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प्रधानमंत्री की रूस यात्रा - भारत प्रथम

वास्तव में, यदि पश्चिमी देश वास्तव में युद्ध को समाप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें इस युद्ध में मध्यस्थता करने के लिए भारत पर पूरा भरोसा करना चाहिए। - डॉ. अश्वनी महाजन

 

हाल ही में प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में जिस यात्रा ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी, वो उनकी रूस यात्रा थी। भारत और रूस के घनिष्ठ और पुराने रिश्ते किसी से छुपे नहीं हैं। एक जमाना था जब अमरीका और यूरोप के देश भारत के शत्रुओं का पक्ष लेते थे, तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तत्कालीन सोवियत रूस भारत के मित्र के रूप में अडिग खड़ा दिखाई देता था। सोवियत रूस के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति और द्विध्रुवीय विश्व के स्थान पर एक ध्रुवीय वैश्विक परिपेक्ष्य में भी रूस एक महाशक्ति के रूप में बना हुआ है। भारत रूस से बड़ी मात्रा में प्रतिरक्षा का सामान खरीदता रहा है, इसलिए रूस के साथ भारत के व्यापारिक रिश्ते काफी हद तक प्रतिरक्षा के सामान की खरीद तक ही सीमित रहा करते थे।

युक्रेन युद्ध के साथ बदली तस्वीर

यूरोपीय देशों के प्रभाव में आकर जब रूस के पड़ोसी देश युक्रेन ने नाटो के साथ पींगे बढ़ाने शुरू की तो रूस को यह रास नहीं आया और फरवरी 2022 से रूस और युक्रेन के बीच संघर्ष का एक दौर शुरू हो गई। समझ सकते हैं कि ताकतवर रूस के सामने युक्रेन हल्का रहा और इस युद्ध का युक्रेन को भारी नुकसान हुआ। अमरीका और यूरोप के देश सीधे तौर पर युद्ध में शामिल तो नहीं हुए, लेकिन तमाम प्रकार की सैन्य और अन्य प्रकार की मदद युक्रेन को अवश्य दी गई।

चूंकि अमरीका के रूस के साथ सीधे युद्ध करने के भयावह परिणाम हो सकते थे, इसलिए अमरीका ने रूस पर हमला न करते हुए उसको आर्थिक नुकसान पहुंचाने की दृष्टि से उस पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए। इन प्रतिबंधों में अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली ‘स्विफ्ट’ से रूस की बेदखली, रूस से सामान खरीदने वाले देशों के साथ प्रतिकूल व्यवहार, रूस के अमरीका के पास पड़े विदेशी मुद्रा भंडार की जबरन जब्ती समेत कई प्रकार के कदम अमरीका के द्वारा तो उठाए ही गए, साथ ही साथ अमरीकी ब्लॉक में शामिल यूरोपीय देशों में भी रूस के साथ उसी प्रकार का व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया।

भारी मात्रा में रूस से तेल की खरीदी

अमरीकी और यूरोपीय प्रतिबंधों के चलते रूस जो काफी हद तक पेट्रोलियम पदार्थों के निर्यात पर निर्भर करता था, ने अपने तेल की कीमत काफी कम कर दी ताकि अमरीकी ब्लॉक से बाहर के देशों को उसे खरीदने के लिए आकर्षित किया जा सके। ऐसे में भारत ने रूस से तेल की खरीद को काफी अधिक बढ़ा दिया। रूस से तेल की खरीद के कारण भारत को काफी फायदा हुआ। इसका सबसे महत्वपूर्ण लाभ तो यह था कि भारत, जो अपनी पेट्रोलियम पदार्थों की आवश्यकताओं के लिए भारी मात्रा में विदेशों पर निर्भर करता है, उसे लगभग 40 प्रतिशत कम कीमत पर रूस तेल मिलना शुरू हो गया था। इसका दूसरा फायदा यह था कि चूंकि रूस स्थानीय कैरेंसियों में व्यापार करने के लिए तैयार था, ऐसे में भारत के साथ उसका रूपए में लेनदेन शुरू हो गया।

यही नहीं युक्रेन युद्ध के कारण वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों में बदलाव के चलते और भारत द्वारा इस दिशा में लक्षित प्रयासों के कारण अब भारत ने दुनिया के लगभग 20 से भी ज्यादा देशों के साथ रूपए में लेनदेन शुरू कर दिया। जाहिर है कि इन सब बदलावों के चलते अब अमरीका और अमरीकी डालर का दबदबा दुनिया में कम होने लगा है। इन सब बदलावों की पृष्ठभूमि में भारत और रूस के बीच घनिष्ठ संबंधों की भी एक महती भूमिका है।

ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रूस यात्रा के कारण पश्चिमी विश्व में एक अलग सी हलचल मची हुई है। अमरीका और यूरोपीय देशों को भारत और रूस के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों के कारण एक अजीब-सी बेचैनी हो रही है। अमरीका और यूरोपीय देशों द्वारा यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या भारत द्वारा रूस से तेल की खरीद के मायने यह हैं कि भारत अप्रत्यक्ष रूप से रूस को युक्रेन युद्ध के लिए वित्त पोषित कर रहा है। ऐसा भी कहा जा रहा है कि रूस क्या भारत के प्रतिरक्षा क्षेत्र में और अधिक महत्वपूर्ण साझेदार बन जाएगा। इन देशों को यह चिंता भी सता रही है कि इससे उनकी आर्थिक और सामरिक ताकत पर भी प्रभाव पड़ेगा।

इन देशों को समझना होगा कि अब समय बदल गया है। भारत आर्थिक और सामरिक दृष्टि से काफी ताकतवर हो गया है। आज प्रतिरक्षा के सामानों के लिए वो काफी हद तक आत्मनिर्भर है और ताकतवर भी। प्रतिरक्षा के कई सामानों जैसे मिसाईल, तोप और राइफलों समेत कई देशों को वह निर्यात भी कर रहा है। ऐसे में भारत स्थापित प्रतिरक्षा सामान बनाने वाले देशों के साथ प्रतिस्पर्धा भी कर रहा है। आज भारत अमरीका के आंख दिखाने के बावजूद भी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाते हुए रूस से भारी मात्रा में तेल भी खरीद रहा है और रूपयों में भुगतान भी कर रहा है। भुगतानों के डिजिटलीकरण के चलते आज भारत स्वीफ्ट से बेदखली जैसे अमरीकी प्रतिबंधों से भी नहीं डरता।

भारत रूस से अपने कुल प्रतिरक्षा आयातों का अभी भी 45 प्रतिशत आयात करता है। अपने 40 प्रतिशत तेल के आयातों को भारत रूस से मंगाता है। पश्चिमी देशों के इस आरोप का कोई मतलब नहीं कि भारत रूस से तेल खरीदकर उसे युक्रेन युद्ध के लिए वित्त पोषित कर रहा है। वास्तविकता यह है कि भारत रूस को डॉलरों में नहीं बल्कि रूपयों में भुगतान कर रहा है और चूंकि रूस स्विफ्ट से बेदखल है, इन रूपयों को डॉलरों में बदल नहीं सकता। ऐसे में यह सारा पैसा रूसी तेल कंपनियों के भारतीय खातों में ही पड़ा हुआ है। हां, भारत को इसका लाभ जरूर हो रहा क्योंकि अब रूस इस रूपए के भंडार को भारत में ही निवेश कर रहा है, चाहे वो इन्फ्रास्ट्रक्चर हो या भारत का शेयर बाजार।

पश्चिमी देशों को यह भी समझना होगा कि चूंकि भारत रूस से तेल खरीदकर अपनी 40 प्रतिशत आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है, और सस्ते दाम पर तेल खरीद रहा है, इसके कारण शेष दुनिया में तेल की मांग कम हो रही है, जिसके चलते यूरोपीय देशों को भी तेल सस्ता मिल रहा है। यानि भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने का अप्रत्यक्ष लाभ पश्चिमी देशों को भी हो रहा है।

भारत है सही मायने में शांतिदूत

प्रधानमंत्री ने रूसी प्रधानमंत्री पुतिन की मौजूदगी में कहा कि यह युद्ध का समय नहीं है। भारत ने बार-बार कहा है कि युद्ध समाप्त होना चाहिए। जैसा कि हम समझते हैं कि युद्धरत देशों के बीच विश्वास की कमी के कारण, भारत सहित बहुत कम देश रूस और यूक्रेन के बीच इस युद्ध को समाप्त करने के लिए मध्यस्थता कर सकते हैं। वास्तव में, यदि पश्चिमी देश वास्तव में युद्ध को समाप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें इस युद्ध में मध्यस्थता करने के लिए भारत पर पूरा भरोसा करना चाहिए। अब समय आ गया है कि दुनिया अपने संकीर्ण भू-राजनीतिक हितों से ऊपर उठे और इस युद्ध का समाधान खोजने के लिए भारत को मनाने के लिए आगे आए।

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