क्या कबाड़ बन जाएगा सरसों का साग?
भली-भांति यह जानते हुए कि जीएम सरसों से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरे देश के लिए बहुत गंभीर होंगे, इसका समर्थन करने वाली लाबी द्वारा लगातार झूठा दावा किया जा रहा है। — स्वदेशी संवाद
सर्दियां आते ही हवा में सरसों के साग का एक अलग स्वाद होता है। नाम सुनकर ही मुंह में पानी ला देने वाला यह व्यंजन जो युगों से हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है, लेकिन इस बात का डर है कि सदियों पुराना यह स्वादिष्ट व्यंजन अब केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक निर्णय से दुर्लभ हो सकता है। जीएम खाद्य पदार्थों के साथ होने वाले स्वास्थ्य खतरों को भली प्रकार से जानते हुए भी मंत्रालय अनुवांशिक रूप से संशोधित जीएम सरसां को व्यवसायिक स्वीकृति देने पर विचार कर रहे है। अगर यह होता है तो निश्चित रूप से लोग मक्के की रोटी व सरसों का साग से अब दूर रहना ही पसंद करेंगे।
तार्किक तौर पर भी पारंपरिक रूप से दैनिक व्यंजनों का एक हिस्सा रहे खाद्य फसलों को अनुवांशिक रूप से संशोधित करने का कोई बेताब कारण नहीं है। इसके अलावा जीएम सरसो को सामान्य सरसो से अलग करने का कोई तरीका नहीं है जिससे कि आम आदमी निश्चिंत हो सके। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की नोडल एजेंसी जीएसी ने 2010 में बीटी बैगन की मंजूरी को लेकर आगे बढ़ी थी लेकिन उसने अपने पैर वापस खींच लिए। अगर वह मंजूरी मिल गई होती तो बीटी बैगन भारत में अनुवांशिक रूप से संशोधित होने वाली पहली खाद्य फसल होती। अब वही समिति दिल्ली विश्वविद्यालय की जीएम सरसों की किस्म डीएमएच-11 को हरी झंडी दी है। विकासकर्ताओं का दावा है कि यह जीएम सरसों 20 से 25 फ़ीसदी अधिक उपज देती है और सरसों के तेल की गुणवत्ता में भी सुधार करती है। अब इन दावों की सत्यता की जांच करने का समय आ गया है।
दावों के बावजूद यह भी समझने का समय है कि फसल उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर कितनी आसानी से हमारे भोजन के साथ छेड़छाड़ की जा रही है। सच तो यह है कि दुनिया भर में अब तक कोई ऐसी जीएम फसल नहीं है जिससे उत्पादकता बड़ी हो यहां तक कि जीएम सरसों से भी उपज में वृद्धि का दावा केवल हाइब्रिड किस्म के कारण किया जा रहा है जिसमें तीन एलियन जिंस डाले गए हैं जिसका अर्थ है कि यदि आप बाजार में उपलब्ध लोकप्रिय सरसों में से किसी एक को उगाते हैं तो आपको शायद ही कोई उपज लाभ होगा। यह बार-बार कहा जा रहा है कि भारत हर साल 60000 करोड रुपए के खाद्य तेलों का आयात करता है और इसलिए जीएम सरसों की उत्पादकता बढ़ने से आयात का बिल कम हो जाएगा। जो लोग वास्तविक स्थिति को नहीं जानते हैं उनके लिए यह एक सार्थक प्रस्ताव प्रतीत हो सकता है, लेकिन जो ज्ञात नहीं है वह यह है कि देश में तेल का भारी आयात, प्रौद्योगिकी की कमी के कारण नहीं है या हमारे किसान उत्पादन करने में असमर्थ हैं। यह आयात इसलिए है क्योंकि क्रमिक सरकारों ने आयात शुल्क को 300 प्रतिशत की लागू दर से घटाकर अब शून्य प्रतिशत करने के लिए भारी कटौती की अनुमति दी है। नतीजतन भारत सस्ते आयात से भर गया है, नहीं तो तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन ने भारत को एक प्रमुख आयातक से खाद्य तेल उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर बना दिया था।
डाउनस्लाइड
भारत अपनी पीली क्रांति को खत्म करने के लिए विश्व व्यापार संगठन डब्ल्यूटीओ के दबाव के आगे खुशी से झुक गया और फिर गिरावट शुरू हो गई। वास्तव में पीली क्रांति का अंत इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे एक होनहार घरेलू खाद्य तेल क्षेत्र को आर्थिक उदारीकरण की वेदी पर बलिदान कर दिया गया। आयात शुल्क में भारी कटौती से सस्ते आयात की बाढ़ आ गई जिससे किसान खेती से बाहर हो गए। चरणबद्ध तरीके से आयात शुल्क 300 प्रतिशत के निर्धारित स्तर से घटाकर आज लगभग शून्य प्रतिशत कर दिया गया है। नतीजतन किसानों ने तिलहनी फसलों की खेती छोड़ दी और प्रसंस्करण उद्योग भी बंद हो गए। भारत आज अपनी जरूरत का 67 फ़ीसदी से ज्यादा खाद्य तेल आयात करता है जिसकी कीमत 66000 करोड़ रू. है।
कृषि मंत्री ने भी बार-बार खाद्य तेल के आयात पर निर्भरता कम करने की जरूरत पर जोर दिया है। किसी भी शिक्षित और चिंतित नागरिक से पूछे तो वह आयात में कटौती करने और घरेलू किसानों की मदद करने का आह्वान करेगा। लेकिन मैंने सोचा था कि मंत्रियों को कम से कम पता होगा कि भारत वास्तव में खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर था और यह हमारी दोषपूर्ण व्यापार नीतियों के कारण ही खाद्य तेलों की दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन गया है। जब मैंने भारतीय खाद्य निगम के बंटवारे पर उच्चस्तरीय शांताकुमार समिति के सामने एक प्रस्तुति दी कि कैसे व्यापार उदारीकरण ने तिलहन क्रांति को नष्ट कर दिया है तो उन्होंने उसे बखूबी समझा। वह इस मामले में समझदार थे। उनकी सिफारिशों में व्यापार नीतियों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता शामिल है ताकि घरेलू उत्पादन को सस्ते आयात से बचाया जा सके।
ज्ञातव्य हो कि भारत ने 2015 में तिलहन उत्पादन में किसी कमी के कारण 66000 करोड़ों रुपए के खाद्य तेलों का आयात नहीं किया था। दरअसल हम आयात को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों पर चल रहे थे, जिसके कारण देश एक बड़े आयात बिल के बोझ से दब गया है। हालांकि जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति की उप समिति नोडल अंतर मंत्रालय एजेंसी, जिसकी स्वीकृति आवश्यक है, ने जीएम सरसों की जिन किस्मों को सुरक्षित होने के रूप में मंजूरी दे दी है। तथ्य है कि सुरक्षा डाटा को छिपा कर रखा जा रहा है। केंद्रीय सूचना आयोग ने जनता के साथ सुरक्षा डाटा साझा करने का निर्देश दिया है। यह सुखद है कि मंत्रालय ने डाटा को जीईएसी के वेबसाइट पर डालने और सार्वजनिक टिप्पणियों को आमंत्रित करने का वादा किया। लेकिन मुझे यह जानकर झटका लगा कि जीईएसी के सदस्य इस बात से बिल्कुल भी परेशान नहीं है कि जीएम सरसों रासायनिक शाकनाश्कों के उपयोग को बढ़ाएगी। वास्तव में जीएम सरसों में शाकनाशी सहिष्णु जीनों का चतुर ढेर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी बॉयर द्वारा बेचे जा रहे शाकनाशी के पक्ष में है।
असफल प्रयोग
बीटी कॉटन ने भी रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग में वृद्धि की थी। उद्योग चाहे जो भी दावा करें तथ्य है कि भारत में कीटनाशकों का उपयोग बढ़ गया है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ कॉटन रिसर्च के अनुसार 2005 में भारत में कपास पर 649 करोड़ों रुपए के रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया था। 2010 में जब कपास के तहत लगभग 92 प्रतिशत क्षेत्र बीटी कपास किस्मों में स्थानांतरित हो गया, तब मूल्य के संदर्भ में उपयोग बढ़कर 880.4 करोड़ हो गया। चीन में जहां बीटी कपास को सिल्वर बुलेट केस के रूप में प्रचारित किया गया था। वहां के किसान कपास के कीड़ों को नियंत्रित करने के लिए 20 गुना अधिक रसायनों का प्रयोग करते हैं। ब्राज़ील और अर्जेंटीना जैसे देश में भी जीएम फसलों के कारण कीटनाशकों के उपयोग में 200 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। ऐसे समय में जब भारत में कपास के किसान 2015 में हुए सफेद मक्खी के हमले के बाद अनुवांशिक रूप से संशोधित बीटी कपास से दूर चले गए हैं और फसल वॉलबर्म के लिए अति संवेदनशील हो गई है। मैंने सोचा था कि पर्यावरण मंत्रालय ने इससे सबक सीखा होगा। सफेद मक्खियों के हमले से हुए कपास के नुकसान के कारण पंजाब में 300 से अधिक कपास किसानों ने आत्महत्या कर ली है। आखिर इसके लिए जीएम बीज कंपनियों को इसका दोषी क्यों नहीं ठहराया जा रहा? क्या भारत में मानव जीवन इतना सस्ता हो गया है कि कपास पट्टी में होने वाली हत्याओं पर भी कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय मौन रहता है? जीएम मुक्त भारत के लिए गठबंधन के बैनर तले नागरिक समाज समूह ने पहले ही जीएम सरसों के लिए दावा किए जा रहे 26 प्रतिशत अधिक उपज के उत्पादकता वाले दावों को खारिज कर दिया है। यही नहीं किसानों ने डेवलपर्स पर डाटा को गलत साबित करने और कुछ बेकार किस्मों के साथ जीएम सरसों के उपज प्रदर्शन की तुलना करने का भी आरोप लगाया है।
कुल खपत वाले खाद्य तेल में सरसों के तेल की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत है। खाद्य तेल पर आयात शुल्क बढ़ाने और किसानों को उच्च खरीद मूल्य प्रदान करने पर जोर दिया जाना चाहिए। वह बाकी काम खुद कर लेंगे। समाधान के रूप में विवादास्पद और जोखिम भरे जीएम सरसों के लिए मजबूर करने के लिए किसी भी तरह के तर्क का उपयोग न किया जाए, यह कहीं से भी ठीक नहीं है। और अगर आपने किसी को टीवी विज्ञापनों में यह कहते हुए देखा है, सुना है कि जो सरसों का तेल खरीदते हैं वह काफी हद तक दूषित होता है तो यह एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। (ऑर्गेनाईजर से साभार)
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