए हो गई थी। इस भारी बोझ को देखते हुए ही नई पेंशन योजना लाई गई थी ताकि सरकार पेंशन की वजह से दिवालिया ना हो। इसे उन लोगों पर लागू किया गया जो 2004 के बाद सरकारी सेवा से जुड़े हैं। इसमें सैलरी और महंगाई भत्ते का 10 प्रतिशत कर्मचारियों को देना होता था और सरकार 14 प्रतिशत का योगदान करती थी। इससे अवकाश प्राप्त लोगों की खातिर अच्छी पेंशन की व्यवस्था के साथ-साथ सरकारी खजाने पर बोझ भी कम हो रहा था।

गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी जब वर्ष 2004 से 2014 तक सत्ता में थी तो उसे नई पेंशन योजना से कोई तकलीफ नहीं थी। उसने इस योजना को लेकर कभी भी किसी तरह का कोई एतराज नहीं जताया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहने तब नई पेंशन योजना को ऐतिहासिक योजना बताया था और कहा था कि यह एक अच्छा बजटिंग व्यवहार है। लेकिन वर्ष 2014 और वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीतने के बाद से ही राहुल गांधी किसी ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें जनता का कुछ वोट दिला सके। इस क्रम में अपने पुराने क्रियाकलापों पर गंभीरता से विचार किए बगैर उन्होंने नई पेंशन योजना को निशाना बनाना शुरू कर दिया। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वर्ष 2018 में जब उनकी पार्टी सत्ता में लौटी तो उन्होंने दोनों राज्यों में नई पेंशन योजना को समाप्त कर पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का ऐलान भी करवाया।

जिन राज्यों में उन्होंने नई पेंशन योजना की जगह पुरानी पेंशन योजना को लागू करवाया वहां सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाने की वजह से तीव्र आलोचना भी हुई। केंद्र की यूपीए सरकार में योजना आयोग के अध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी तब कहा था की पुरानी पेंशन योजना की वापसी सबसे बड़ी रेवड़ी है, जिसे फिर से बढ़ावा दिया जा रहा है। यह केंद्र के साथ-साथ राज्यों के वित्तीय हालत को भी कमजोर करने वाली योजना है।

सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह दोनों ही कांग्रेस के जाने-माने अर्थशास्त्री और बड़े नेता रहे हैं जिन्होंने नई पेंशन योजना की जोरदार तरीके से वकालत की। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी ने अपनी ही पार्टी के दो सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों की बात नकार दी? कांग्रेस के बड़े नेताओं की राय के उलट नयी की जगह पुरानी पेंशन योजना लाने के संबंध में उसकी कोई तार्किक वजह उन्होंने क्यों नहीं बताई? क्या कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कुछ वोट पाने के लालच में अपनी ही पार्टी की नीति बदल दी?

भारतीय रिजर्व बैंक के एक हालिया अध्ययन में बताया गया है कि पुरानी पेंशन योजना को वर्ष 2023 से अपनाए जाने के कारण उन राज्यों को कोई बहुत राहत नहीं मिली है। लेकिन जिन राज्यों में इसे दोबारा लागू करने की घोषणा हुई है भविष्य में उनकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं रह जाएगी। दावा किया गया है कि यह नीति स्थाई नहीं हो सकती। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि अतिरिक्त पेंशन खर्च बढ़ने की वजह से राज्यों पर नई पेंशन योजना की तुलना में 450 प्रतिशत का अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा। इसलिए भी यह किसी भी सूरत में किसी भी राज्य के लिए एक अच्छी नीति नहीं हो सकती है।

यह भी सही है कि नई पेंशन योजना में कुछ खामियां थी। पहली खामी तो यही थी कि इसमें न्यूनतम पेंशन की कोई गारंटी नहीं थी।अब यूनिफाइड पेंशन योजना में उसे दुरुस्त किया गया है इससे एनपीएस की तुलना में सरकार का कुछ खर्च तो बढ़ेगा लेकिन अवकाश प्राप्त लोगों को बुनियादी जरूरत के लिए पेंशन के तौर पर एक गारंटीकृत राशि मिलने लगेगी। यूनिफाइड पेंशन योजना में नई पेंशन योजना की बुनियादी बातों को शामिल किया गया है जो कि कर्मचारियों की ओर से पेंशन की खातिर एक तय भुगतान है, इसलिए यह कहना कि सरकार ने इस मामले में कदम पीछे खींच लिए हैं, सही आकलन नहीं है। असल में सरकार ने अपने नए फैसले से नई पेंशन योजना को यूनिफाइड पेंशन योजना के जरिए कुछ और अधिक बेहतर बनाने का प्रयास किया है।

और जहां तक भाजपा नीत राजग सरकार के कदम वापस करने की बात है तो वह सरासर गलत है। पेंशन योजना के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी बार-बार अपना स्टैंड बदलती रही है और अपने ही पार्टी के बड़े नेताओं का एक तरह से तिरस्कार करती रही है।

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